लखनऊ: देवाधिदेव शिव और जगतजननी मां पार्वती के पावन धाम कैलाश मानसरोवर की वार्षिक यात्रा पर हर साल बड़ी संख्या में साधु-संत, आम श्रद्धालु और दार्शनिक जाते हैं। इस साल भी 60 यात्रियों के पहले जत्थे की रवानगी के साथ इस दिव्य यात्रा का शुभारंभ हो चुका है। यह यात्रा 12 जून से प्रारम्भ होकर आठ सितंबर तक चलेगी और इस साल 25 जत्थों में कुल 1430 यात्री कैलाश मानसरोवर जाएंगे।
आइए इस यात्रा के बहाने जानते हैं सृष्टि के इस आदि तीर्थ का धार्मिक, पौराणिक और आध्यात्मिक महात्म्य; जहां आकर श्रद्धालुओं को ऐसा अभिभूत करने वाला अनुभव होता है जिसे शब्दों में बयान करना मुश्किल है।
प्रकाश और ध्वनि तरंगों का अनुपम समागम
हिमाच्छादित 22,028 फुट ऊंचे कैलाश शिखर और उससे लगे मानसरोवर को भगवान सदाशिव का आदिधाम माना जाता है। मान्यता है समूची सृष्टि में यही वह पावन जगह है, जहां आदि देव शिव-शंभू माता भवानी के साथ आज भी विराजते हैं। यह पवित्र स्थल उतना ही प्राचीन है, जितनी प्राचीन हमारी सृष्टि है। इस अलौकिक जगह पर प्रकाश और ध्वनि तरंगों का अनुपम समागम होता है। इस पावन तीर्थ को भारतीय दर्शन में दैवीय ऊर्जा के हृदय स्थल की उपमा दी जाती है। मानस खंड के नाम से जानी जाने वाली यह कैलास पर्वतमाला कश्मीर से लेकर भूटान तक फैली हुई है।
समुद्र सतह से 22,028 फीट ऊंचे कैलाश पर्वत की आकृति एक पिरामिड जैसा है, जिसके शिखर की बनावट विराट शिवलिंग की तरह है। चीन अधिग्रहीत तिब्बत क्षेत्र में स्थित इस पर्सत के समीप मानसरोवर झील लगभग 320 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैली हुई है। इसके दूसरी ओर रक्षातल झील है। पौराणिक कथानक है कि मानसरोवर झील की उत्पत्ति भगीरथ की तपस्या से भगवान शिव के प्रसन्न होने पर हुई थी। इसी स्थान के दर्शन के लिए हजारों लोग प्रतिवर्ष कैलाश मानसरोवर यात्रा में भाग लेते हैं।
चार दिशाओं से चार प्रमुख नदियों का उद्गम
षोडशदल कमल के आकार का यह तीर्थ सदैव बर्फ से आच्छादित रहता है। शिव का यह धाम चार धर्मो तिब्बती धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म और हिंदू धर्म का आध्यात्मिक केंद्र है। इस कैलाश पर्वत की चार दिशाओं से चार प्रमुख नदियों ब्रह्मपुत्र, सिंधु, सतलज व करनाली का उद्गम माना जाता है। एक अन्य रोचक तथ्य यह है कि कैलाश की चारों दिशाओं से निकलने वाली ये चारों नदियां चार स्रोतों से निकलती हैं वे चार भिन्न भिन्न पशुओं की मुख की आकृति के हैं। पूर्व में अर्श्वमुख, पश्चिम में हाथी का मुख, उत्तर में सिंह का मुख और दक्षिण में मोर का मुख। हिंदू के अलावा, बौद्ध और जैन धर्म में भी कैलाश मानसरोवर को पवित्र तीर्थस्थान के रूप में देखा जाता है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार यह जगह कुबेर की नगरी है। यहीं से महाविष्णु के करकमलों से निकलकर मां गंगा कैलाश पर्वत की चोटी पर गिरती हैं, जहां प्रभु शिव उन्हें अपनी जटाओं में भर धरती में निर्मल धारा के रूप में प्रवाहित करते हैं। हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार जो व्यक्ति मानसरोवर झील की धरती को छू लेता है, वह ब्रह्मा के बनाए स्वर्ग में पहुंच जाता है और जो व्यक्ति झील का पानी पी लेता है, उसे भगवान शिव के बनाए स्वर्ग में जाने का अधिकार स्वत: ही मिल जाता है।
शिव को स्वयं में महसूस करने की यात्रा
