लखनऊ: आज छह दिसंबर है। सियासत करने वालों में कुछ लोगों ने इसे 'शहादत' के रूप में तो कुछ ने इसे 'विजय पर्व' के तौर पर मनाने का चलन बदस्तूर 18 साल तक जारी रखा। 6 दिसंबर की घटना के ठीक 18 साल बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने एक अदालती फैसले के मार्फत इस भूखंड के मालिकाना हक के बाबत एक फैसला सुनाया।
30 सितंबर 2010 को जब यह फैसला आने वाला था तो सियासतदां और सियासत पसंद लोगों को यह लग रहा था कि मानो कयामत आ जाएगी। देश छह दिसंबर 1992, 30 अक्टूबर 1990 की तिथियों के समग्र दुष्प्रभाव को एक बार फिर जीने के लिए अभिशप्त हो उठा है। यह बात दीगर है कि रस्मी अमन-चैन के पैरोकार सियासतदां और सियासत-पसंद लोगों की यह आशंका, जो उनके लिए एक बार फिर शौर्य और शहादत का सबब बन सकती थी, निर्मूल साबित हुई। सुरक्षा के बड़े-बड़े बंदोबस्त किए गए थे। रेड अलर्ट और हाईअलर्ट जारी हुए थे। पर किसी की कोई जरूरत नहीं पड़ी।
30 सितंबर 2010 के फैसले को रुकवाने के लिए कांग्रेस के एक बड़े नेता ने रमेश चंद्र त्रिपाठी नाम के एक शख्स से संपर्क कर यह फैसला ना आए इस बाबत सुनवाई के लिए एक याचिका दाखिल करा दी। उसमें यह आशंका जताई गयी थी कि फैसले के बाद अनेकता में एकता के भारतीय तंतु और साझी विरासत की संस्कृति टूटने के हालात पैदा होंगे।
तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी एक बड़े अंग्रेजी अखबार से फैसले के पहले कहा था, इस फैसले के दिन और उसके बाद जिस तरह के हालात होंगे उसका देश के विकास पर गहरा असर पड़ेगा। हालांकि मेरी निजी इच्छा थी कि फैसला आना चाहिए। मैंने कांग्रेस के उस बड़े नेता से एयरपोर्ट पर अचानक हुई मुलाकात में इल्तिज़ा की थी देश के लिए इस फैसले का आऩा बेहद जरूरी है। आप इसे मत रोकें यह देश का लिट्मस टेस्ट है। जिसका एक बार हो जाना अनिवार्य है। हालांकि उन्होंने मेरी नहीं सुनी अदालत ने रमेश चंद्र त्रिपाठी की अर्जी निपटाते हुए फैसला सुनाया। मैंने कांग्रेस के इन नेता से बातचीत करते हुए यह भी आग्रह किया था कि इस लिट्मस टेस्ट में यह देखना जरूरी है कि आखिर हमारी नई पीढ़ी मान्यताएं परम्पराएं सोच और एजेंडे कितने बदले हैं। बदले हैं अथवा नहीं बदले हैं। उनकी जरूरतें, उनके सपने, उनकी उम्मीदों में क्या परिवर्तन आया है।
6 दिसंबर 1992 को पैदा हुई पीढी 18 साल उम्र पूरी करने वाली थी। व्यस्क मताधिकार के मार्फत उसे लोकतंत्र में हस्तक्षेप का हक मिलने वाला था। यही नहीं 1992 से अब तक पैदा हुए हमारे बच्चे क्या अभी भी लकीर पीटने को तैयार बैठे हैं। क्या वे दोनों धर्मों के कठमुल्लों की बात को अनसुनी करने का साहस नहीं रखते हैं। क्या रोजी-रोटी और विकास से धर्म का आकार बडा हो गया है। क्या भाईचारा और सांप्रदायिक सौहार्द को अब भी धर्म की आरी काटने में सक्षम हो सकेगी। ऐसे अनंत सवालों के जवाब मेरे ही नहीं दूसरे लोगों के भी इस फैसले से आने थे।
खुफिया एजेंसियों ने खूब अटकलें लगाई थी। कई इनपुट भेजे थे। कई अंदेशे जताए गए थे। इस कालखंड तक आतंकी संगठनों ने भी देश में ठीक से पैर पसार लिया था। आतंकी संगठनों ने अपनी गतिविधियों के लिए देशी माड्यूल इस्तेमाल करने पर भी अमल शुरू कर दिया था। यह भी एक तथ्य है कि देश में किसी ऐसे बडे आतंकी या आतंकी हमले के सुराग और तार उत्तर प्रदेश से न जुड़े हों। ऐसे में आशंकाओं का उमड़ना घुमड़ना, अंदेशों से ड़र जाना, अनहोनी को लेकर सहम जाना आम होता है। उन दिनों हुआ भी। लेकिन हम भारत के लोग खासकर युवा इस लिटमस टेस्ट पास हुए।
