लखनऊ: किसी भी कार्य को शुरू करने के लिए जहां शुभ योग और मुहूर्त की जरुरत होती है, वहीं समय (काल) का भी ध्यान रखा जाता है। ऐसा ही एक काल भद्रा होता है। भद्रा काल में कोई भी शुभ काम पूरी तरह से वर्जित होते हैं। जो भी इसमें मांगलिक कार्य करता है, उसे केवल अमंगल का ही सामना करना पड़ता है। यानि मांगलिक कार्य करने वाले व्यक्ति को भद्रा जीवन भर परेशान करती रहती है।
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ज्योतिषाचार्य आचार्य सागर जी महाराज के अनुसार भद्रा भगवान सूर्य देव की पुत्री और शनिदेव की बहन है। भविष्यपुराण के अनुसार इनका रूप अत्यंत भयंकर है इनके उग्र स्वभाव को नियंत्रण करने के लिए ब्रह्मा जी ने इन्हें काल गणना का एक अहम स्थान दिया। ब्रह्मा जी ने ही भद्रा को ये वरदान दिया है कि जो मनुष्य़ उनके समय में मांगलिक कार्य करेगा, उसे भद्रा अवश्य परेशान करेगी। आज भी कई ज्योतिष भद्रा काल में शुभ कार्य वर्जित मानते हैं।
ऐसे बचें भद्रा काल के दुष्प्रभावों से
भद्रा के दुष्प्रभावों से बचने के लिए रोज सवेरे उठकर भद्रा के 12 नामों का स्मरण करना चाहिए। विधिपूर्वक भद्रा का पूजन करना चाहिए। भद्रा के, 12 नामों का स्मरण और उसकी पूजा करने वाले को भद्रा कभी परेशान नहीं करतीं और भक्तों के कार्यों में कभी विघ्न नहीं पड़ता। भद्रा के12 नाम है- धन्या, दधिमुखी, भद्रा, महामारी, खरानना, कालरात्रि, महारुद्रा, विष्टि, कुलपुत्रिका, भैरवी, महाकाली और असुरक्षयकारी।
क्या है भद्रा?
वर्ष मासो दिनं लग्नं मुहूर्तश्चेति पन्चकम।
कालस्यागानि मुख्यानि प्रबलान्युत्तरोत्तरम॥
लग्नं दिनभवं हन्ति मुहूर्तः सर्वंदूषणम।
तस्मात शुद्धि मुहूर्तस्य सर्वकार्येषु शस्यते॥
अर्थात मास श्रेष्ठ होने पर साल का, दिन श्रेष्ठ होने पर मास का, लग्न श्रेष्ठ होने पर दिन का और मुहूर्त श्रेष्ठ होने पर लग्नादि तक सभी का दोष मुक्त हो जाता है।
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अतः शुभ कार्यों में मुहूर्त का विशेष महत्व है। मुहूर्त की गणना के लिए पंचांग का होना अति आवश्यक है। तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण इन पांच अंगों को मिलाकर ही पंचांग बनता है। करण पंचांग का पांचवा अंग है। तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं। तिथि के पहले आधे भाग को प्रथम करण और दूसरे आधे भाग को द्वितीय करण कहते हैं। इस प्रकार १ तिथि में दो करण होते हैं। करण कुल 11 प्रकार के होते हैं इनमें से 7 चर और 4 स्थिर होते हैं।
चर करण-बव, बालव, कौलव, तैतिल,गर, वणिज और विष्टि (भद्रा)। स्थिर करण-शकुनि, चतुष्पद, नाग, किंस्तुध्न।
इसमें विष्टि करण को ही भद्रा कहते हैं। समस्त करणों में भद्रा का विशेष महत्व है। शुक्ल पक्ष 8,15 तिथि के पूर्वाद्ध में और4 ,11 तिथि के उत्तरार्द्ध में और कृष्ण पक्ष के 3, 10 तिथि के उत्तरार्द्ध और 7,14 तिथि के पूर्वाद्ध में भद्रा रहती है अर्थात विष्टि करण रहता है।
पूर्वाद्ध की भद्रा दिन में उत्तरार्द्ध की भद्रा रात्रि में त्याज्य होती है। ये विशेष बात ये है कि भद्रा का मुख भाग ही त्याज्य है जबकि पुच्छ भाग सब कार्यों में शुभ फलप्रद है। भद्रा के मुख भाग की 5 घटियां अर्थात 2 घंटे त्याज्य है। इसमें किसी भी प्रकार का शुभकार्य करना वर्जित है। पुच्छ भाग की 3 घटियां अर्थात 1 घंटा 12 मिनिट शुभ हैं।
सोमवार और शुक्रवार की भद्रा को कल्याणी, शनिवार की भद्रा को वृश्चिकी, गुरूवार की भद्रा को पुण्यवती और रविवार,बुधवार, मंगलवार की भद्रा को भद्रिका कहते हैं। इसमें शनिवार की भद्रा विशेषत: अशुभ होती है।