सद्गुरु कहते हैं, "कैलाश मानसरोवर की यात्रा वस्तुत: शिव को स्वयं में महसूस करने की यात्रा है। अर्थात नैसर्गिक होकर स्वयं में शिव को खोजना ही इस यात्रा का मर्म है। वे कहते हैं कि मानव का मूल रूप या मूल प्रकृति शिव है। इस यात्रा का यात्री व्यक्ति नहीं रहता, प्रकृति बन जाता है। उसे न अपने अहंकार से मतलब होता है, न किसी द्वेष से, न ही उसे किसी का मोह सताता है और न ही कोई चिंता। उसका एकमात्र लक्ष्य होता है कैलास मानसरोवर में विराजे शिव के सन्निकट पहुंचना। शिव तक पहुंचने के लिए व्यक्ति धीरे-धीरे शिव में परिवर्तित होने लगता है।
जैसे-जैसे वह प्रकृति में रमने लगता है, वैसे-वैसे उसके शिव होने की प्रक्रिया भी प्रारम्भ हो जाती है। वह लोभ, मोह, अहंकार, क्रोध आदि को छोड़ता हुआ अपने भीतर की मूल प्रकृति का बाहर की प्रकृति से तादात्म्य बैठा लेता है। मानसरोवर यात्रा के साथ ही रास्ते में अत्यधिक सुखद अनूभूति होती है। यहां तक कि मनुष्य मोह-माया से मुक्त हो जाता है। यात्रा में कैलास पर्वत की परिक्रमा का भी महत्व है। इस नैसर्गिकता में ही यात्री शिवोहम् का उद्घोष करने का पात्र बन जाता है।"
"ॐ" पर्वत का पूजन
सनातन धर्म में भगवान शिव के निवास स्थान के रूप में हिमाचल प्रदेश के किन्नर, श्रीखंड, मणि महेश, आदि कैलास व कैलास मानसरोवर आदि पर्वतों की सर्वाधिक मान्यता है। इसमें कैलास मानसरोवर को तो साक्षात शिव के दर्शनों का पावन स्थल माना जाता है। आमतौर पर देश में भगवान शिव को लिंग रूप में अधिक पूजा जाता है, जबकि यहां के "ॐ" पर्वत को पूजा जाता है। माना जाता है कि उन्हीं भक्तों को मानसरोवर यात्रा का सौभाग्य मिलता है जो शिवमय होना जानते हैं। यह भी मान्यता है कि शिव की महिमा के कारण ही सरोवर में हमेशा जलस्तर एक समान रहता है।
उच्च हिमालयी क्षेत्र होने के बावजूद यहां बर्फ नहीं जमती, जबकि सरोवर के दूसरी ओर स्थित राक्षस ताल में बर्फ जम जाती है। यहां की यात्रा करने वाले कुछ श्रद्धालुओं के अनुभव वाकई अलौकिक कहे जा सकते हैं। यहां आने वाले लोगों का कहना कि उन्होंने कैलाश पर्वत से आधी रात को कैलास पर्वत से एक दिव्य ज्योति निकलती देखी जो मानसरोवर में समाकर विलीन हो गयी। कैलास मानसरोवर के यात्री प्रकृति के विभिन्न लौकिक-अलौकिक अनुभवों से जुड़ी ऐसी कई बातें बताते हैं।
33 कोटि देवता करते हैं मानसरोवर में स्नान
शिवपुराण में कैलाश मानसरोवर की उपमा क्षीर सागर से की गयी है। स्कंद पुराण के मानस खंड में भी कै लास मानसरोवर का उल्लेख किया गया है। पुराणों में पांडवों के पर्वतारोहण के दौरान मानसरोवर क्षेत्र में जाने का भी उल्लेख मिलता है। हिंदू धर्म में भगवान शिव को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। मान्यता है कि श्रीराम ने जब सीता को दोबारा अग्नि परीक्षा देने को कहा तो शरीर त्यागने के बाद सीता माता मानसरोवर के रास्ते ही स्वर्ग लोक पहुंचीं।
मान्यता है कि कैलास पर्वत के रास्ते 33 कोटि देवता आते हैं और सरोवर में स्नान करते हैं, इसलिए सरोवर का जल सदैव स्थिर रहता है और हर घंटे रंग बदलता है। कालिदास रचित "मेघदूत" में भी मानसरोवर यात्रा का उल्लेख किया गया है। भोलेनाथ का यह संसार वाकई निराला है। भारत की आध्यात्मिक-सांस्कृतिक धरोहर के साथ दैविक ऊर्जा का अमृत-कलश का अद्वितीय स्रोत है कैलास मानसरोवर। श्रद्धालुओं के अन्तर्चक्षुओं में बसा है यह दिव्य लोक। ऐसे दिव्य लोक में भला कौन नहीं जाना चाहेगा।
जलक्रीड़ा करते हैं राजहंस
