गोरखपुर : गोरखपुर से 15 किमी दूर कुसम्ही जंगल में बुढ़िया माई का पुराना मंदिर है। यहां दोनों नवरात्र सहित आम दिनों में भी लाखों लोगों भीड़ होती है। यहां जागता-जलपा देवी के रूप में प्रसिद्द बुढ़िया माई की शक्ति चमत्कारी है। कहा जाता है कि बुढ़िया माई को नाच न दिखाने पर एक बैलगाड़ी पर सवार नाच के जोकर को छोड़ पूरी बारात तुर्रानाले में समा गई थी।
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थारु जाति की महिला
गोरखपुर-कुशीनगर नेशनल हाईवे 28 पर कुस्मही जंगल में है देवी का ये मंदिर। मंदिर लाठी का सहारा लेकर चलने वाली एक चमत्कारी श्वेत वस्त्र धारी वृद्ध महिला के सम्मान में बनाया गया था। वहीं कुछ लोगों का कहना है कि पहले यहां थारू जाति के लोग निवास करते थे। वे जंगल में तीन पिंड बनाकर वनदेवी के रूप में पूजा करते थे। थारुओं को अक्सर इस पिंड के आस-पास सफेद वेश में एक वृद्ध (बूढ़ी महिला) दिखाई दिया करती थी। कुछ ही पल में वह आंखों से ओझल भी हो जाती थी।
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इनके गुस्साने पर होता है अमंगल
दन्त कथाओं के अनुसार यह महिला जिससे नाराज हो जाती थी। उसका सर्वनाश होना तो तय था और जिससे प्रसन्न हो जाए, उसकी हर मनोकामना पूरी कर देती थी। इस प्राचीन मंदिर का नाम बुढ़िया माई मंदिर है। कुसम्ही जंगल के अंदर स्थित इस मंदिर में नवरात्रि के दौरान मेला लगता है। इस दौरान दूर-दूर से भक्त देवी मां का दर्शन करने आते हैं। मंदिर के पुजारी राजेन्द्र सोखा, रामानंद और राम आसरे बताते हैं कि प्राचीन समय में भी इमिलिया उर्फ बिजहरा गांव में यहां तुर्रा नदी बहती है। इस पर गांव वालों ने पहले पुल बना दिया था। मंदिर और पुल के रास्ते में एक बुढ़िया बैठा करती थी।
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बुढ़िया माई की एक कथानुसार 600 साल पहले गोरखपुर से कुशीनगर की ओर जाने का पक्का मार्ग नहीं था। कुस्मही जंगल की पगडण्डी से होते हुए जंगल के बीच से होकर गुजरने वाले तुर्रा नाले पर बने काठ (लकड़ी) का पुल पार कर लोग आते-जाते थे। एक बार यहां से एक बैलगाड़ी पर बारात हाटा जा रही थी। पुल पर बैठी एक वृद्ध महिला (बुढ़िया माई) ने बैलगाड़ी पर सवार नाच पार्टी को डांस दिखाने के लिए कहा। सभी ने कहा बारात को देर हो रही है और बगैर रूके बुजुर्ग महिला का उपहास करते आगे बढ़ गए। इस दौरान सिर्फ जोकर ने नाच कर बांसुरी बजाई थी।बारात जब दूसरे दिन वापस लौटी तो वृद्ध महिला ने फिर से उनसे रूककर डांस दिखाने को कहा। जोकर बैलगाड़ी से उतरकर नृत्य दिखाने लगा। सभी बाराती और नर्तक बैलगाड़ी पर सवार ही रहे और उपहास करते आगे बढे। बीच पुल में बारात की गाड़ी पहुंचते ही पुल अचानक टूट गया और दूल्हे सहित सभी बाराती तुरानाला में डूबकर मर गए।
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एक और कथा अनुसार इमिलिया उर्फ विजहरा गांव निवासी जोखू सोखा की मौत हो जाने पर परिजनों ने उसे तुरानाले में प्रवाहित कर दिया। शव बहता हुआ थारुओं द्वारा जंगल में बनायी गई तीन पिंडियों के पास पहुंचा। यहां बुढ़िया माई अवतरित हुईं और जोखू सोखा को जिंदा कर दिया। जोखू सोखा ने यहीं रहकर माता की पिंडी के रूप में पूजा शुरू की। उन्होंने जिस रूप में माता को देखा था उसी रूप की मूर्ति स्थापित कर मंदिर बनवा दिया।
जोखू सोखा के बेटे राजेन्द्र सोखा, रामानन्द और राम आसरे पूरे मंदिर की देखरेख और पूजा पाठ करते हैं। शारदीय नवरात्र हो या चैत्र का यहां बड़ी भीड़ होती है। मंदिर जंगल परिक्षेत्र में आता है। यही कारण है कि यहां पक्की सड़क नहीं बन सकी। मान्यता है कि मंदिर में जो भी सच्चे मन से मन्नत मांगता है। उसकी मनोकामना माता बुढ़िया जरूर पूरी करती हैं।