बुझती है पूर्वजों की प्यास, जब करते हैं तर्पण और श्राद्ध, इस बार हुई पितृपक्ष की तिथि कम
लखनऊ: अपने पूर्वजों को याद करने और उनकी अतृप्त आत्मा को शांत करने के लिए हमारे धर्म शास्त्रों में बहुत से उपाय बताए गए हैं, जिन्हें श्राद्ध कहा जाता है और जो एक धार्मिक क्रिया है। इसे तर्पण भी कहते हैं। ये अश्विन मास के कृष्ण पक्ष में 14, 15 या 16 दिनों का होता है। कहते हैं कि श्राद्ध करने से पितरों की आत्मा प्रसन्न होती है और उनका आशीर्वाद बना रहता है। हर साल हिंदू तिथि में श्राद्ध की शुरुआत अश्विन मास के प्रतिपदा तिथि से होती है और समाप्ति अमावस्या को होती है। इस साल तिथि के घटने से श्राद्ध एक दिन कम हो गए हैं। इसलिए इस बार पितृ पक्ष 14 दिनों का होगा। ये 6 सितंबर से शुरू होकर 19 सितंबर को खत्म हो जाएगा।
पं.ए.के चरण पहाड़ी के अनुसार जानते हैं कि श्राद्ध और उसकी तिथियों को बारे में...पितृ पक्ष के दौरान पूर्वजों की आत्मा की मुक्ति के लिए जो भी क्रियाएं करते हैं, उसे श्राद्ध कहते हैं। माना जाता है कि मृत्यु के पश्चात हमारे पितर इन दिनों स्वर्गलोक से भूलोक आते हैं और अपना आशीर्वाद देते हैं।
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6 सितंबर - बुधवार, प्रतिपदा (श्राद्ध की शुरूआत) ।
7 सितंबर - गुरुवार, द्वितीया।
8 सितंबर - शुक्रवार, तृतीया।
9 सितंबर - शनिवार, चतुर्थी
10 सितंबर - रविवार, पंचमी, महा भरणी।
11 सितंबर - सोमवार, षष्ठी ।
12 सितंबर - मंगलवार, सप्तमी।
13 सितंबर - बुधवार, अष्टमी ।
14 सितंबर - गुरुवार, नवमी ।
15 सितंबर - शुक्रवार, दशमी।
16 सितंबर - शनिवार, एकादशी ।
17 सितंबर - रविवार, द्वादशी।
18 सितंबर - सोमवार, त्रयोदशी, चतुर्दशी, मघा श्राद्ध।
19 सितंबर - मंगलवार, सर्वपित्र अमावस्या।
6 सितंबर को 12:32 मिनट से समाप्ति - 7 सितंबर को 11:52 मिनट पर कुतुप मुहूर्त - दोपहर 12 बजे से 12:4 ।और अमावस्या की शुरुआत 19 सितंबर 11:52 मिनट से अंत - 20 सितंबर 10:59 मिनट पर कुतुप मुहूर्त - सुबह 11:56 मिनट से दोपहर 12:44 मिनट तक रौहिण मुहूर्त - दोपहर 12:44 से 1:32 तक अपरह्न काल - दोपहर 1:32 मिनट से 3:57 मिनट तक।
कैसे करते हैं श्राद्ध की प्रक्रिया
किसी व्यक्ति या रिश्तेदार की अकाल मृत्यु हो ,तो उन्हें पितृ पक्ष की चतुर्थी को आत्माशांति के लिए श्राद्ध करना चाहिए। पिता के श्राद्ध के लिए अष्टमी तिथि उत्तम होती है। वहीं माता के लिए की जाने वाली क्रिया नवमी तिथि।
साधु-संतों का श्राद्ध द्वादशी को करना चाहिए।अगर आपको अपने पूर्वजों की मृत्यु तिथि याद नहीं है, तो उनका श्राद्ध अमावस्या को कर सकते हैं। इस दिन को सर्व पित्र श्राद्ध का नाम दिया जाता है, क्योंकि इस दिन आप किसी भी पितर का श्राद्ध कर सकते हैं।
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किसी भी तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करना उत्तम होता है। किसी प्रसिद्ध तीर्थ स्थान, संगम व नदी के पास जाकर वहां मौजूद पंडित से श्राद्ध पूजन कराना सर्वोत्तम होता है। अगर घर में स्वयं ये प्रक्रिया करनी है तो अपने पूर्वजों की मृत्यु तिथि पर श्राद्ध पूजन दोपहर 12:24 मिनट तक कर लेना चाहिए।
श्राद्ध और पिंडदान से जु़ड़ी बातें...
श्राद्ध से पहले कुछ बातों का ध्यान भी रखना चाहिए। मिट्टी के घर में पितरों की फोटो वाले स्थान को गाय के गोबर से लीपकर और पक्के मकान में उस स्थान पर गौ मूत्र का छिड़काव श्राद्ध से पहले करें। फिर पूर्वज की तस्वीर पर सफेद फूलों की माला चढ़ाएं। ध्यान रहें कि पितृ पक्ष पूजन में लाल फूल व कुमकुम का इस्तेमाल न किया जाए।
पितरों की आत्मा की शांति के लिए हवन करें। अग्नि में पितरों को दूध, दही, घी, तिल व खीर अर्पण करें। हाथ में कुश, तिल और जल लेकर दक्षिण की ओर मुंह कर लें और उनकी मोक्ष प्राप्ति के लिए संकल्प लें। फिर पूर्वजों के लिए बनाएं गए भोजन के पांच हिस्से निकालें। इसमें एक गाय, कुत्ता, कौआ, चींटी और देवता का भाग होगा।
इसके बाद घर में एक या तीन व इससे अधिक ब्राह्मण को भोजन कराएं। यदि ब्राह्मण घर न आएं तो आप किसी मंदिर में जाकर भी उनका हिस्सा दान कर सकती हैं। भोजन के बाद उन्हें दक्षिणा जरूर दें।
श्राद्ध और पिंडदान से जु़ड़ी बातें...
पिंडदान का महत्व
धार्मिक ग्रंथों के अनुसार पितरों की संतुष्टि के लिए पिंडदान जरूरी माना गया है। माना जाता है कि मृत्यु के बाद भी आत्मा सांसारिक मोह माया से अलग नहीं हो पाती। इसलिए वह प्रेत लोक में भी भटकती रहती है। आत्मा को पितृलोक भेजने के लिए पिंडदान (सपिंडन) करना चाहिए। पिंडदान में पके चावल, आटा, घी एवं तिल को मिलाकर उसके पांच पिंड बनाने चाहिए।
क्रिया पुरूषों द्वारा ही किया जाना चाहिए। इसे पुत्र, पोता, नाती, भाई, भतीजा, चाचा के लड़के एवं खानदान की 7 पुश्तें कर सकती हैं। श्राद्ध के समय धोती पहननी चाहिए और ऊपरी हिस्से में कोई वस्त्र नहीं पहनना चाहिए।
गरुण पुराण के अनुसार मृत्यु के तेरह दिन बाद शरीर से निकली आत्मा यमनपुरी पहुंचने के लिए निकलती है। ये भूख और प्यास से ग्यारह महीने तक भटकती है। फिर बारहवें महीने में वह यमनपुरी (यमराज के दरबार) पहुंचती है। इसलिए माना जाता है कि तर्पण व पिंडदान से आत्मा को संतुष्टि मिलती है।