क्या रामजन्मभूमि बनेगी इस चुनाव में मुद्दा !

Update:2018-09-25 12:26 IST

रामकृष्ण वाजपेयी

रामजन्मभूमि का मामला एक बार फिर सुर्खियों में है। एक ओर तो मंदिर आंदोलन से जुड़ी समिति मंदिर के लिए कारसेवा की तारीख का एलान करने जा रही है वहीं दूसरी ओर देश की सबसे बड़ी अदालत इस मामले से जुड़े एक अहम सवाल पर फैसला सुनाने जा रही है। कहते हैं कि समय कभी नहीं रुकता। समय अच्छा या बुरा भी होता है। लेकिन इस सबके लिए यह समय ही क्यों चुना जा रहा है यह एक अहम सवाल है। रामजन्मभूमि के लिए आंदोलन आज गुजरे जमाने की बात हो चुका है। देश 1992 के दंगों की त्रासदी से उबर भी चुका है। जो लोग उस आंदोलन के समय अधेड़ थे वह उम्र के आखिरी पड़ाव की तरफ हैं तथा जो जवान थे वह अधेड़ हो रहे हैं।

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कहते हैं काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ा करती। या समय हर बार एक जैसा नहीं रहता। ये सच हो सकता है कि भारतीय जनता पार्टी का अभ्युदय रामजन्मभूमि आंदोलन से हुआ। लेकिन आज 26 साल बाद क्या देश फिर से उस उन्माद में उतरने को तैयार है क्या इस मुद्दे पर दो कौमें आमने सामने आ सकती हैं। या फिर उनको एक बार फिर उन्माद की आंधी में धकेला जा सकता है। क्या इस मसले से एक बार फिर चुनावी लाभ लिया जा सकता है चाहे पक्ष में हो या विपक्ष में यह यक्ष प्रश्न है।

यहां हमें देखना होगा कि भाजपा को पिछले चुनाव में प्रचंड बहुमत क्या रामजन्मभूमि आंदोलन के लिए मिला था। ऐसा कहीं से भी नहीं लगता कि 2014 के आम चुनाव में भाजपा नेताओं ने चुनावी वैतरणी पार करने के लिए अयोध्या का सहारा लिया था। उस चुनाव में तो एक मात्र मुद्दा कांग्रेस का कुशासन था और भाजपा नहीं नरेंद्र मोदी के प्रति पूरे देश की प्रचंड स्वीकारोक्ति थी जिसने भाजपा को यह मुकाम दिलाय़ा। मोदी ने विकास और भ्रष्टाचार के नाम पर वोट मांगे थे और उन्हें समर्थन मिला। घर घर मोदी, हर हर मोदी नारा शायद इसी की देन था। मोदी रेगिस्तान की तपती रेत में लोगों के लिए पानी के भंडार की तरह उम्मीद की किरण थे।

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सवाल यह है कि क्या मोदी जनअपेक्षाओं पर खरा उतर पाए या विकास के अपने माडल से लोगों को संतुष्ट कर पाए या फिर भ्रष्टाचार को अपनी तलवार से काट पाए। यहां यह बात उल्लेखनीय है कि जब मोदी का चुनावी अभियान चल रहा था तो विपक्ष के पास कोई रणनीति नहीं थी वह मोदी की बातों को अतिरंजित करके और बढ़ा चढ़ाकर अर्थ का अनर्थ कर प्रचारित कर रहा था उस समय भाजपा को चूंकि चुनावी लाभ होता दिख रहा था इसलिए उसने इसका खंडन मंडन करने की जरूरत नहीं समझी। देश के सबसे बड़े राज्य में दो राजनीतिक कुनबों को छोड़कर संपूर्ण विपक्ष का सफाया करने में मोदी कामयाब रहे तो इसकी वजह जनता की उनसे उम्मीदों की वह मजबूत चट्टान थी जिसे भेद पाना विपक्ष के लिए संभव नहीं हो सका था लेकिन कहा गया है कि अति सर्वत्र वर्जयेत। कहते हैं कि जल्दी किसी पर विश्वास नहीं किया जाता और विश्वास हो गया तो उस विश्वास को बनाए रखना सबसे कठिन होता है।

देश की बागडोर संभालने के बाद मोदी ने कहा था कि हर मंत्री के सांसद विधायक के कामकाज की समीक्षा होगी उसका रिपोर्ट कार्ड बनेगा। जिसे जनता को बताया जाएगा लेकिन 2019 का आम चुनाव सिर पर आ गया है अभी तक इस जुमले को अमली जामा पहनाते वह नहीं दिखे। इसी तरह उन्होंने खुद एक गांव गोद लेकर एक अभियान की शुरुआत की थी उम्मीद की थी कि हर सांसद एक एक गांव गोद लेगा। सांसद गांवों की आज क्या स्थिति है शायद सांसदों को भी पता नहीं होगी। सत्ता पाने के लिए खुद भाजपा सांसदों ने जितने शीर्षासन किये थे। सत्ता पाने के बाद सब भूल गए। सबको लग रहा है चुनाव तो मोदी जी जिता ही देंगे।

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सरकार की नीतियों के चलते उच्च शिक्षित युवाओं को फौज बढ़ती चली जा रही है जिसमें कोई कमी आने की संभावना नहीं है अलबत्ता दस बारह हजार की कमाई करने में युवाओं को सक्षम बनाने का दावा कर सरकार अपनी पीठ खुद थपथपा रही है। मोदी जी ने बनारस में कहा था कि मै गंगा मां के लिए आया हूं। मां गंगा ने मुझे बुलाया है। लेकिन पांच साल पूरे होने को हैं लेकिन गंगा के शुद्धिकरण का काम एक इंच आगे नहीं बढ़ सका है। इसी तरह नोटबंदी से लोग कष्ट के बावजूद क्षणिक रूप से यह सोच कर आनंदित तो जरूर हुए कि अमुक पर गाज जरूर गिरेगी लेकिन नोटबंदी खत्म होने के बाद सच सबके सामने आ गया कि किसी पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। अलबत्ता बैकडोर से नोट बदलवाकर बिचौलियों ने दोनो हाथों से पैसा खूब बटोरा। रिजर्व बैंक ने भी यही कहा कि जितने नोट चलन में थे सब वापस आ गए। यानी फर्क क्या पड़ा हां एक चीज हुई कि अब सरकारी की जानकारी अपडेट हो गई है कि कितना रुपया चलन में है अलबत्ता ब्लैक मनी का फ्लो आज भी है लेकिन उसका प्रवाह धीमा है। यह सही भी है कि जब पूरा सिस्टम ही भ्रष्ट हो तो आमूल चूल बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती है।

अगर पिछले चुनाव को बिना रामजन्मभूमि मुद्दे के लड़ा जा सकता है तो इस आगामी चुनाव को क्यों नहीं या फिर ऐसी क्या मजबूरियां हैं कि रामजन्मभूमि को एक बार फिर चुनावी हथियार बनाए जाने की सुगबुगाहटें शुरू हो गई हैं। मान लीजिए कि अदालत का फैसला किसी के पक्ष में आ गया तो क्या उस विरोध को चुनावी हित में कैश कराया जा सकता है या किसी के विरोध को चुनावी लाभ के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। देश में रामजन्मभूमि आंदोलन के बाद पैदा हुए नौजवानों को ढाई दशक पहले की सोच से हम कैसे जोड़ पाएंगे और संभव हो भी गया तो क्या यह देश के विकास से खिलवाड़ नहीं होगा। क्या होगा और क्या होने की संभावना है यह तो भविष्य बताएगा लेकिन तब तक इंतजार जरूरी है।

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