हक्के, बक्के, भौंचक्के शब्द मेरे हैं यार।
अक्ल नहीं है जिसे वो भी कलम ले के तैयार।।
शब्द मेरी कलम के आज बहुत शर्मिंदा हैं।
कुछ भी कोई भी लिख दे, पन्ने फिर भी जिंदा हैं।
कभी कभी लगता है,कलम कहीं छिपा दूँ।
कैसा कैसा पढऩा पढ़ रहा है,क्यों ना इसे दफना दूँ।।
कहाँ से अब नीरज (गोपालदास) से कवि आएंगे।
पता नहीं अब कैसे कैसे कवि कलम से पन्नों को खुजलायेंगे।।
हर कोई आज अपनी ढपली बजा रहा है।
अमृत का प्याला बता कर जहर पिला रहा है।।