15,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित यह मानसरोवर झील 54 मी तक विस्तार लिए हुए शिव के चरणों को आज भी प्रक्षालित कर रही है। श्रद्धालु कहते हैं, झील के समीप जलक्रीड़ा करते राजहंसों की कतार देख प्रतीत होता है कि मानो सदाशिव ने इस पवित्र सरोवर की स्वच्छता का दायित्व इन नन्हें सिपाहियों पर सौंप रखा हो। इस मानसरोवर की परिक्रमा के बाद स्नान से तन-मन की मलिनता नष्ट हो मानवीय चेतना कुछ समय के लिए परमचेतना से जुड़ जाती है। शायद इसी अवस्था के लिए शून्य से शिखर तक पहुंचने वाली अवस्था की बात कही गयी हो।
आदिनाथ का कैवल्य स्थान
इसी दिव्य वातावरण में दारचीन से 45 किलोमीटर की दूरी पर अष्टापद नाम महातीर्थ है, जिसे जैनधर्म के प्रवर्तक आदिनाथ का कैवल्य स्थान ( मोक्ष प्राप्ति) माना जाता है। चारों ओर अमृतमयी जलधारा कैलास को निहारते आदिनाथ! अद्भुत प्रेम-वैराग्य का संगम स्थल माना जाता है यह अष्टापद। दारचीन से 15 किलोमीटर की दूरी पर यमद्वार स्थित है। कहते हैं कि आदि कैलास की पैदल परिक्रमा के दौरान यहां से निकलते समय मन से मृत्यु का भय भी निकल जाता है। यहां से दस पद्रंह किलोमीटर दूरी पर से कैलास पर्वत की परिक्रमा प्रारम्भ होती है। यहां से कैलास अत्यन्त भव्य दिखायी देता है। गगन तले स्वत: निर्मित उत्तुंग शैल-शिखर पर एक शिवलिंग आकृति, शीर्ष पर शोभायमान श्वेत कमल सदृश तुषार किरीट। उत्तर दिशा की ओर उन्मत्त भाल कैलास पर चूड़ामणि स्वरूप दीर्घ शैल अत्यन्त आकर्षक दृष्टिगोचर होता है।
अकस्मात उठती हुई विशाल गुम्बदाकार शिव जटा सदृश कैलास के शरीर से निकलती जलधाराएं लोगों को भक्ति रस में सराबोर कर देती हैं। यह तीर्थ स्थल सागर तल से लगभग 17500 फीट ऊंचाई पर है। ऊंची-नीची पर्वत श्रेणियों की इस अति दुर्गम यात्रा में ऑक्सीजन की अत्यन्त कमी के कारण सभी श्रद्धालु सहजता से यहां नहीं पहुंच सकते। मगर भोले की कृपादृष्टि जिस पर पड़ जाए, वह साक्षात शिवालय, देवलोक में अपना स्थान पा लेता है। यहां से 15 किलोमीटर की उतराई पर गौरीकुण्ड स्थित है। किंवदन्ती है कि प्रतिदिन प्रात: मां पार्वती यहां स्नान करने आती हैं। यहां का जल नीला एवं अत्यन्त पवित्र है।
इसलिए जारी हैं दिव्य तीर्थों की यात्राएं-परिक्रमाएं
दरअसल हिन्दू धर्म में तीर्थस्थलों का विशेष महात्म्य है। महाभारत में पांडवों संग द्रौपदी ने वनवास काल में देश के कोने-कोने में स्थित तीर्थों की यात्राएं की थीं और रामायण में भी तीर्थों का वर्णन है। जरा इसके दार्शनिक पक्ष पर विचार कीजिए! हमारे पूर्वजों से उस विषम साधनहीन युग में जिन रास्तों पर से गुजर कर इन दुर्गम स्थलों की यात्राए थीं, उनकी चरणधूलि से एकाकार होते हुए आज के सुविधापरक समय में उन्हीं रास्तों से फिर-फिर गुजरना, कंदराओं-गुफाओं में उतरना, ताल-सरोवर में डुबकी लगाना, गिरि-पर्वतों की परिक्रमाएं करना वस्तुत: हमारे अपने ही तो भीतर उतरने की ही यात्रा है। तमाम लोग बताते हैं कि वे बद्री, केदार गये, अमरनाथ गये, तिरुपति दर्शन को गये, केरल में भगवान अयप्पा के दर्शनार्थ शबरीमला तीर्थयात्रा का हिस्सा बने या चारधाम यात्रा पर निकल पड़े।
कभी कुछ पल रुक कर सोचा है कि आखिर इन तीर्थों का वास्तविक लाभ क्या है। दरअसल जब हम अपने शरीर की सीमाओं को सीमित बनाकर प्रकृति के विराट तत्व से साक्षात्कार करते हैं तो हमारे भीतर उठने वाले द्वंद्व, मन में चलने वाले झंझावातों को, मस्तिष्क को उद्वेलित करने वाले विचारों पर सहसा ही विराम सा लग जाता है। यह वैचारिक शांति उस दिव्य वातावरण में हमें शब्दातीत; एक अलौकिक आनंद की अनुभूति कराती है। शायद यही कारण है कि घोर व्यावसायिकता के इस युग में भी सुदूर पर्वतों व दिव्य तीर्थों की यात्राएं-परिक्रमाएं अनवरत जारी हैं।
पूनम नेगी