सुधांशु सक्सेना की स्पेशल रिपोर्ट
लखनऊ: देश में करोड़ों लोग कहीं आने-जाने के लिए ट्रेनों का सहारा लेते हैं और पूरी यात्रा के दौरान लोग नकारा रेल व्यवस्था पर अपनी भड़ास भी निकालते रहते हैं। कारण यह कि ट्रेनों के न तो चलने को कोई समय तय है और न मंजिल पर पहुंचने का। ट्रेनों की लेटलतीफी का आलम तो यह है कि इसके कारण न जाने कितने छात्र-छात्राओं की परीक्षा तक छूट जाती है।
कड़ी गर्मी में आउटर पर लंबे समय तक ट्रेनों को खड़ा रखा जाता है जिसके कारण रेल यात्री बिलबिला कर रह जाते हैं। और यह स्थिति दिनोंदिन बिगड़ती ही जा रही है। वैसे अब तो ट्रेनों की लेटलतीफी ही नहीं बल्कि बढ़ते रेल हादसे भी चिंता का सबब बन गए हैं। हालत यह हो गयी है कि लोगों का रेलवे के प्रति भरोसा तक खत्म होता जा रहा है। कई बार ट्रेनों को अचानक कैंसिल कर दिया जाता है और कहा जाता है कि संबंधित यात्री अपना पैसा ले लें। यात्री रेलवे को कोसने के अलावा कुछ कर भी नहीं सकता है।
स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि समाज का ऐसा वर्ग जो अपने वाहन से कहीं आने-जाने में सक्षम है वह बाई रोड ही कहीं आने-जाने को प्राथमिकता देने लगा है। क्योंकि तमाम यात्राएं ‘तथाकथित’ सुपरफास्ट ट्रेनों की बजाए कार या बस से कम समय में पूरी की जा रही हैं। लोगों को तो अपने वाहन से यात्रा करना ज्यादा सुविधानजनक लगता है।
यदि आप कानपुर की तरफ से लखनऊ आ रहे हों और ट्रेन को बड़ी लाइन वाले स्टेशन पर आना हो तो मानकनगर से लखनऊ जंक्शन तक पहुंचने में आपके सारे कर्म हो जाएंगे। पहले ट्रेन मानकनगर पर खड़ी होगी, वहां से खुलेगी तो आरडीएसओ पर खड़ी होगी और फिर वहां से खुलेगी तो फिर वाशिंग लाइन पर खड़ी हो जाएगी।
हालत यहां तक भी हो सकती है कि जितना समय कानपुर से मानकनगर तक लगा होगा लगभग उतना ही समय मानकनगर से लखनऊ तक लग जाएगा। यदि आप वाराणसी या इलाहाबाद की ओर से लखनऊ आ रहे हों तो दिलकुशा से लखनऊ जंक्शन तक पहुंचने में आपको एक से डेढ़ घंटे का समय लग सकता है।
पहले ट्रेन को दिलकुशा में खड़ा किया जाता है। काफी देर वहां खड़ी होने के बाद जब ट्रेन चलेगी तो थोड़ी दूर आते ही फिर उसे सदर में खड़ा कर दिया जाता है। काफी संख्या में यात्री तो रेलवे की इस अझेल व्यवस्था से इतना परेशान हो जाते हैं कि वहीं उतरने में ही अपनी भलाई समझते हैं। रेलवे के सारे बड़े अफसर लाखों यात्रियों को रोज होने वाली इस दिक्कत को पूरी तरह जानते हैं मगर आज तक इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की गयी।
तय समय पर नहीं पहुंचती ट्रेन
ट्रेनों की लेटलतीफा का क्या हाल है इसे कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है। 4 अक्टूबर को वाराणसी से चलने वाली वरुणा एक्सप्रेस सुबह चार बजकर पचास मिनट की जगह पौने सात बजे वाराणसी से छूटी। दिलकुशा पहुंचने पर इस ट्रेन को पैंतीस मिनट तक खड़ा रखा गया। वहां से चलने पर यह ट्रेन करीब चालीस मिनट तक सदर में आउटर पर खड़ी रही। भीषण गर्मी में मंजिल के पास पहुंचकर यात्री बुरी तरह झेल गए।
