अब यह कस्बा हो गया है। जब वे रहे होंगे तब यह गांव ही था। नाम भी गांव ही - चिरगांव। पहले के समय में हिंदी भाषा की पढ़ाई करते समय लेखकों और कवियों की जीवनी याद करने की मजबूरी होती थी। अब तो जीवनी से पाठ्यक्रम का कोई नाता नहीं है लेकिन तब हाईस्कूल और इण्टर में जीवनी बहुत महत्वपूर्ण हो जाती थी। सूर, कबीर, मीरा के साथ ही प्रसाद, पंत निराला, महादेवी, मैथिलीशरण गुप्त को भी याद करना पड़ता था। प्रेमचंद की लमही की तरह ही गुप्त जी के जन्मस्थल चिरगांव की याद तभी से है। चिरगांव में तीन अगस्त को मैथिलीशरण गुप्त की जयंती पर उनके पौत्र डॉ. वैभव गुप्त ने बड़ी जुटान जुटाई।
बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, झांसी और मैथिलीशरण गुप्त के परिवार के संयुक्त संयोजकत्व में झाँसी से लेकर चिरगांव तक दो दिन साहित्य का उत्सव चला। राष्ट्रकवि दद्दा यानी मैथिलीशरण गुप्त को लेकर चर्चाओं के कई दौर चले। तीन की शाम पद्मश्री मालिनी अवस्थी ने अपनी लोकशैली में दद्दा को याद किया और बुंदेलखंड को अवधी भोजपुरी के रास में सराबोर कर दिया। केंद्रीय हिंदी संस्थान के निदेशक प्रो.नंदकिशोर पांडेय की इन दो दिनों की पूरी उपस्थिति और बुंदेलखंड विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. सुरेंद्र दुबे की भावनत्मक सहभागिता ने राष्ट्रकवि की चेतना से वर्तमान को जोडऩे में अद्भुत योगदान किया। हिंदी विभाग के अध्यक्ष डॉ. मुन्ना तिवारी , डॉ. पुनीत बिसारिया , केरल विश्वविद्यालय से चिरगांव दर्शन के लिए आयीं प्रो. एन जी देवकी , डॉ. अचला , डॉ, नवीन , डॉ. श्रीहरि , डॉ. अनिल आदि ने अपने अपने ढंग से राष्ट्रकवि को रेखांकित किया।
चिरगांव में साहित्यकारों और गुप्त जी के बुजुर्ग तत्कालीन सहयोगियों ने सहज भाव से इतिहास को रेखांकित किया। अपना व्याख्यान शुरू करते हुए प्रो. पांडेय ने पिछली शताब्दी के उस दौर को रेखांकित किया जिस दौर की कठिन परिस्थितियों में मैथिलीशरण गुप्त जैसे रचनाकार लिख भी रहे थे और स्वाधीनता की अलख भी जगा रहे थे। वक्ताओं ने उन क्षणों को याद किया। गुप्त जी चाहते तो बड़े आराम का जीवन भी बिता सकते थे। घर में जमींदारी और घी की आढ़त थी। ऐसे सम्पन्न वातावरण में उनका बचपन सुखपूर्वक बीता। उन दिनों व्यापारी अपना व्यापारिक हिसाब-किताब प्राय: उर्दू में रखते थे। अत: इनके पिता ने प्रारम्भिक शिक्षा के लिए इन्हें मदरसे में भेज दिया। वहाँ मैथिलीशरण गुप्त अपने भाई सियाराम के साथ जाते थे।
बुजुर्गों ने अतीत को याद करते हुए कहा कि मदरसे में उनका मन नहीं लगता था। वे बुन्देलखण्ड की सामान्य वेशभूषा अर्थात ढीली धोती-कुर्ता, कुर्ते पर देशी कोट, कलीदार और लाल मखमल पर जरी के काम वाली टोपी पहन कर आते थे। वे प्राय: अपने बड़े-बड़े बस्ते कक्षा में छोडक़र घर चले जाते थे। सहपाठी उनमें से कागज और कलम निकाल लेते। उनकी दवातों की स्याही अपनी दवातों में डाल लेते; पर वे कभी किसी से कुछ नहीं कहते थे। उन दिनों सम्पन्न घरों के बच्चे अंग्रेजों के चर्च से संचालित अंग्रेजी विद्यालयों में पढ़ते थे। गुप्त जी के पिता ने भी इन्हें आगे पढऩे के लिए झाँसी के मैकडोनल स्कूल में भेज दिया; पर भारत और भारतीयता के प्रेमी मैथिलीशरण का मन अधिक समय तक वहां नहीं लग सका। वे झाँसी छोडक़र वापस चिरगाँव आ गये। अब घर पर ही उनका अध्ययन चालू हो गया और उन्होंने संस्कृत, बंगला और उर्दू का अच्छा अभ्यास कर लिया। इसके बाद गुप्त जी ने मुन्शी अजमेरी के साथ अपनी काव्य प्रतिभा को परिमार्जित किया। झाँसी में उन दिनों आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी रेलवे में तार बाबू थे। उनके सम्पर्क में आकर गुप्त जी ने खड़ी बोली में लिखना प्रारम्भ कर दिया। बोलचाल में वे बुन्देलखण्डी में करते थे; पर साहित्य लेखन में उन्होंने प्राय: शुद्ध और परिमार्जित हिन्दी का प्रयोग किया।
गुप्त जी को अपनी भाषा, बोली, क्षेत्र, वेशभूषा और परम्पराओं पर गर्व था। वे प्राय: बुन्देलखण्डी धोती और बण्डी पहनकर, माथे पर तिलक लगाकर बड़ी मसनद से टिककर अपनी विशाल हवेली में बैठे रहते थे। साहित्यप्रेमी हो या सामान्य जन,कोई भी किसी भी समय आकर उनसे मिल सकता था। राष्ट्रकवि के रूप में ख्याति पा लेने के बाद भी बड़प्पन या अहंकार उन्हें छू नहीं पाया था। यों तो गुप्त जी की रचनाओं की संख्या बहुत अधिक है; पर विशेष ख्याति उन्हें ‘भारत-भारती’ से मिली। उन्होंने लिखा है -
मानस भवन में आर्यजन, जिसकी उतारें आरती
भगवान् भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती।।
भारत भारती में देश की वर्तमान दुर्दशा पर क्षोभ प्रकट करते हुए कवि ने देश के अतीत का अत्यंत गौरव और श्रद्धा के साथ गुणगान किया। भारत श्रेष्ठ था, है और सदैव रहेगा का भाव इन पंक्तियों में गुंजायमान है-
भूलोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ?
फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल कहाँ?
संपूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है?
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है।