लखनऊ: हिन्दू धर्म में कोई भी पूजा या अनुष्ठान तब तक संपन्न नहीं होता, जब तक उसके अंत में हवन नहीं होता है। आपने अक्सर देखा होगा कि किसी भी पूजा पाठ के अंत में हवन किया जाता है, कोई भी शुभ कार्य हो घर में हवन कराना जरूरी होता है। हवन के दौरान हम सब आहुति देते हुए 'स्वाहा' शब्द का उच्चारण करते हैं। लेकिन कभी आपने सोचा है कि यज्ञ और हवन के दौरान हमेशा 'स्वाहा' ही क्यों बोला जाता है? क्या महत्त्व होता है 'स्वाहा' शब्द का? प्राचीन समय से ही यज्ञ वेदी में हवन सामग्री डालने के दौरान 'स्वाहा' का बोला जाता था।
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सबसे पहले इस बात पर चर्चा हुई थी कि आखिर हवन सामग्री को देवताओं के पास कैसे पहुंचाया जाए. तमाम चिंतनों के बाद आखिरकार देवाताओं तक सामग्री को पहुंचाने के लिए अग्नि को सर्वश्रेष्ठ माध्यम माना गया, जिसके बाद 'स्वाहा' का जन्म हुआ
ऋग्वेद में वर्णित यज्ञीय परंपरा के अनुसार देवताओं देव आह्वान के साथ-साथ स्वाहा का उच्चारण कर हवन सामग्री को अग्नि में डाला जाता है. इसका अर्थ यह है कि हवन सामग्री (हविष्य) को अग्नि के माध्यम से देवी-देवताओं तक पहुंचाया जाता है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार, 'स्वाहा' दक्ष प्रजापति की पुत्री थीं, जिनका विवाह अग्निदेव के साथ किया गया था। अग्निदेव को हविष्यवाहक भी कहा जाता है। ये भी एक रोचक बात है कि अग्निदेव अपनी पत्नी स्वाहा के माध्यम से ही हवन ग्रहण करते हैं ।
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इसके अलावा मान्यताओं के अनुसार स्वाहा प्रकृति का ही एक स्वरूप थीं, जिनका विवाह अग्नि के साथ देवताओं के आग्रह पर सम्पन्न हुआ था। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं स्वाहा को वरदान देते हुए कहा था कि वे केवल उसी के माध्य से हविष्य को ग्रहण करेंगे अन्यथा नहीं।
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पौराणिक मान्यता है कि पूजा या अनुष्ठान के अंत में आहवान किए गए देवी-देवता के पसंद का भोग उन्हें दिया जाए। इसी के लिए अग्नि में आहुति दी जाती है और स्वाहा का उच्चारण किया जाता है।