कविता: तू भी चुप है मैं भी चुप हूं

Update:2018-07-28 14:41 IST

जौन एलिया

तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ ये कैसी तन्हाई है

तेरे साथ तिरी याद आई क्या तू सच-मुच आई है।

शायद वो दिन पहला दिन था पलकें बोझल होने का

मुझ को देखते ही जब उस की अंगड़ाई शर्माई है।

उस दिन पहली बार हुआ था मुझ को रिफाकत का एहसास

जब उस के मल्बूस की ख़ुश्बू घर पहुँचाने आई है।

हुस्न से अजऱ्-ए-शौक न करना हुस्न को ज़क पहुँचाना है

हम ने अजऱ्-ए-शौक न कर के हुस्न को ज़क पहुँचाई है।

हम को और तो कुछ नहीं सूझा अलबत्ता उस के दिल में

सोज़-ए-र$काबत पैदा कर के उस की नींद उड़ाई है।

हम दोनों मिल कर भी दिलों की तन्हाई में भटकेंगे

पागल कुछ तो सोच ये तू ने कैसी शक्ल बनाई है।

इशक-ए-पेचाँ की संदल पर जाने किस दिन बेल चढ़े

क्यारी में पानी ठहरा है दीवारों पर काई है।

हुस्न के जाने कितने चेहरे हुस्न के जाने कितने नाम

इश्क का पेशा हुस्न-परस्ती इश्क बड़ा हरजाई है।

आज बहुत दिन बाद मैं अपने कमरे तक आ निकला था

जूँ ही दरवाजा खोला है उस की खुश्बू आई है।

एक तो इतना हब्स है फिर मैं साँसें रोके बैठा हूँ

वीरानी ने झाड़ू दे के घर में धूल उड़ाई है॥

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