वैसे यह कोई एक दिन की कहानी नहीं है। ऐसा रोज ही होता है। सुबह नौ बजकर पचास मिनट पर पहुंचने वाली यह ट्रेन दोपहर एक बजकर बीस मिनट पर लखनऊ पहुंची। लखनऊ से कानपुर की यात्रा में तो यात्रियों के सारे कर्म हो गए। यहां से डेढ़ बजे छूटने के बाद यह ट्रेन चार घंटे से ज्यादा समय लेकर शाम साढ़े पांच बजे के बाद कानपुर पहुंची।
ट्रेन का यही हाल गुरुवार को भी रहा। गुरुवार को यह एक बजकर पचपन मिनट पर लखनऊ पहुंची। यही हाल लखनऊ से इलाहाबाद के बीच में चलने वाली गंगा गोमती का भी होता है। यह ट्रेन कभी अपने तय समय पर मंजिल पर नहीं पहुंचती। नीलांचल जैसी सुपरफास्ट ट्रेन कभी अपने तय समय पर दिल्ली नहीं पहुंचती। इसका रात में पौने दस बजे दिल्ली पहुंचने का समय है मगर यह ट्रेन कभी रात में करीब दो बजे से पहले दिल्ली नहीं पहुंचती।
अब रात में दो बजे दिल्ली पहुंचने वाले लोगों के सामने दिक्कत यह खड़ी हो जाती है कि इतनी रात में वे अपनी मंजिल पर जाएं तो कैसे जाएं। अब सुबह होने तक स्टेशन पर समय बिताना उनकी मजबूरी होती है। लखनऊ से मुंबई जाने वाली पुष्पक एक्सप्रेस को कानपुर में मरे कंपनी पर रोज ही काफी देर तक खड़ा कर दिया जाता है। जब यह हाल एक्सप्रेस व सुपरफास्ट ट्रेनों का है तो पैसेंजर ट्रेनों का तो हाल आसानी से समझा जा सकता है। पैसेंजर ट्रेन को कब कहां और कितनी देर के लिए खड़ा कर दिया जाएगा, इसका कोई ठिकाना नहीं।
पांच गुना बढ़ गया लोड
एनईआर के पीआरओ आलोक श्रीवास्तव ने बताया कि बड़ी लाइन और छोटी लाइन दोनों स्टेशनों पर जबर्दस्त लोड है। देखा जाए तो पिछले 49 सालों में चारबाग स्टेशन पर आने वाली ट्रेनों की संख्या में पांच गुना से भी ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है, लेकिन प्लेटफार्म की संख्या में अनुपातिक वृद्धि नहीं हो पाई। इस समय हर प्लेटफार्म पर 40 से 45 गाडिय़ों का लोड रहता है।
वर्ष 1972 में यहां दो नए प्लेटफार्म बनाए गए थे जबकि आवश्यकता इससे कहीं अधिक थी। उस समय चारबाग आने वाली कुल कुल ट्रेनें 60 के आसपास थीं। आज इनकी संख्या करीब 300 है। इसके चलते संचालन में दिक्कतें आती हैं और ट्रेनें लेट हो जाती हैं। अक्सर स्पेशल ट्रेनों को समय से पहुंचाने की होड़ में कई ट्रेनें उपेक्षा का शिकार हो जाती हैं।
केवल एक लाइन होने से परेशानी
उत्तर रेलवे के सीनियर डीसीएम शिवेंद्र शुक्ला ने बताया कि ट्रेनों के लेट होने के पीछे अप और डाउन लाइनों पर अधिक दबाव होना भी एक कारण है। उदाहरण के लिए दिलकुशा से चारबाग स्टेशन तक आने के लिए केवल एक अप और डाउन लाइन है।
इसी तरह दिलकुशा से एक लाइन गोरखपुर की ओर जाती है जो कि बाराबंकी के बाद फैजाबाद निकल जाती है। इसी तरह दिलकुशा से लखनऊ- सुल्तानपुर, लखनऊ- प्रतापगढ़ और लखनऊ-इलाहाबाद रूट की ट्रेनें रवाना होती हैं। इस तरह इन पांचों दिशाओं से आने वाली ट्रेनों के पास चारबाग स्टेशन तक पहुंचने के लिए केवल एक ही लाइन उपलब्ध रहती है। यही हाल चारबाग से इन दिशाओं में रवाना होते समय भी रहता है।
स्पेशल ट्रेनों के यात्री तो और अधिक दिक्कत में
