जयपुर:नवरात्रि में देवी के जिस अनंत तेजयुक्त अवतार की आराधना की जाती है, वो महिषासुरमर्दिनी है। दुर्गा पूजा में अधिकांश स्थानों पर देवी की स्थापना में आधे भैंसे और आधे मनुष्य शरीर वाले असुर का संहार करती हुई जिस सौम्य मूर्ति के दर्शन होते हैं, वे यही मां महिषासुरमर्दिनी ही हैं। मां दुर्गा का नाम महिषासुरमर्दिनी इसलिए ही पड़ा, क्योकि उन्होंने महिषासुर नामक राक्षस का वध किया था। असुर महिषासुर के वध के बाद सभी देवता बहुत प्रसन्न हुए। उसके बाद सभी देवी-देवताओं ने मिलकर मां की स्तुति की। उसी स्तुति का एक रुप महिषासुरमर्दिनी स्तोत्र है। नवरात्रि में इस स्तोत्र का पाठ करने से भगवती अत्यंत प्रसन्न होती है। इस स्तोत्र को पढ़ने से शत्रुओं का नाश होता है।
इस शुभ मुहूर्त में कलश स्थापित कर शुरू करें आदिशक्ति दुर्गा की आराधना
इन 21 महिषासुरमर्दिनी स्तोत्र पाठ करने वाले व्यक्ति पर देवी सदैव अपनी कृपा बरसाती रहती है। महिषासुरमर्दिनी स्तोत्र और प्राप्त कीजिए मां की कृपा-
अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनिविश्वविनोदिनि नन्दिनुते
गिरिवरविन्ध्यशिरोऽधिनिवासिनिविष्णुविलासिनि जिष्णुनुते।
भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनिभूरिकुटुम्बिनि भूरिकृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनिशैलसुते ॥ १ ॥
सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणिहर्षरते
त्रिभुवनपोषिणि शङ्करतोषिणिकिल्बिषमोषिणि घोषरते
दनुजनिरोषिणि दितिसुतरोषिणिदुर्मदशोषिणि सिन्धुसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनिशैलसुते ॥ २ ॥
अयि जगदम्ब मदम्ब कदम्ब वनप्रियवासिनिहासरते
शिखरि शिरोमणि तुङ्गहिमलय शृङ्गनिजालयमध्यगते ।
मधुमधुरे मधुकैटभगञ्जिनि कैटभभञ्जिनिरासरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनिशैलसुते ॥ ३ ॥
अयि शतखण्ड विखण्डितरुण्डवितुण्डितशुण्द गजाधिपते
रिपुगजगण्ड विदारणचण्ड पराक्रमशुण्डमृगाधिपते ।
निजभुजदण्ड निपातितखण्ड विपातितमुण्डभटाधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनिशैलसुते ॥ ४ ॥
अयि रणदुर्मद शत्रुवधोदित दुर्धरनिर्जरशक्तिभृते
चतुरविचार धुरीणमहाशिव दूतकृतप्रमथाधिपते ।
दुरितदुरीह दुराशयदुर्मति दानवदुत कृतान्तमते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनिशैलसुते ॥ ५ ॥
अयि शरणागत वैरिवधुवर वीरवराभयदायकरे
त्रिभुवनमस्तक शुलविरोधि शिरोऽधिकृतामलशुलकरे ।
दुमिदुमितामर धुन्दुभिनादमहोमुखरीकृतदिङ्मकरे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनिशैलसुते ॥ ६ ॥
अयि निजहुङ्कृति मात्रनिराकृत धूम्रविलोचनधूम्रशते
समरविशोषित शोणितबीज समुद्भवशोणितबीजलते ।
शिवशिवशुम्भ निशुम्भमहाहव तर्पितभूतपिशाचरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनिशैलसुते ॥ ७ ॥
धनुरनुषङ्ग रणक्षणसङ्ग परिस्फुरदङ्गनटत्कटके
कनकपिशङ्ग पृषत्कनिषङ्ग रसद्भटशृङ्गहताबटुके ।
कृतचतुरङ्ग बलक्षितिरङ्ग घटद्बहुरङ्ग रटद्बटुके
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनिशैलसुते ॥ ८ ॥
सुरललना ततथेयि तथेयि कृताभिनयोदरनृत्यरते