हमने प्रतिमान गढ़े। दुनिया के सामने एक नज़ीर पेश की। बताया कि साझी संस्कृति और साझी विरासत की परंपरा भारतीयता की अक्षुण्य धरोहर है। भाईचारा, सांप्रदायिक सौहार्द इसके वे तंतु हैं जो विवधता में एकता को न सिर्फ बांधते हैं बल्कि अटूट भी बनाते हैं। पूरे देश में कहीं बवाल तो छोडिये कोई हो हल्ला तक नहीं मचा। सारी अटकलें आशंकाएं धरी रह गईं। एक नया इतिहास लिखा गया। हालांकि 2010 से 2016 में भी शहादत और विजय पर्व का चलन जारी है लेकिन मनाने और करने वाले लोग पराजित मानसिकता से रस्मी चलन के तहत सिर्फ अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं।
30 सितंबर 2010 ने यह साबित कर दिया है कि युवा पीढी अब धर्मांता से ऊपर आ गई है। रुढिवादिता से बाहर निकल आई है। कठमुल्लों को नकारने की उऩमें शक्ति आ गई है। उसकी आंखों में विश्व ग्राम का सपना सिर्फ ख्वाब नहीं है। उसे वह हकीकत में तब्दील करना चाहता है। दिलचस्प यह है कि यह बदलाव उसने सिर्फ खुद में नहीं किया है बल्कि उस पूरे माहौल में करके दिखाया है जो कल तक यौमे शहादत और विजय पर्व का हिस्सा होता था। जो चंद मुट्ठी भर लोगों के चलते हर 6 दिसंबर 1992 के दिन मातम का सबब बनता था। युवाओं ने अगर इस बदलाव को सिर्फ खुद तक ही सीमित रखा होता तो शायद रेखांकित करने वाला यह बदलाव नहीं कहा जाता।
यह पुनः उल्लेखनीय नहीं रह जाता क्योंकि बाकी शक्तियां जो करती आ रही थीं वह करने में कामयाब होकर इन्हें पराजित कर सकती थीं। पर, 30 सितंबर 2010 इन सब पर विजय का एक दिवस है। भारतीय संस्कृति के अक्षुण्य रहने का पर्व है। भाईचारा, सांप्रदायिक सौहार्द की तिथि है। जो यह बताती है कि युवाओं ने अपने एजेंडे बदल लिए हैं। देश के लोगों ने पुराने एजेंडे की ओर पीठ कर ली है। अतीत की वह चीजें जो उन्हें सालती है उन्हें बेताल की तरह वे कंधे पर सवार होने की अनुमति देने को तैयार नहीं हैं।
30 सिंतबर 2010 को आए 8,000 पन्नों के अपने फैसले में तीन सदस्यीय पीठ भी रामलला की इस भूखंड के बाबत बंटवारे का कोई निर्णायक फैसला सिर्फ इसलिए नहीं दे सकी क्योंकि भारत में पीढियों से एक साथ रहते-सहते आ रहे लोगों को बांटना सचमुच आसान नहीं है। अब तक जो कोशिशें हुई भी वह काटने और छांटने की थी बांटने की नहीं। ऐसे में हमें क्यों नही अब 30 सितंबर 2010 का जश्न नहीं मनाना चाहिए, क्यों नहीं हमें इस दिन को संस्कृति पर्व के रुप में मनाना चाहिए। जिस दिन ने देश की तारीख में एक नया सुनहरा अध्याय जोड़ा। जिस दिन ने तमाम मौकापरस्त, फिरकापरस्त ताकतों को बिना किसी संघर्ष के पराजित किया। जिसने एक नए भारत के नए संदर्भ गढ़े। जिसने तमाम अनकहे को आकार दिया। मुट्ठी भर कहे को परास्त किया ऐसे दिन को हमें राष्ट्रीय महत्व के दिवस के रूप में मानना चाहिए।
आइए इस साल से इसका जश्न मनाएं और इस दिन को जो विजय संदेश हासिल हुए उसे फैलाएं आगे बढाएं। यह हमारी उस युवा पीढ़ी को मदद भी होगी और देश के लिए योगदान भी तो फिर इस बार छह दिसंबर 1992 और 30 अक्टूबर 1990 की यादों, स्मृतियों, वेदनाओं और भोगे हुए कडवे यथार्थ को 30 सितंबर 2010 को लिखी नई इबारत से वर्तमान का नवविहान बना दें।