संदीप अस्थाना
आजमगढ़। राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं यहां के कई दिग्गजों को ले डूबी हैं। इनमें से कई दिग्गज ऐसे हैं जो हर चुनाव में राजनीति की मुख्य धारा में हुआ करते थे, लेकिन इस चुनाव में वे कहीं पर भी दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। कार्यकर्ता तक इनको नहीं पूछ रहे हैं। बहरहाल, ऐसे लोगों की लम्बी फेहरिस्त है।
अमर सिंह
मूलत: आजमगढ़ के रहने वाले अमर सिंह एक जमाने में सपा के बड़े राष्ट्रीय नेता हुआ करते थे। मुलायम सिंह यादव उन्हें अपने अनुज की तरह मानते थे। अमर सिंह को सपा का महासचिव व प्रवक्ता बनाया गया था। अखिलेेश यादव भी सगे अंकल की तरह उनका सम्मान करते थे। बाद में हालात बदले और अमर सिंह का रुतबा खत्म हो गया। अंतत: उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता देखना पड़ा। 'लोकमंचÓ नामक संगठन खड़ा करके वह पृथक पूर्वांचल राज्य का मुद्दा गरमाने लगे। उनके मंच पर क्षत्रियों का इस कदर जमावड़ा हुआ कि लोकमंच क्षत्रियों का संगठन बनकर रह गया। विधानसभा के एक चुनाव मेें लोकमंच ने अपने प्रत्याशी भी उतारे, लेकिन कोई भी प्रत्याशी अपनी जमानत नहीं बचा सका। इसी के साथ संगठन खत्म हो गया। अमर सिंह फिर सपा में आ गए। राज्यसभा भी भेज दिए गए। इसके बावजूद वह पुराने ढर्रे पर ही चलने लगे और फिर सपा से निकाले गए। समय का रुख देखकर वह मोदी का गुणगान करने लगे। बात नहीं बनी तो आजमगढ़ की अपनी करोड़ों मूल्य की सारी सम्पत्ति आरएसएस को दे दी। जयाप्रदा को रामपुर से टिकट दिलाने में कामयाब रहे। यह अलग बात है कि भाजपा ने आज तक उन्हें नोटिस में नहीं लिया है और वह राजनीति में अलग-थलग पड़े हुए हैं।
बलराम यादव
इनका राजनीतिक सफर ठीक-ठाक चल रहा था। बलराम यादव पूरे पूर्वांचल में सपा के सबसे बड़े नेता के रूप में गिने जा रहे थे। वह दल के राष्ट्रीय महासचिव भी हैं। उन पर आरोप रहा कि वह पार्टी में किसी अन्य नेता को आगे नहीं बढऩे देते थे। यही वजह रही कि पिछले लोकसभा चुनाव में जब उनके धुरविरोधी सपा जिलाध्यक्ष हवलदार यादव को टिकट मिल गया तो उन्होंने नेता जी यानी मुलायम सिंह यादव को यहां से लड़ाने को राजी कर लिया। चुनाव जीतने के बाद मुलायम सिंह पांच साल जिले में आए नहीं। ऐसे में यहां का बड़ा नेता होने की उनकी साख बनी ही रही। इस बार फिर हवलदार यादव को ही टिकट मिलने वाला था। बताया जाता है कि बलराम यादव ने सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव को यहां से लड़ाने को राजी कर लिया। अब जबकि अखिलेश यादव यहां आ गए हैं तो उनको लग रहा है कि अब उनका कद छोटा हो जाएगा। पार्टी कार्यकर्ता भी बलराम को कुछ खास तवज्जो नहीं दे रहे हैं। सभी को यह लग रहा है कि अब तो उनके नेता सीधे अखिलेश ही हैं।
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रामदर्शन यादव
सपा के पूर्व जिलाध्यक्ष रामदर्शन यादव इस जिले की समाजवादी राजनीति में अहम स्थान रखते थे। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में मुबारकपुर से टिकट न मिलने के कारण नाराज होकर भाजपा में चले गए। भाजपा ने मुबारकपुर से उन्हें टिकट तो दिया मगर हार गए। बाद में 2014 में जब मुलायम सिंह यादव आजमगढ़ से लोकसभा का चुनाव लडऩे आए तो रामदर्शन ने घर वापसी कर ली। समाजवादी कुनबे में जब कलह हुआ तो वह शिवपाल के साथ चले गए। अब वह शिवपाल की पार्टी के प्रदेश महासचिव भी हैं। यह अलग बात है कि इस जिले में शिवपाल के दल का कोई वजूद नहीं है। ऐसे में रामदर्शन इस चुनाव में कहीं पर नजर भी नहीं आ रहे हैं।
रमाकान्त यादव
