जर्मनी में सरदार टहलसिंह अपनी सिखी के तमाम कक्के उतार कर भी सरदार रह गया था। वह दरअसल ढाई अक्खर जर्मन भाषा सीख कर हाइम नंबर छह के चीफ का चहेता बन गया था और उसकी ओर से निश्चित अपने कमरे वालों का सरदार।
हमारे कमरे के पाँचों लंबे धड़ंगे पंजाबी, जो अपने बापों की जमीनें औने पौने बेच कर जर्मनी पहुँचे थे, जर्मन तो क्या अंग्रेज़ी के भी दो शब्द ठीक तरह से नहीं बोल सकते थे। जर्मन शेफ को उनसे जब बेड का साप्ताहिक किराया वसूली करना होता या कोई बात समझानी होती या उनकी नालायकियों या गलतियों और गंदगियों पर चेतावनी देनी होती तो वह उन्हें जर्मन भाषा में खूब जली कटी सुनाता मगर जब उसकी बदजुबानी और गुस्से पर वे और अधिक आनंदित होने लगते तो वह टहलसिंह को बुला लेता और टहलसिंह उसकी कुछ भी बात न समझ कर अपने ढाई जर्मन अक्खरों के सहारे सब कुछ समझ कर सिर हिलाता। अपने पंजाबी भाइयों की ओर बढ़ आता और उन्हें सबकुछ समझा देता। टहलसिंह उन पाँचों पर गुस्से से गरजता और बरसता मगर साथ ही उनकी घन गरज में ठंडी मीठी फुहार की लहरें भी छुपी नजऱ आती रहतीं। वे टेढ़े मेढ़े पंजाबी सीधी राह पर आ जाते और जर्मन सेठ की सारी शिकायतें वक्ती तौर पर दूर हो जातीं। कमरे के सात साथियों में एक मैं ही पढ़ा लिखा था और किसी न किसी तरह जर्मन सेठ से गुज़ारे लायक टूटी फूटी अंग्रेज़ी मिली जर्मन से काम चला लेता था। इसलिये टहलसिंह मुझसे थोड़ा दबता और तमीज़ से पेश आता।
मुझे जर्मनी आए एक महीना हुआ था मगर उन सब में एक मैं ही बेरोजग़ार था। इसलिये रात-रात भर बैठा सोचा करता कि क्यों मैं अच्छी भली नौकरी छोड़ कर जर्मनी भाग आया। तडक़े मेरी आँख लगती तो सुबह दस बजे से पहले न खुलती। हाँ बीच में कोई चार पाँच बजे के बीच कुछ शब्द मेरे कानों में जरूर बज उठते मगर मैं उन्हें अपने ही ख्वाबों की बड़बड़ाहट समझ कर फिर से चादर तान कर सो जाता। कभी कभी सुर में गाए जाते यह शब्द कुछ साफ भी सुनाई दे जाते- ‘ढाई अक्खर प्यार के।’ हजार कोशिशों के बाद भी टहलसिंह की अँग्रेजी ढाई शब्दों तक ही सीमित रहती - नंदा साहब! आई टैक्सी, बिग बिग साहब, नई दिल्ली फादर टैक्सी दिल्ली, मेनी मनी, बुक होम...।
मैं समझ जाता कि वह अपनी इस टूटी फूटी अंगरेजी से यूरोप से आए सैलानियों को नयी दिल्ली की सैरें कराता होगा। बाप भी उसका दिल्ली का टैक्सी ड्राइवर होगा। उसे न जाने क्या सूझी कि सब कुछ छोड़ कर जर्मनी भाग आया। उसका जवाब खुद मेरी अपनी सूरत में मेरे पास था। मगर फिर भी मैं उससे पूछ ही बैठता- टहलसिंह व्हाइ यू केम टु जर्मनी?
‘नंदा साहब! नो जर्मनी आई इंग्लैंड टैक्सी, फादर दिल्ली टैक्सी, मेनी मनी बुक होम।’ ‘तो क्या तुम इंगलैंड जाकर टैक्सी चलाना और अमीर होना चाहते हो?’ ‘यू नो हिन्दी मी इ़ंगलिश ओनली?’
