कविता: आशा, आ! आह ! से निकलती, अकुलाई आशा दूर है कहीं

Update:2018-10-05 18:37 IST

सुरभि सप्रू

आ! आह ! से निकलती

अकुलाई आशा दूर है कहीं

चौमासा के मास में भीगने से

डरती है बहुत।

लगता है छुप गई है

सेहुंड से भरे कोने में

भीतर कहीं दग्ध पंखुडिय़ों के

छुप गई है अपूर्ण आशा

जितनी जीवित है

बेकल है उतनी ही

खिन्नचित्त है..

वो छिली हुई आशा..

व्यस्त रेत में घुले कणों को

सिलती हुई टूटी भाषा

में धंस गई है आशा...

समय को भूलकर

पीछे फिसलती, कांटों से

चीख-चीखकर कहती आशा

‘आशा’ से हो गई हूँ ‘आह’ शा...

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