आजमगढ़ के बाहुबली पूर्व सांसद रमाकान्त यादव हर चुनाव में इस जिले का अहम चेहरा हुआ करते थे। पिछले लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव के खिलाफ भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़े। जिस दिन मुलायम नेे पर्चा भरा, उसी दिन रमाकान्त ने भी पर्चा दाखिल किया। रमाकान्त के कार्यकर्ताओं ने पर्चा दाखिला के दिन उद्दंडता की सारी हदें पार कर दीं थीं। इसी का नतीजा रहा कि उनके लिए सपा के दरवाजे बंद हो गए। इस बार वह सपा से टिकट चाहते थे, लेकिन दाल नहीं गली। बसपा के लिए तो वह पहले से ही अछूत बने हुए थे। भाजपा में रहते यह सोच कर सवर्णों को ऊटपटांग बोलने लगे और योगी आदित्यनाथ व राजनाथ सिंह के खिलाफ भी जहर उगला। शायद उन्हें लग रहा था कि उनको टिकट देना भाजपा की मजबूरी है। भाजपा ने उनको नजरअंदाज करते हुए भोजपुरी सुपर स्टार दिनेश लाल यादव 'निरहुआ' को मैदान में उतार दिया। कोई रास्ता नहीं बचा तो रमाकान्त कांग्रेस में शामिल हो गये जहां उन्हें भदोही सेे टिकट मिला है। अब नए क्षेत्र में वह बतौर कांग्रेस उम्मीदवार कैसा प्रदर्शन करेंगे, यह देखने की बात है।
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बलिहारी बाबू
बलिहारी रजिस्ट्री विभाग में मामूली बाबू थे। शुरू सेे ही बामसेेफ से जुड़ाव होने के कारण बसपा ने रिटायर होने के बाद उनको राज्यसभा में भेज दिया। साथ ही पार्टी में उन्हें अहम जिम्मेदारी भी दी गयी। उन्हें लगा कि वही बसपा को चला रहे हैं। अनाप-शनाप काम करने लगे तो पार्टी से निकाल दिए गए। कांग्रेस में गए तो उनको पिछले चुनाव में लालगंज सुरक्षित सीट से विधानसभा का टिकट मिला। फिसड्डी साबित हुए। अब फिर बसपा में लौट तो आए हैं मगर कोई तवज्जो नहीं मिल रही है। पूरी तरह से अलग-थलग पड़े हैं।
चन्द्रदेव राम यादव 'करैली'
करैली की खेती से जिन्दगी का सफर शुरू करने वाले चन्द्रदेव राम यादव ने ऐसा बिजनेस किया कि उनके नाम के साथ करैली उपनाम जुड़ गया। उन्हïोंने राजनीति में कदम रखा और बसपा के टिकट पर विधायक हो गए। बाद में मंत्री बने। इतना भ्रष्टाचार किया कि घोटाले में जेल जाना पड़ा। जेल जाने के बाद बसपा ने उनके विधानसभा क्षेत्र मुबारकपुर से शाहआलम उर्फ गुड्ड जमाली को टिकट दे दिया। जमाली जीत भी गए। वह दूसरी बार विधायक हैं। ऐसे में अति महत्वाकांक्षा के कारण उनके हाथ से उनका विधानसभा क्षेत्र खिसक गया। इस चुनाव में बसपा ने उन्हें कैसरगंज से उम्मीदवारी दी है। फिलहाल यह तो तय है कि इस जिले की राजनीति से करैली की छुट्टी हो गयी है।
आमिर रशादी
आजमगढ़ स्थित जामेर्तुरशात मदरसे के मामूली नाजिम थे। बाटला इंकाउंटर हुआ तो आरोपित लड़कों को न्याय दिलाने के नाम पर उलेमा कौंसिल नाम से संगठन खड़ा कर दिया। मुसलमान काफी संख्या में साथ जुड़े। लड़ाई के लिए काफी धन भी दिया। आमिर रशादी रातों रात करोड़पति हो गए। बाटला की कई बरसी पर ट्रेन बुक कराकर दिल्ली धरना देने पहुंचे। इसके अलावा कुछ नहीं किया। अपने संगठन को राजनीतिक दल का रूप जरूर दे दिया। जल्दी ही मुसलमान उनकी हकीकत समझ गए और उनसे किनारा कस लिया। अब खोई प्रतिष्ठा पाने के लिए वह छटपटा रहे हैं मगर मुसलमान उनके साथ वापस लौटने को तैयार नहीं हंै।
डा. सुजीत भूषण श्रीवास्तव
डीएवी पीजी कालेज में असिस्टेंट प्रोफेसर डा. सुजीत भूषण श्रीवास्तव की राजनीतिक महत्वाकांक्षा थी। उन्होंने 'तमसा बचाओÓ आन्दोलन शुरू किया। लोग साथ जुड़े तो नगरपालिका का चुनाव लड़ गए, लेकिन फिसड्डी साबित हुए। हाल ही में विश्वविद्यालय के लिए आन्दोलन शुरू किया। योगी ने आजमगढ़ में विश्वविद्यालय की हवाई घोषणा कर दी तो विश्वविद्यालय आभार यात्रा निकालकर योगी का गुणगान करने लगे। इसके विपरीत आजमगढ़ आए योगी ने साफ तौर पर कह दिया कि निरहुआ को जिताइए, यही सांसद बनने के बाद विश्वविद्यालय का शिलान्यास करेंगे।
बढ़ा हवलदार का कद
आजमगढ़ की राजनीति में जहां कई लोगों का कद घटा है, वहीं पर सपा जिलाध्यक्ष हवलदार यादव का कद बढ़ा है। पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी के प्रति उनकी निष्ठा को देखते हुए उन्हेें उम्मीदवारी देना तय था। लेकिन बाद में यहां खुद मुलायम सिंह यादव मैदान में आ गए। इस चुनाव मेें भी हवलदार की उम्मीदवारी तय मानी जा रही थी, लेकिन ऐन वक्त पर अखिलेश यादव खुद मैदान में आ गए। ऐसी स्थिति में निश्चित रूप से उनका कद बढ़ा है। चर्चा है कि उन्हें कुछ और इनाम मिल सकता है।