मुसलमानों ने कराया था इस मंदिर का निर्माण, होता है यहां आज भी चमत्कार

Update:2018-07-11 11:41 IST

जयपुर: उत्तर प्रदेश के प्रमुख कस्बा देवबंद यूं तो इस्लामिक शिक्षण संस्था दारुल उलूम की वजह से पूरे विश्व में ख्याति प्राप्त है, लेकिन इससे इतर इस कस्बे में मुगल काल की छावनी रही है। मुगलकाल से स्थित यहां पर अनेकों शिव मंदिर और शिवालय हैं। इन शिवालयों में कुछ तो महाभारत कालीन भी हैं।

बाबा बालगिरी ने मुगल सेना को बांधा था पेड़ से

देवबंद के मोहल्ला लहसवाड़ा में स्थित बाला बालगिरी महादेव मंदिर बड़े-बड़े महापुरुषों की तपस्या स्थली रही है, जिनमें बाबा पूरणनाथ, बाबा मंगलनाथ, बाबा रामगिरी, बाबा कर्णनाथ आदि महापुरुषों के नाम प्रमुख हैं। कहा जाता है कि मुगलकाल में जब एक मुगल शासक ने इस प्राचीन मंदिर को तोड़ने के लिए अपने कुछ सैनिक यहां भेजे, तो मंदिर की देख-रेख करने वाले बाबा बालगिरी महाराज ने उनको रोकने का प्रयास किया, परंतु सैनिकों ने बाबा को कनेर के पेड़ में बांध दिया।

बाबा की प्रार्थना पर निकली थी किरणें

बाबा ने महादेव से प्रार्थना की और जैसे ही सैनिक मंदिर के भीतर शिवलिंग को खंडित करने के लिए पहुंचे तो शिवलिंग से अद्भुत किरणें निकली, जिनसे सभी सैनिक अंधे हो गए। अचानक अंधे हो जाने के कारण सैनिक चीखने-चिल्लाने व रोने लगे, जिस पर बाबा बालगिरी महाराज ने सैनिकों से कहा कि तुम्हें महादेव का श्राप लगा है, सैनिकों ने बाबा से विनती की कि उनकी आंखों की रोशनी लौटा दें तो बाबा ने कहा कि तुम यहां से लौट जाओ तो तुम्हारी आंखों की रोशनी भी लौट आएगी।

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होती है मनचाहे फल की प्राप्ति

मंदिर इतना प्राचीन है कि मंदिर के स्थापना का वर्ष भी पता नहीं चल पाया है। माना जाता है कि यहां आने वाले श्रद्धालुओं की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती है तथा जो श्रद्धालु लगातार एक माह तक बाबा की सेवा करता है उसे मन चाहा फल प्राप्त हो जाता है। प्राचीन मंदिर की आस्था से जुड़े हजारों श्रद्धालू वर्षभर यहां पहुंचकर अपनी-अपनी मन्नतें पूरी करने के लिए प्रसाद चढ़ाते हैं। मंदिर की प्राचीनता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देवबंद तहसील के रिकार्ड में लगभाग 55 वर्ष पुराना यह मंदिर लबे गंगा तट शिव मंदिर के नाम से दर्ज है।

संतान प्राप्ति के लिए यहां पर आते हैं लाखों श्रद्धालु

देवबंद के पवित्र देवीकुंड पर स्थित सिद्धपीठ ग्यारह मुखी महादेव मंदिर तब से मौजूद है। जब देवबंद एक घना जंगल हुआ करता था और उसी घने जंगल के कारण यह क्षेत्र देवीवन के नाम से जाना जाता था। तब से लेकर आज तक यह सिद्धपीठ अपनी विशेष देवीय शक्ति के लिए नगर, क्षेत्र ही नहीं बल्कि पूरे भारत में रहने वाले लाखों श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है। अपनी-अपनी मन्नतें लेकर यहां आने वाले श्रद्धालुओं का साल भर सिलसिला जारी रहता है।

मंदिर की सेवा में लगे पं. द्वारिकानाथ व पं. शशिकांत भारद्वाज बताते हैं कि महाभारत काल में जब पांडवों को अज्ञातवास जाता पड़ा था, तो उस समय पांचों पांडवों ने यहां आकर इसी सिद्धपीठ ग्यारह मुखी महादेव मंदिर व श्री त्रिपुर मां बाला सुंदरी देवी मंदिर की सेवा की थी। उनका कहना है कि इतिहास से पता चलता है जब पांचों पांडव यहां आए तो उस समय यहां पर दूर-दूर तक मात्र घना जंगल ही था और यह क्षेत्र देवी वन के नाम से जाना जाता था। जिससे मंदिर के अतिप्राचीन होने का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। जो श्रद्धालु 41 दिनों तक लगातार जलाभिषेक या रुद्राभिषेक करते हैं उनको अन्न, यश, धन, धान्य तथा संतान की प्राप्ति तो होती ही है साथ-साथ ही साथ जीवन में उन्हें अन्य कष्ट नहीं सहने पड़ते।

