संदीप अस्थाना
आजमगढ़: देश के दलित नेता के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले जगजीवन राम की पार्टी कांग्रेस जे से शुरू हुआ बाहुबली रमाकान्त यादव का राजनीतिक सफर गांधी परिवार की दहलीज तक जा पहुंचा है। यहां वह कितने दिनों तक रहेंगे, यह शायद उनको खुद भी नहीं पता होगा। इसकी वजह यह कि अपने साढ़े तीन दशक के राजनीतिक जीवन में उन्होंने कभी किसी भी दल से कोई गुरेज नहीं किया। सच तो यह है कि राजनीति मेें उनकी कभी न तो कोई नीति रही और न ही कोई सिद्धान्त। बस जब भी उनको लगा कि उनकी आसान जीत के लिए अमुक दल मुफीद रहेगा, तब उसी दल का दामन थाम लिया। अब केवल एक कांग्रेस ही बची हुई थी और उस घर को टटोलने के लिए भी उनका कारवां पहुंच चुका है।
अति पिछड़े पूर्वांचल के नक्शे में देखा जाए तो इसके सबसे पिछड़ेे जिले आजमगढ़ का सबसे पिछड़ा इलाका फूलपुर ही है। तीन दशक पहले इस फूलपुर इलाके में दुर्दान्त डकैत अमरेज यादव हुआ करता था। आम आदमी उससे परेशान था। साधारण किसान परिवार के रमाकान्त यादव ने उसका प्रतिरोध किया। प्रतिरोध की उस आग से जो ज्वाला निकली उसने रमाकान्त यादव को मसीहा के रूप में प्रस्तुत किया और वह फूलपुर इलाके के हर अमनपसंद व्यक्ति के चहेते हो गये। इसी के साथ उन्होंनेे राजनीति में कदम रखा।
चार बार विधायक व चार बार सांसद
राजनीति में कदम रखने के कुछ माह बाद ही विधानसभा का चुनाव था। जगजीवन राम की कांग्रेस जे ने उन्हें फूलपुर सीट से टिकट दे दिया। निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में अमरेज यादव ने भी ताल ठोंकी। अमरेज यादव को पटकनी देते हुए रमाकान्त यादव 1985 में विधानसभा में पहुंचनेे में कामयाब हो गये। इसके बाद वर्ष 1989 में वह फूलपुर से दूसरी बार विधायक बने।
समाजवादी पार्टी के गठन के साथ ही वह सपा में शामिल हो गए और सपा के टिकट पर वर्ष 1991 व 1993 में फूलपुर सीट से विधायक चुने गए। आजमगढ़ जिले में उनका राजनीतिक ग्राफ लगातार बढ़ता ही चला गया। इस बीच वह कब बाहुबली हो गये, यहां के लोगों को पता ही नहीं चल सका। वर्ष 1996 के लोकसभा चुनाव में सपा ने पहली बार उनको आजमगढ़ संसदीय सीट से उतारा और वह बसपा के रामकृष्ण यादव को हराकर संसद पहुंचने में कामयाब हो गए। वर्ष 1998 के लोकसभा चुनाव में बसपा के अकबर अहमद डम्पी ने उन्हें पटखनी देे दी।
वर्ष 1999 में जब फिर लोकसभा का चुनाव हुआ तो रमाकान्त यादव फिर सपा के टिकट पर संसद में पहुंच गए। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में वह बसपा में चले गए और बसपा के टिकट पर लोकसभा में पहुंचे। यह अलग बात है कि बसपा सुप्रीमो से मतभेदों के चलते वह फिर सपा में चले गए। ऐसे में उन पर दलबदल कानून के तहत कार्रवाई हुई और उनकी सदस्यता चली गई। उपचुनाव होने पर बसपा प्रत्याशी अकबर अहमद डम्पी ने फिर हरा दिया। 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली। भाजपा ने उन्हें टिकट दिया और वह लोकसभा का सफर तय करने में कामयाब रहे। इस संसदीय क्षेत्र में यह भाजपा की पहली जीत भी थी।
कई चर्चित मामलों में आया नाम
चार सगे क्षत्रिय बंधुओं को जिन्दा जमीन में गड़वा देने, जंगली राम इंजीनियर को जीप में बांधकर घसीटते हुए मार डालने सहित कुछ ऐसे चर्चित मामले हैं, जिनके साथ बाहुबली रमाकान्त यादव का नाम जुड़ा हुआ है। अभी कुछ वर्ष पूर्व उलेमा कौंसिल के कार्यकर्ता के कत्ल के मामले में भी उनका नाम आया था।
परिवार से हटकर कभी देखे ही नहीं रमाकान्त
