लखनऊ: माह-ए-रमज़ान का चांद नज़र आते ही रोज़े की शुरुआत हो जाती है। क़रीब एक महीने तक चलने वाले इस पर्व में तुलु-ए-आफताब यानी सूर्योदय से लेकर ग़ुरूब आफताब यानी सूर्यास्त तक खाने-पीने से दूर रहना पड़ता है। पानी का एक कतरा भी रोज़े को बर्बाद कर देता है। लिहाजा, रोज़ेदार पूरी ताकीद के साथ रोज़ा रखते है।
कुछ ऐसे किया जाता है पाक माह का पालन
भूखे पेट रहने के अलावा रमज़ान के कई और भी अरकान हैं जैसे 5 वक्त की पाबंदी के साथ नमाज़ पढ़ना। इशा के वक्त तरावीह का पढ़ना, जिसमें खड़े होकर नीयत की हालत में कुरआन-ए-पाक को सुना जाता है। जिस तरह हर बालिग़ मर्द-औरत पर रोज़ा फ़र्ज़ है उसी तरह हर रोज़ तरावीह का पढ़ना भी निहायत ज़रूरी है।
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बुरे काम से बचना
पूरे रमज़ान के दौरान एक खत्म कुरआन का सुनना हर रोज़ेदार पर फ़र्ज़ है। इसके अलावा बुराइयों से दूर रहना, लड़ाई झगड़े से खुद को दूर रखना, फहस बातों से अपने को बचाना। अपनी आंखों को बुरी चीज़ देखने से बचाना, अपने हाथों को बुरे काम करने से बचाना, अपने पैरों को बुरी जगह जाने से बचाना। अपने कानों को बुरी बात सुनने से बचाना और सबसे ज़रूरी नफ्सानी ख्वाहिशात से अपने को दूर रखना।
रोजा के साथ इबादत का पर्व
रोज़े की हालत में सिर्फ भूखा रहकर रमज़ान की बरकत को नहीं पाया जा सकता है। लिहाजा, भूख और प्यास के साथ ही खुद को बुराइयों से दूर रखना और अपने को इबादत में मशग़ूल रखना भी बेहद ज़रूरी है। इसके बिना ज़ाहिरी तौर पर रोज़ा तो पूरा हो जाएगा, लेकिन उसके बरकात से आप महरूम रह जाएंगें। इसके लिए हर रोज़ेदार को समझना ज़रूरी है कि, रोज़ा हमसे क्या चाहता है।
सदका-जकात
आखिर में रमज़ान से जुड़ी दो और बातें समझने की ज़रूरत है। एक है सदका-फितरा और दूसरा है ज़कात। सदका के मायने हैं अपने जान के बदले कुछ पैसे ग़रीबों के बीच तक़्सीम करना और ज़कात का मतलब है कि, अपने माल पर कुछ पैसे निकाल कर ज़रूरतमंदों के बीच बांटना। रमज़ान के दौरान इन दोनों हुक्मों की अदायगी निहायत ज़रूरी है। इसके बिना रोज़े के मक़सद को हम पूरा नहीं कर सकते।