सिद्धपीठ ग्यारह मुखी महादेव मंदिर का नाम मंदिर के भीतर अतिप्राचीन समय से मौजूद विशेष रूपी शिव लिंग के कारण पड़ा है। मंदिर के भीतर स्थित मुख्य शिव लिंग को छोटे-छोटे दस शिवलिंगों ने चारों ओर से घेर रखा है जिसके चलते मंदिर के भीतर एक समय में ग्यारह शिवलिंग नजर आते हैं। इसी कारण यह प्रसिद्ध सिद्धपीठ ग्यारह मुखी महादेव मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है।

मुसलमानों ने कराया था मंदिर का निर्माण

देवबंद कस्बे से करीब तीन किलोमीटर दूर स्थित गांव मानकी स्थित श्री मंकेश्वर महादेव मंदिर का यूं तो कोई प्रमाणिक इतिहास किसी ग्रंथ या शास्त्र में उपलब्ध नहीं है, लेकिन चली आ रही परंपराओं और मान्यताओं के

अनुसार यह मंदिर जहां एक ओर शिव के भक्तों की अटूट आस्था का केंद्र है।

वहीं, सामाजिक सदभाव की जीती जागती मिसाल है कि मानकी गांव के एक मुसलमान गाड़ा परिवार ने खेत में हल चलाते समय एक काले पत्थर को ऊपर आते देखा तो वह आश्चर्य में पड़ गया और उस पर मिट्टी ढांक कर वह घर चला आया। उसके आश्चर्य का उस समय कोई ठिकाना नहीं रहा जब उसने प्रात: काल खेत में आकर देखा कि जिस काले पत्थर को वह मिट्टी में दबाकर गया था वह फिर से स्वत: ही ऊपर आ गया है। बात फैलती गई और किसी चमत्कार अथवा अनहोनी घटना के भय से उस किसान ने वह खेत शिव मंदिर के लिए दान करने की पेशकश की।

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कहते हैं कि उसी रात देवबंद के एक शिव भक्त व्यापारी को स्वप्न में स्वयं भगवान शिव ने अपने प्रकट होने की बात कहकर वहां मंदिर बनवाने की प्रेरणा दी। और इसी आधार पर वहां हिंदू-मुसलमानों ने आपसी सहमति जताकर मंदिर का निर्माण कराया। मण्केश्वर महादेव के इस मंदिर में स्वयं प्रकट भगवान शिव के दर्शन करके यूं तो प्रतिदिन ही भक्त अपने मन की तृप्ति करते है किंतु फागुन की शिवरात्रि को इस शिवलिंग के पूजन का विशेष महत्व है।

वहीं, गांव घ्याना स्थित लाखों लोगों की आस्था के केंद्र श्री सिद्धपीठ भगवान नागेश्वर मंदिर का निर्माण यूं तो करीब दो दशक पूर्व गांव के पूर्व प्रधान एवं ग्रामीणों के सहयोग से किया गया था। लेकिन इसके अंदर स्थित शिवलिंग के बारे में मान्यता है कि वह सैकड़ों वर्षों से यहां एक बरगद के पेड़ में स्थित था जिसकी गांव वाले पूजा करते चले आ रहे है। गांव

के वृद्ध लोग बताते हैं कि बात प्रचलित है कि पुराने समय में यहां ऊंचाई पर एक बस्ती थी जो किसी कारण पलट कर तबाह हो गई थी।

ऐसा क्यों हुआ? यह तो कोई नहीं जानता लेकिन उसके बाद यहां निचले भाग में गांव बसा दिया गया जिसका नाम घ्याना रखा गया और उसी समय से गांव में स्थित बरगद के पेड़ के अंदर रखे शिवलिंग की गांव के लोग पूजा करते चले आ रहे है। आस्था के प्रतीक इस मंदिर में प्रत्येक सप्ताह के सोमवार में श्रद्धालुओं की भारी भीड़ रहती है और शिवरात्रि में दूर-दूर से श्रद्धालु इस मंदिर में आकर जल चढ़ाते है और मन्नतें मांगते है।

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