लखनऊ। मोदी सरकार बनने के बाद यदि कोई मुद्दा सबसे ज्यादा चर्चा में रहा तो वह है राष्ट्रवाद। देश की प्रतिष्ठित जवाहरलाल यूनिवर्सिटी में कन्हैया कांड से लेकर सर्जिकल स्ट्राइक तक यह खूब उभार पर रहा। अब सामाजिक तानों-बानों में भी यह एक अलग शक्ल अख्तियार कर चुका है। नवरात्रि में होने वाले मां दुर्गा के जगराते (भगवती जागरण) भी इससे अछूते नहीं रहे। राष्ट्रवाद माता के भजनों में भी हिलोरें मार रहा है।
हालांकि सामाजिक तानों-बानों में घर कर चुके इस राष्ट्रवाद की सियासी दल अलग-अलग व्याख्या कर चुके हैं। इसी वजह से सहिष्णुता और असहिष्णुता पर लंबी बहस शुरू हुई। इसके विरोध में 2016 में तमाम साहित्यकारों ने अपने अवार्ड भी वापस किए।
कहा जाता है, कि किसी देश या समाज का 'मानस पटल' उसके साहित्यों, गीतों और कविताओं में झलकता है। यदि समाज का मन टटोलना हो तो तत्कालीन साहित्य इसके सबसे सटीक साधन होते हैं। वर्तमान में आपको यदि अपने आस पास के माहौल की नब्ज टटोलनी है तो अपने आस पास घट रही सांस्कृतिक-साहित्यिक उत्सवों पर नजर दौड़ाइए। मौजूदा सीजन में प्रचलित माता के जगरातों को देखें तो आप पाएंगे कि यहां मौजूद श्रोताओं को कुछ ऐसे संबोधित किया जा रहा है जो खासे प्रचलित भी हो चुके हैं। जैसे-गायक या मंच संचालक कहता है कि सबको इस तरह सावधान मुद्रा में खड़े होना है जैसे हम तिरंगे के सम्मान में खड़े होते हैं। इन सबके बीच भक्तों की श्रद्धा सभी लयों पर ताल देकर खूब थिरक रही है। यही हमारे देश की सांस्कृतिक खूबसूरती है जो तमाम विविधताओं और विषमताओं के बीच सामंजस्य बनाए रखती है।
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जीएसटी और नोटबंदी पर यूं कटाक्ष
श्रोताओं में उत्साह की कमी पर अक्सर सभाओं में एक जुमला उछलता है कि लग रहा है कि जीएसटी की वजह से सबकी आवाज दबी-दबी सी निकल रही है। मोदी के नोटबंदी को लेकर गीत गाए जा रहे हैं, उनमें से कुछ यूं भी हैं—
'पांच सौ—हजार क नोट बंद कइके
मोदी लईल दो सौ—दो हजार क नोटवा'
राम मंदिर का भी बजता है बिगुल
सांस्कृतिक पर्वों पर राम के नाम का जिक्र न हो, यह कैसे हो सकता है। यदि कहा जाए कि राम सनातन धर्म की आत्मा हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। पर्वों पर राम मंदिर निर्माण को लेकर भी नेताओं को खूब कोसा जा रहा है।