त्योहारी सीजन में रेलवे अपने यात्रियों को राहत देने के लिए स्पेशल ट्रेनें चला रही है क्योंकि हर बार पर्व आने पर तीन महीने पहले ही ट्रेनों की सभी सीटें भर जाती हैं। इसके बाद यात्रियों को आरक्षण नहीं मिल पाता है। इसलिए रेलवे यात्रियों की सहूलियत के लिए स्पेशल गाडिय़ां चलाती हैं।
रेलवे यात्रियों की सुविधा के लिए विशेष गाडिय़ां तो चला देती है, लेकिन इन गाडिय़ों से सफर कर अपने घर पहुंचने वाले यात्रियों की हालत खराब हो जाती है क्योंकि रेलवे द्वारा चलाई जा रही अधिकांश स्पेशल गाडिय़ां औसतन 3 घंटे से लेकर कम से कम 10 घंटे तक देरी से पहुंच रही हैं। ऐसे में यात्रियों की हालत बेहद खराब हो जाती है। रेलवे स्पेशल गाडिय़ां तो चला देती है लेकिन उनको सिग्नल देने का कार्य सुचारू तरीके से नहीं होता है।
रोजाना चल रही गाडिय़ों प्रमुखता दी जाती है। जैसे यदि किसी ट्रैक पर एक स्पेशल गाड़ी खड़ी है तथा दूसरे ट्रैक पर नियमित रूप से चलने वाली ट्रेन है तो पहले जाने की हरी झंडी रोजाना चलने वाली गाडिय़ों को दी जाती है। चाहे भले ही पहले जाने का नंबर स्पेशल ट्रेन का रहा हो। गाडिय़ों के देर से चलने से यात्रियों की हालत खराब हो जाती है। बहुत यात्री तो ऐसे भी हैं जो रोजाना चलने वाली गाडिय़ों के जनरल डिब्बों में सफर करना स्पेशल गाडिय़ों के स्लीपर से अधिक बेहतर समझते हैं।
पिछले दिनों आनंदविहार से बनारस जाने वाली स्पेशल दोपहर ढाई बजे लखनऊ पहुंची जबकि इस ट्रेन को सुबह साढ़े छह बजे लखनऊ पहुंचना था। आलमनगर में ही ट्रेन ४५ मिनट खड़ी रही। यही हाल लखनऊ से दिल्ली जाने वाली ट्रेनों का रहता है।
प्लेटफार्मों की कमी से आउटर पर खड़ी रहती हैं ट्रेनें
उत्तर रेलवे के पीआरओ विक्रम सिंह के मुताबिक रात 8 बजे के बाद चारबाग आने वाली हर 90 से 100 ट्रेनों में से लगभग 40 ट्रेनें आउटर पर ही खड़ी रहती हैं। इसके पीछे बड़ी वजह चारबाग पर प्लेटफार्म का खाली न रहना है। जैसे चारबाग के प्लेटफार्म नंबर 1 से 10 बजकर 15 मिनट पर लखनऊ मेल दिल्ली के लिए रवाना होती है। इसके ठीक बाद रात 11 बजकर 30 मिनट पर एक एक्सप्रेस ट्रेन को इसी दिशा में रवाना किया जाता है।
इसके साथ प्लेटफार्म नंबर 2 पर रात 10 बजकर 30 मिनट पर चंडीगढ़ एक्सप्रेस जाती है। इसे प्लेटफार्म पर रात 10 बजे ही लगा दिया जाता है। जबकि इसी समय गोमती एक्सप्रेस प्लेटफार्म नंबर 3 पर आकर करीब 45 मिनट खड़ी रहती है। वहीं प्लेटफार्म नंबर 7 से सहारनपुर की गाड़ी जाती है जो डेढ़ से 2 घंटे प्लेटफार्म पर खड़ी रहती है। ऐसे में प्लेटफार्म नंबर 4, 5 और 6 से ही बाकी ट्रेनों का आगमन और प्रस्थान होता है।
आंकड़ों की बात करें तो शाम 7 बजे से रात 12 बजे तक लगभग 100 ट्रेनें चारबाग आती हैं जिसमें से 40 प्रतिशत को आउटर पर प्लेटफार्म के इंतजार में रोकना मजबूरी हो जाती है। हम यात्रियों की सुविधाओं के लिए ट्रेनों के हाल्ट टाइम में परिवर्तन भी नहीं कर सकते, जिसके चलते 40 प्रतिशत ट्रेनों को प्लेटफार्म फुल होने के चलते आउटर पर रोकना मजबूरी है।