बाहुबली रमाकान्त यादव आजमगढ़ के लोकप्रिय नेता रहे। यहां की जनता ने उनको फूलपुर से चार बार विधायक व आजमगढ़ संसदीय सीट से चार बार सांसद बनाया। बावजूद इसके वह घर-परिवार से परे हटकर कभी देखे ही नहीं। उनकी परिवारवादी सोच का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2007 के विधानसभा चुनाव में वह अपने पुत्र अरुण कान्त यादव को अपनी परम्परागत सीट फूलपुर-पवई से टिकट दिलाने में कामयाब रहे और जिताकर उस सदन का सबसे कम उम्र का विधायक बना दिया। 2012 के विधानसभा चुनाव में भी अपने पुत्र अरुण कान्त को भाजपा से टिकट दिलाने में कामयाब रहे मगर इस चुनाव में सपा के श्यामबहादुर यादव ने उनके बेटे को हरा दिया। 2017 के विधानसभा चुनाव में अरुण कान्त को फिर भाजपा से उम्मीदवारी मिली और वह चुनाव जीतकर दूसरी बार विधायक बने। इतना ही नहीं ग्राम प्रधान से लेकर महाप्रधान व ब्लाक प्रमुख तक के पदों पर इनके ही परिवार का कब्जा है।
सहकारी समितियों के भी पदाधिकारी इनके परिवार के ही लोग हैं। अपनी दूसरी पत्नी रंजना यादव को वह फूलपुर के साथ निजामाबाद से विधानसभा का चुनाव लड़ा चुके हैं मगर उनको जीत हासिल नहीं हो सकी। अपनी सभाओं के गवइये, बजनिये तक को उन्होंने भाजपा जैसी पार्टी के टिकट पर विधानसभा का चुनाव लड़ा दिया। यह और बात है कि वे जीत नहीं सके। अपने भाई की बहू के लिए वह पिछले विधानसभा में दीदारगंज से भाजपा से टिकट मांग रहे थे मगर नहीं मिला। ऐसे में भाजपा में रहते हुए भी उन्होंने अपनी बहू को दीदारगंज से निर्दल उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ाया जबकि उनका बेटा फूलपुर से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहा था। इस चुनाव में उनके बहू की करारी शिकस्त हुई। अपनी पहली पत्नी को उन्होंने इसी बार नवगठित माहुल नगर पंचायत से अध्यक्ष का चुनाव लड़ाया मगर वे बड़े अंतर से हार गयीं। इन स्थितियों के बीच यह कहा जा सकता है कि अब शायद रमाकान्त यादव के जनाधार की नींव खिसक चुकी है।
भाजपा से टिकट नहीं तो थामा कांग्रेस का दामन
वर्ष 2014 की मोदी लहर में भाजपा ने फिर उन्हें आजमगढ़ संसदीय सीट से उतारा। इस चुनाव में इस सीट से सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव खुद मैदान में आ गए। ऐसे में रमाकान्त को पराजय का सामना करना पड़ा। इस पराजय के बाद भी वह भाजपा में ही बने रहे। वर्ष 2019 के इस लोकसभा चुनाव में रमाकान्त यादव को पूरा भरोसा था कि भाजपा उन्हें टिकट देगी। यह भरोसा इसलिए भी था क्योंकि उन्हें लग रहा था कि सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव से आजमगढ़ में लडऩे लायक उनके अलावा भाजपा के पास कोई चेहरा ही नहीं है मगर भाजपा ने इस सीट से भोजपुरी स्टार दिनेश लाल यादव उर्फ निरहुआ को उतार दिया। भाजपा नेतृत्व के इस फैसले से बाहुबली रमाकान्त यादव खासा नाराज हुए। विकल्प न दिखने से वह चुप बैठे हुए थे। विकल्प न दिखने की वजह यही थी कि सपा से दल के मुखिया अखिलेश यादव खुद मैदान में हैं। बसपा का सपा के साथ गठबंधन है, ऐसे में बसपा से भी खारिज ही थे।
कांग्रेस ने इस नैतिकता के आधार पर आजमगढ़ से अखिलेश के खिलाफ उम्मीदवार न उतारने का निर्णय ले रखा है कि जब सपा-बसपा गठबंधन ने कांग्रेस हाईकमान राहुल गांधी व सोनिया गांधी के खिलाफ अपना प्रत्याशी नहीं उतारा तो कांग्रेस भला अखिलेश के खिलाफ किस तरह से उम्मीदवार खड़ा कर सकती है। कोई रास्ता न देखकर आखिरकार बाहुबली रमाकान्त ने कांग्रेस का दामन थाम लिया। कांग्रेस ने भी उन्हें यूपी की भदोही सीट से उम्मीदवारी दी है। इस नई जगह पर वह अपने और कांग्रेस के लिए कितना बेहतर कर पाते हैं, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।