इस तरह मनता है दशहरा, कहीं जलता है रावण, तो कहीं निकलती है उसकी बरात

Update:2016-10-08 17:35 IST

लखनऊ: नवरात्रि आते ही दशहरा का इंतजार लोगों में बेसब्री से रहता है। दशहरा को बुराई पर अच्छाई की जीत के रुप में मनाते है। कही रावण दहन होता है तो कही रामलीला। भगवान राम ने रावण का वध कर बुराई का अंत किया था। वैसे ही दशहरा हमारे लिए दीपावली की खुशियों को लेकर आता है। देश के कुछ हिस्सों को छोड़ दें तो पुरे देश में दशहरा धूमधाम से मनाया जाता है। लोग 9 दिन उपवास रखते हैं और 10वें दिन रावण के पुतले को जलाकर बुराई पर विजय का पर्व विजयदशमी मनाते हैं। देश के अलग-अलग कोने में अलग तरह से दशहरा मनाते हैं।

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इलाहाबाद का रावण दहन

पूरे देश और दुनिया में दशहरे पर जहां रावण के पुतले जलाए जाते हैं वहीं संगम नगरी इलाहाबाद में दशहरा उत्सव की शुरुआत लंकाधिपति रावण की पूजा-अर्चना और भव्य शोभा यात्रा के साथ होती है। हाथी-घोडों, बैंड पार्टियों व आकर्षक लाइट्स के बीच महाराजा रावण की शोभा यात्रा जब उनके कुनबे और मायावी सेना के साथ इलाहाबाद की सड़कों पर निकलती है, तो उसके स्वागत में जनसैलाब उमड़ पड़ता है।

इलाहाबाद में रावण की विद्वता के चलते पूजा की जाती है। दशहरे की शुरुआत के मौके पर संगम नगरी इलाहाबाद में तीनों लोकों के विजेता लंकाधिपति रावण की शाही सवारी परम्परागत तरीके से पूरी सज-धज और भव्यता के साथ निकाली जाती है। विद्या और ज्ञान की देवी सरस्वती के उदगम स्थल और ऋषि भारद्वाज की नगरी इलाहाबाद में महाराजा रावण को उनकी विद्वता के कारण पूजा जाता है। यहां दशहरे के दिन रावण का पुतला भी नहीं जलाया जाता। दशहरा उत्सव शुरू होने पर यहां राम का नाम लेने वाले का नाक-कान काटकर शीश पिलाने का प्रतीकात्मक नारा भी लगाया जाता है।

लंकाधिपति रावण की इस अनूठी व भव्य बारात के साथ ही इलाहाबाद में हो जाती है दशहरा उत्सव की शुरुआत। इस उत्सव के तहत एक पखवारे तक शहर के अलग-अलग मोहल्लों इस शोभा यात्रा की तरह ही भव्य राम दल और हनुमान दल निकाले जाते हैं, जो अपनी भव्यता की वजह से समूची दुनिया में मशहूर हैं। देश के दूसरे हिस्सों में दशहरे की शुरुआत नवरात्रि से होती है लेकिन संगम नगरी इलाहाबाद में दशहरा उत्सव पितृ पक्ष में ही शुरू हो जाता है।

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बस्तर का दशहरा

बस्तर में दशहरा पर्व करीब 75 दिनों तक मनाया जाता है और रावण के वध की जगह इसमें बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी के साथ देवी-देवताओं की 13 दिन तक पूजा-अर्चना होती है। हरेली अमावस्या अर्थात तीन माह पूर्व से दशहरा की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। यह माना जाता है कि यह पर्व 600 से अधिक सालों से मनाया जा रहा है। इस पर्व की शुरुआत सावन मास की हरेली अमावस्या से होता है, जब रथ निर्माण के लिए प्रथम लकड़ी विधिवत काटकर जंगल से लाई जाती है। इसे पाटजात्रा विधान कहा जाता है। इस रस्म के बाद कई गांवों से लकड़ियां लाकर रथ निर्माण कार्य प्रारंभ किया जाता है।

