इंदिरा हारीं थीं शेरे गढ़वाल से!

हेमवती नन्दन बहुगुणा का जीता हुआ गढ़वाल संसदीय उपचुनाव आज ही के दिन (21 जून 1981) पलट दिया गया था।

Written By :  K Vikram Rao
Published By :  Raghvendra Prasad Mishra
Update:2021-06-21 18:46 IST

हेमवती नन्दन बहुगुणा का जीता हुआ गढ़वाल संसदीय उपचुनाव आज ही के दिन (21 जून 1981) पलट दिया गया था। ठीक चार दशक हुए। हालांकि उसी दौर में अमेठी से राजीव गांधी निर्वाचित घोषित हो गये थे। दोनों उपचुनावों में इन्दिरा गांधी का असर दिखा था। उनके सत्ता में लौटे साल भर ही हुआ था। उत्तर प्रदेश (तब अविभाजित था) के इन दोनों मतदानों पर दुनिया की नजर टिकी थी। हवाई दुर्घटना में संजय गांधी की मौत से अमेठी की सीट रिक्त हो गयी थी। सरकारी एयरलाइन्स के पाइलट पद को छोड़ कर राजीव गांधी एक दिन पूर्व ही कांग्रेस में भर्ती हो गये थे। प्रत्याशी बन गये थे।

हालांकि इन्दिरा गांधी के लिये ये दोनों चुनाव जीतना अत्यावश्यक था। अपने वंश के नये उत्तराधिकारी को नामित करना था। अपने घोर शत्रु को गढ़वाल में परास्त करना था। बहुगुणा कांग्रेस से बाहर हो गये थे। उनके प्रतिद्वंदी थे चन्दमोहन सिंह नेगी। दोनों ''भांजों'' (राजीव और संजय) ने बहुगुणाजी को पार्टी में लाकर प्रधान सचिव नियुक्त कराया था, तो अपमानित भी उतनी ही शीघ्रता से कराया। कार्यभार संभालने पर लखनऊ आकर बहुगुणा ने प्रदेश कांग्रेस पार्टी कार्यालय जाने के लिये फोन पर पूछा था कि ''कौन वहां मिलेंगे?'' उन्होंने अपना नाम भी बताया कि ''नवनियुक्त प्रधान सचिव हूं।'' मगर पार्टी कार्यालय से सवाल था: ''कौन बहुगुणा?'' सचिव नेगी की आवाज थी। बस फिर रिश्ते टूट गये। स्पष्ट था कि सातवीं लोकसभा (1980) में अपार बहुमत पाकर इंदिरा गांधी पुराने शत्रुओं को निपटाना चाहतीं थीं।

इसी बीच गढ़वाल उपचुनाव आ गया। बहुगुणा ने इंदिरा—कांग्रेस से मुठभेड़ किया। फिजां ऐसी थी कि बहुगुणा कितने अधिक वोटों से नेगी को शिकस्त देंगे, यहीं आम सवाल था। प्रधानमंत्री का हुकुम था कि ''बागी'' बहुगुणा को कुचल दिया जाये। हर हालत में, हर कीमत पर। मौका भी माकूल था। उत्तर प्रदेश में इंदिरा गांधी के ''तीसरे पुत्र'' विश्वनाथ प्रताप सिंह मुख्यमंत्री थे। उधर पड़ोसी हरियाणा में चिरंतन दलबदलू दलित कांग्रेसी भजन लाल मुख्यमंत्री थे। फिर क्या था? हरियाणा की जाट पुलिस गढ़वाल में तैनात की गयी। विश्वनाथ प्रताप सिंह भी प्रयागराज के पुराने कर्ज चुकाने में जुटे थे। गढ़वाल में बहुगुणा के साथ जनता थी। पहली बार वोटर बनाम प्रत्याशी के बीच चयन करना था। दूसरे, इस मतदान में हर हथकण्डा इंदिरा—कांग्रेस ने अपनाया बहुगुणा का बिस्तर गोल करने के लिये।

तभी दैवी कृपा थी कि एक स्वनामधन्य, बहुत ही नैतिक और ईमानदार तथा कुशल मुख्य निर्वाचन आयुक्त नियुक्त हुए थे। पंडित श्यामलाल शकधर। सन 1941 के इंडियन सिविल सेवा के अधिकारी थे। उनके मुख्य चुनाव आयुक्त के समय से ही ईवीएम का प्रचलन भी शुरू हुआ था। चूंकि शकधर कश्मीरी थे अत: विपक्ष पसोपेश में था। इंदिरा गांधी का फतवा तब तक जारी हो गया था कि बहुगुणा लोकसभा की डेहरी तक न पहुंच पाये। पर वाह! क्या ईमानदारी थी! मुख्य निर्वाचन आयुक्त ने गढ़वाल के मतदान को ही निरस्त कर दिया। कारण बताया कि बिना चुनाव आयोग की अनुमति के हरियाणा के सिपाही गढ़वाल की पहाड़ियों पर तैनात हो गये थे। मानो सब घरेलू मामला हो। बहुगुणा का आरोप भी था कि निर्वाचन के हर नियम की धज्जियां उड़ाकर पांच कांग्रेस—शासित राज्यों के मुख्यमंत्री भी प्रचार में ओवरटाइम करने में जुटे थे। स्वयं इंदिरा गांधी सारी मर्यादाओं तथा परिपाटियों को चकनाचूर कर पहाड़ के गांव—गांव में अभियान कर रहीं थीं।