मैं समझ जाता कि अँग्रेजी सीखने के शौक में वह मेरे साथ केवल अँग्रेज़ी में ही बात करना चाहता है। मैं अँग्रेज़ी बोलता। वह अगर कुछ भी न समझ पाता तो भी सिर हिलाता। यस, यस, यूँ किये जाता जैसे बहुत बड़ा अँग्रेज़ी दाँ हो। बेरोजग़ारी ने मुझे थोड़ा चिड़चिड़ा बना दिया था और टहलसिंह को इसका पता था, मगर वह मेरी क्या मदद कर सकता था, वह तो खुद बेरोजग़ार था। एक रात सुबह चार बजे तक मुझे नींद नहीं आई और साढ़े चार बजे के करीब गाए जाते कुछ शब्द साफ साफ मेरे कानों से जा टकराए- ‘पढ़ पढ़ के सब जग मुआ पंडित भया न कोय
ढाई अक्खर प्यार के पढ़े सो पंडित होय।’
मैंने चादर से मुँह हटा कर देखा। यह टहलसिंह था, जो मुँह हाथ धोकर, कपड़े पहनता हुआ, मुँह ही मुँह में कुछ पवित्र श्लोकों का पाठ करता, कहीं जाने को तैयार हो रहा था। नींद तो मुझसे रूठ ही चुकी थी। मैंने यूँ ही पूछ लिया- ‘टहलसिंह, कहीं जा रहे हो?’ उसे मेरा हिंदी में पूछना बुरा लगा। मगर मुझे सीधे रस्ते पर लाने के लिये वह अंगरेज़ी में बोला- ‘आई वर्क।’
‘वेअर? कैन यू गेट मी अ जॉब?’
बेरोजग़ारी ने मुझे टहलसिंह के आगे झुकने और नौकरी माँगने पर मजबूर कर दिया था। उसने ‘वेअर’ और ‘जॉब’ ही के दो शब्दों से अंदाज़ा लगा लिया कि मैं उससे कोई नौकरी दिलवाने की प्रार्थना कर रहा हूँ। वह बोला, ‘यू बिग साहब आई सब्जी मंडी।’
बेरोजगारी मुझे ऊपर से नीचे ले आई थी। मैंने उसे समझाया कि काम छोटा या बड़ा नहीं होता। इसलिये वह मुझे अपने साथ सब्जीमंडी ले गया। वहाँ ट्रकों से आलू के बोरे उतारने और अंदर मंडी की दुकानों पर पहुँचाने का काम करता था। उसने ट्रक ड्राइवर से अपने ढाई जर्मन अक्खरों के जरिये मेरी सिफारिश की।
ड्राइवर ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा। मेरे कमजोर जिस्म को देखते हुए एक बार तो मुझे ऐसा लगा कि मैं उसके काम का आदमी नहीं और वह फौरन इनकार कर देगा, मगर न जाने उसे मेरे मरियल जिस्म या बिसूरती शक्ल पर तरस आ गया या टहलसिंह के ढाई अक्खरों ने कोई कमाल कर दिखाया कि उसने मुझे बोरे उतारने पर रख लिया। दस ही दिन के बाद मेरे जिस्म के अंदर की सिर से पाँव तक लटकी हड्डियों की जंजीर कहीं बीच से तिरखी हुई महसूस होने लगी और मुझे लगा कि काम, काम नहीं होता। छोटा या बड़ा होता है और हर काम हर किसी के बस का नहीं होता। ग्यारहवें दिन जब टहलसिंह ने सुबह चार बजे मुझे आवाज दी तो मैं सुनी अनसुनी करता बिस्तर में मस्त पड़ा रहा। काम सुबह पाँच से नौ बजे तक होता था। उस रोज जब वह वापस आया तो बोला, ‘नंदा साहब! यू ओ के?’ शायद वह मुझे बीमार समझ कर चला गया था।
‘टहलसिंह, यह काम मेरे बस का नहीं।’