कृत कुकुथः कुकुथो गडदादिकताल कुतूहलगानरते ।
धुधुकुट धुक्कुट धिंधिमित ध्वनि धीर मृदंगनिनादरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनिशैलसुते ॥ ९ ॥
जय जय जप्य जयेजयशब्द परस्तुतितत्परविश्वनुते
झणझणझिञ्झिमि झिङ्कृतनूपुरशिञ्जितमोहित भूतपते ।
नटित नटार्ध नटी नट नायक नाटितनाट्यसुगानरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनिशैलसुते ॥ १० ॥
अयि सुमनःसुमनःसुमनःसुमनःसुमनोहरकान्तियुते
श्रितरजनी रजनीरजनी रजनीरजनीकरवक्त्रवृते ।
सुनयनविभ्रमर भ्रमरभ्रमर भ्रमरभ्रमराधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनिशैलसुते ॥ ११ ॥
सहितमहाहव मल्लमतल्लिक मल्लितरल्लकमल्लरते
विरचितवल्लिक पल्लिकमल्लिकझिल्लिकभिल्लिक वर्गवृते ।
शितकृतफुल्ल समुल्लसितारुणतल्लजपल्लव सल्ललिते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनिशैलसुते ॥ १२ ॥
अविरलगण्ड गलन्मदमेदुर मत्तमतङ्गजराजपते
त्रिभुवनभुषण भूतकलानिधि रूपपयोनिधिराजसुते ।
अयि सुदतीजन लालसमानस मोहनमन्मथराजसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनिशैलसुते ॥ १३ ॥
कमलदलामल कोमलकान्ति कलाकलितामलभाललते
सकलविलास कलानिलयक्रम केलिचलत्कलहंसकुले ।
अलिकुलसङ्कुल कुवलयमण्डलमौलिमिलद्बकुलालिकुले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनिशैलसुते ॥ १४ ॥
करमुरलीरव वीजितकूजित लज्जितकोकिलमञ्जुमते
मिलितपुलिन्द मनोहरगुञ्जित रञ्जितशैलनिकुञ्जगते ।
निजगणभूत महाशबरीगण सद्गुणसम्भृतकेलितले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनिशैलसुते ॥ १५ ॥
कटितटपीत दुकूलविचित्र मयुखतिरस्कृतचन्द्ररुचे
प्रणतसुरासुर मौलिमणिस्फुर दंशुलसन्नखचन्द्ररुचे
जितकनकाचल मौलिमदोर्जित निर्भरकुञ्जरकुम्भकुचे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनिशैलसुते ॥ १६ ॥
विजितसहस्रकरैक सहस्रकरैकसहस्रकरैकनुते
कृतसुरतारक सङ्गरतारक सङ्गरतारक सूनुसुते।
सुरथसमाधि समानसमाधि समाधिसमाधिसुजातरते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनिशैलसुते ॥ १७ ॥
पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनंसुशिवे
अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः सकथं न भवेत् ।
तव पदमेव परम्पदमित्यनुशीलयतो मम किं नशिवे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनिशैलसुते ॥ १८ ॥
कनकलसत्कलसिन्धुजलैरनुषिञ्चतितेगुणरङ्गभुवम्
भजति स किं नशचीकुचकुम्भतटीपरिरम्भसुखानुभवम् ।
तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणिनिवासि शिवम्
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनिशैलसुते ॥ १९ ॥
तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं सकलं ननुकूलयते
किमु पुरुहूतपुरीन्दु मुखी सुमुखीभिरसौविमुखीक्रियते ।
मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमुतक्रियते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनिशैलसुते ॥ २० ॥
अयि मयि दीन दयालुतया कृपयैव त्वयाभवितव्यमुमे
अयि जगतो जननी कृपयासि यथासितथानुमितासिरते ।
यदुचितमत्र भवत्युररीकुरुतादुरुतापमपाकुरुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनिशैलसुते ॥ २१ ॥
।