शकधर ने चुनाव ही निरस्त कर दिया और 30 सितम्बर, 1981 तक दोबारा शीघ्र मतदान कराने का आदेश दे दिया। परिणाम ने दिखाया कि इंदिरा—कांग्रेस धराशायी हो गयी थी। जनादेश ने स्पष्ट कर दिया कि सत्ता से जनता आतंकित नहीं होती है। खास कर स्वच्छन्द पर्वतावासी जो आजादी को खुद परिभाषित करते हैं।

वस्तुत: हेमवती नन्दन की उक्ति शत—प्रतिशत सही निकली कि गढ़वाल अब जलियांवाला बाग के जुल्म और चम्पारण सत्याग्रह की भांति ऐतिहासिक हो गया है। इसके पूर्व 1979—80 में अपार बहुमत से जीत कर इंदिरा गांधी का रुतबा और तेज हो गया था। गढ़वाल की हार से इंदिरा गांधी का आभा मंडल क्लांत हो गया।

बहुगुणा के बारे में चन्द चुटकुले और किस्से भी हैं। पेश है कुछ। पंडित कमलापति की जगह इंदिरा गांधी ने बहुगुणाजी को यूपी का मुख्यमंत्री नियुक्त किया था। मगर बहुगुणा जानते थे कि आयु अल्प होती है। उन्होंने परिहास भी किया था। इन्दिराजी पहले पौधा बोती हैं। फिर कुछ वक्त के बाद उखाड़ कर परखती हैं कि कहीं जड़ जम तो नहीं गई! यही नियम वे नामित मुख्यमंत्रियों पर लगाती थीं। कुछ ही दिनों बाद बहुगुणाजी का कार्यकाल कट गया।

उन्हीं दिनों बहुगुणा दिल्ली गये थे। इन्दिरा गांधी ने अपने चाकर यशपाल कपूर को भेजा कि मुख्यमंत्री का त्यागपत्र ले आओ। कपूर से बहुगुणा ने कहा कि लखनऊ से भिजवा देंगे। पर इन्दिरा गांधी ने कपूर को दोबारा भेजा। तब आहत भाव से बहुगुणा इन्दिरा गांधी से मिलने आये और वादा किया कि अमौसी वायुयानस्थल से वे सीधे राजभवन जायेंगे और गवर्नर डॉ. मर्री चन्ना रेड्डि को त्यागपत्र थमा देंगे। नारीसुलभ आनाकानी को देखकर बहुगुणा बोलेः "आप चाहती हैं कि इतिहास दर्ज करे कि महाबली प्रधानमंत्री ने एक अदना मुख्यमंत्री से अपने आवास पर ही इस्तीफा लिखवा लिया?" इन्दिरा गांधी के अहम पर यह चोट थी। बहुगुणा को मोहलत मिल गई। मगर नियति ने बदला लिया। सालभर बाद लखनऊ से बहुगुणा लोकसभा के लिये (मार्च 1977) अपार बहुमत से जीते। बस सत्तर किलोमीटर दूर राय बरेली में इन्दिरा गांधी हार गईं। इतिहास रच गया।

अब हम पत्रकारों की स्वार्थपरता का एक नमूना दे दूँ। लखनऊ के करीब प्रत्येक संवाददाता ने मुख्यमंत्री बहुगुणा से लाभ उठाया होगा। हमारे संगठन (इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नालिस्ट्स) की राज्य यूनियन का अधिवेशन अयोध्या में 1982 में तय था। मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा उद्घाटन होना था। राष्ट्रीय प्रधान सचिव (IFWJ) के नाते मैंने बहुगुणा को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया। तब वे सांसद तक नहीं थे। बहुगुणा ने मुझे सचेत कर दिया था कि उनके आने से कांग्रेस सरकार असहयोग करेगी। मेरा निर्णय अडिग था। उधर मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मुझसे कहा कि यदि बहुगुणा आयेंगे तो वे नहीं आयेंगे। दुविधा की परिस्थिति थी। अतः बहुगुणा को मैंने समापन समारोह पर दूसरे दिन बुलवाया। मैं उन्हें अपनी कृतज्ञता व्यक्त करना चाहता था। सूरजमुखी उपासना की गन्दी परम्परा को मैंने तोड़ी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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