बस्तर दशहरा का आकर्षण का केंद्र काष्ठ निर्मित विशालकाय दुमंजिला रथ है, जिसे सैकड़ों लोग खींचते हैं। रथ पर लोगों की आस्था मां दंतेश्वरी का छत्र होता है। जब तक राजशाही जिंदा थी, राजा स्वयं सवार होते थे। बिना आधुनिक तकनीक व औजारों के एक निश्चित समयावधि में विशालकाय रथ का निर्माण आदिवासियों की काष्ठ कला का अद्वितीय प्रमाण है, वहीं उनमें छिपे सहकारिता के भाव को जगाने का श्रेष्ठ कर्म भी है। जाति वर्ग भेद के बिना समान रूप से सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित कर सम्मानित करना एकता-दृढ़ता का प्रतीक है।

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कुल्लू का दशहरा

यहा दशहरे को लोकतांत्रिक पर्व के रूप में मनाते है।इसमे सभी समुदायों को दशहरा मनाने के लिए आमंत्रित करते है। हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में सात दिन तक उत्सव की तरह दशहरा मनाते है। यहां दशहरा तब शुरु होता है देश के अन्य हिस्सों मना लिया जाता है। कुल्लू में इस त्योहार को दशमी कहते हैं। हिन्दी कैलेंडर के अनुसार आश्विन महीने की दसवीं तारीख को इसकी शुरुआत होती है। इसकी एक और खासियत यह है कि जहां सब जगह रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण का पुतला जलाया जाता है, कुल्लू में काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार के नाश के प्रतीक के तौर पर पांच जानवरों की बलि दी जाती है। कुल्लू का दशहरा पर्व परंपरा, रीतिरिवाज और ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्व रखता है।

कहते है कि कुल्लू में मनाया जाने वाले दशहरे का संबंध रामायण से नहीं है। बल्कि एक राजा से इसकी मान्यता जुड़ी है। सन् 1636 में जब जगत सिंह यहां का राजा थे, तो मणिकर्ण की यात्रा के दौरान उन्हें मालूम हुआ कि एक गांव में एक ब्राह्मण के पास बहुत कीमती रत्न हैं। राजा ने उस रत्न को हासिल करने के लिए अपने सैनिकों को उस ब्राह्मण के पास भेजा। सैनिकों ने उसे यातनाएं दीं, डर के मारे उसने राजा को श्राप देकर परिवार समेत आत्महत्या कर ली। कुछ दिन बाद राजा की तबीयत खराब होने लगी। तब एक साधु ने राजा को श्राप मुक्त होने के लिए रामजी की मूर्ति लगवाने की सलाह दी। अयोध्या से लाई गई इस मूर्ति के कारण राजा धीरे-धीरे ठीक होने लगा और तब से उसने अपना जीवन और पूरा साम्राज्य भगवान राम को समर्पित कर दिया। तभी से यहां दशहरा पूरी धूमधाम से मनाया जाने लगा।

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मैसूर का दशहरा

दशहरा केवल उत्तर में ही नहीं दक्षिण में भी मनाया जाता है। कर्नाटक के मैसूर में मनाया जाने वाला दशहरा भी पूरे देश में बहुत फेमस है। इसका एक कारण है यहां हर साल 10 दिन तक दशहरा मानया जाता है। इस मौके पर यहां गुड़िया बनाई जाती है और हर घर में इसकी प्रदर्शनी लगाई जाती है। इन्हें बांबे हब्बा या गोलू या कोलू (कन्नड़) या बोम्माला कोलुवु (तेलुगु) या बोम्मई कोलु (तमिल) कहा जाता है। इन डॉल्स को 7, 9 या 11 के ऑड नंबर में लगाया जाता है। इन्हें सफेद कपड़े से ढककर रखा जाता है। यहां नवरात्र के दौरान इन गुडि़यों की पूजा की जाती है।

दशहरे के दौरान मैसूर पैलेस को दीपकों से सजाया जाता है। हाथियों को सजाकर जुलूस निकाला जाता है। शहर में लोग टार्च लाइट के संग नृत्य और संगीत का आनंद लेते हैं। इन द्रविड़ प्रदेशों में रावण-दहन नहीं होता है।

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