‘आई टेल नो गुड वर्क।’ फ्री एंट्री होने की वजह से दर असल जर्मनी उन दिनों पढ़े और अनपढ़े हिन्दुस्तानियों और पाकिस्तानियों का ट्रांजिट स्टेशन था। कुछ दिन आराम किया। कमा कर चार मार्क जेब में डाले और आगे किसी अंगरेजी बोलने वाले मुल्क को सिधारे। हर हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी जो खुद अँग्रेज़ी जानता था और समझता था, सोचता था कि अमेरिका, कनाडा या इंग्लैंड के बादशाह या मंत्री हाथों में हार लिये उनकी प्रतीक्षा में खड़े हैं। हर कोई बिना किसी साथी को बताए प्रयत्नशील रहता और एक दिन उसका बेड खाली मिलता तो साथियों को पता चलता कि एक पंछी और उड़ गया। मगर टहलसिंह को अपने ऊपर पूरा विश्वास था कि वह इंग्लैंड बड़ी आसानी से सेट हो जाएगा। इसलिये वह इस बात को छुपाता नहीं था।
एक दिन शाम के समय वह स्टाल पर खड़ा बियर पीता कुछ दोस्तों से गप्पें हाँक रहा था। मैं वहाँ से निकला तो उसके ‘सत श्री अकाल’ का जवाब देने को पल भर के लिये रुक गया। वह उनसे कह रहा था, ‘मैं जब पैदा हुआ तो मेरे बाप ने दादा को बताया मुंडा हुआ है। टहलने के शौकीन दादा घर के बगीचे में टहल रहे थे। बोले, ‘धन्य धन्य वाहे गुरू। तो अपना टहलसिंह आ गया। बस तब से मेरा नाम टहलसिंह पड़ गया। तुम देखना मैं टहलते टहलते एक दिन लंदन जा बिराजूँगा।’
तीन लडक़े तो किसी न किसी तरह कनाडा और अमेरिका की तरफ निकल गये। मैंने भी इंग्लैंड की तरफ एक ट्राइ मारी मगर पहले ही हल्ले में अपने भारी भारी अँग्रेजी शब्दों के भंडार के बावजूद कस्टम पर ही मार खा गया और वापस जर्मनी लौट आया। फिर न जाने क्या हुआ और कैसे हुआ कि टहलसिंह अपने ढाई अक्खरों के सहारे इंग्लैंड पहुँच गया।
मैं इधर नॉर्वे पहुँच गया। लश्टम पश्टम नई व अनजानी भाषा को गालियाँ देता, उसका एक एक अक्षर चुनता हुआ कुछ अरसा बाद एक दफ्तर में नौकर हो गया। उधर वह अपने ढाई अक्खरों के सहारे एक बड़े स्टोर का मालिक बन गया। यह मुझे तब पता चला जब वह एक दिन ओस्लो के बड़े बाज़ार कार्लयूहान जाते पर सैर करता मिल गया। ‘अरे टहलसिंह’
‘ओ नंदा साहब’ इन शब्दों के साथ दौड़ कर हम आगे बढ़े और गले मिल गए। ‘कहाँ ठहरे’ मैंने पूछा।
‘ग्रैंड होटल।’ मैं चौक उठा कि यह ओस्लो का सबसे पुराना और महँगा होटल था। ‘मैं यहीं ओस्लो में रहता हूँ। होटल छोड़ो और मेरे साथ चलो।’ मैंने दोस्ताना पेशकश की। ‘नहीं बिजनेस के सिलसिले में आया हूँ। मेम भी साथ है। इधर मर्सिडीज में बैठी है। बड़े होटल में जरा बिजनेस में रोब पड़ता है। मिलूँगा जरूर., क्या पता है तुम्हारा?’ मैंने कागज पर पता लिख दिया उसने अपने लंदन का खूबसूरत सा एड्रेस कार्ड पकड़ाया। ‘आपको खत लिखा था, जवाब नहीं आया, तो मैं समझ गया कि आप जर्मनी से निकल गये होगे।’ वह बोला। वह जल्दी में था। मुझे भी दफ्तर पहुँचना था। जहाँ कल ही तीसरी बार पंद्रह साल बाद भी नार्वेजियन भाषा अच्छी तरह न जानने के कारण मैं अपनी अगली तरक्की का केस हार चुका था और आज इस सिलसिले में चीफसे मेरी मीटिंग थी। मैंने दिल ही दिल में नार्वेजियन भाषा में एक मोटी सी गाली दी। वह मुझे सोच में डूबा देखकर बोला, ‘यू होम आई एंड मेम कम।’
हरचरण चावला