आशुतोष सिंह
वाराणसी: विंध्य की पहाडिय़ों और सोन नदी के किनारे बसे सोनभद्र जिले को सोनांचल भी कहा जाता है। इसके पीछे वजह भी है। अवैध खनन के खेल के लिए कुख्यात सोनभद्र को पूर्वांचल का सबसे मलाईदार जिला माना जाता है। पहाड़ों और जंगलों से घिरे इसे जिले में जमीन की कीमत हर किसी को मालूम है। शायद यही कारण है कि 17 जुलाई की दोपहर में घोरावल के उम्भा गांव में 112 बीघा जमीन के लिए ऐसा खूनी संघर्ष हुआ, जिसकी गूंज दिल्ली तक सुनाई दी। जमीन पर कब्जे के लिए हथियारों से लैस लोगों ने 10 आदिवासियों को मौत की नींद सुला दी, जबकि एक दर्जन से अधिक लोग अभी भी जिंदगी और मौत से जूझ रहे हैं।
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इस घटना के बाद उत्तर प्रदेश में सियासत चरम पर है। लोकसभा चुनाव में मात खाने वाली पार्टियां अब सोनभद्र हिंसा के सहारे संघर्ष के रास्ते पर आगे बढऩे की कोशिश कर रही हैं। दूसरी ओर बीजेपी उनके मंसूबे को नाकामयाब करने में जुटी हुई है। कुल मिलाकर सोनभद्र सियासत का नया अखाड़ा बन चुका है, जिसमें हर पार्टी हाथ आजमाना चाहती है। जानकार बता रहे हैं कि सोनभद्र में जमीन को लेकर नरसंहार जरूर नया है, लेकिन कागजों की हेराफेरी कर जमीन हड़पने का खेल पुराना है। इस खेल में नेता से लेकर नौकरशाहों की लंबी फेहरिश्त है, जिनके ऊपर समय-समय पर आरोप लगते रहे हैं।
प्रधान को मिला था राजनीतिक संरक्षण
उम्भा गांव में हुए जमीनी विवाद में दस लोगों की हत्या के बाद पूर्व आईएएस प्रभात मिश्रा के अलावा ग्राम प्रधान यज्ञदत्त को संरक्षण देने वाले एक सांसद का नाम भी सामने आ रहा है। बताया जा रहा है कि लोकसभा चुनाव के पहले यज्ञदत्त समाजवादी पार्टी का सक्रिय कार्यकर्ता था। अखिलेश शासनकाल में उसे कई ठेके भी मिले थे। यज्ञदत्त पूर्व विधायक रमेश चंद्र दुबे का काफी करीबी भी रहा है। वहीं दूसरी ओर जमीन की खरीद-फरोख्त के पीछे एसपी-कांग्रेस के बड़े नेताओं के नाम सामने आए हैं। विवादित जमीनों की चल रही जांच में बीएसपी के कई जनप्रतिनिधियों की भी करतूत उजागर हो गई है। जिस जमीन को लेकर खूनी संघर्ष हुआ उसमें बिहार के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और यूपी के पूर्व राज्यपाल चंद्रशेखर प्रसाद नारायण सिंह के चाचा और कांग्रेस के राज्यसभा सांसद रहे महेश्वर प्रसाद नारायण का नाम पहले ही सामने आ चुका है। पूर्व सांसद छोटेलाल खरवार ने घटना को लेकर कई चौंकाने वाले खुलासे किए हैं। उन्होंने कहा कि अगर इस घटना की सही तरह से जांच हो जाए तो कई नेता और नौकरशाह बेपर्दा हो जाएंगे। उन्होंने सवाल उठाते हुए कहा कि जिस जमीन पर आदिवासी पिछले तीन पुश्तों से खेती कर रहे थे आखिर उस जमीन को कैसे कोई दूसरा खरीद सकता है? उन्होंने आरोप लगाया कि स्थानीय जिला प्रशासन की मर्जी के बगैर इतना बड़ा घोटाला आखिर कैसे हुआ। इस घटना में एसडीए, लेखपाल और कानूनगो सहित राजस्व विभाग के अधिकारी शामिल थे।
लंबे समय से चल रहा था कब्जे का खेल
सोनभद्र में जमीन का क्या पूरा खेल है। क्यों आखिर यहां की जमीन नौकरशाहों और नेताओं के लिए साफ्ट टारगेट रही है। उसकी सबसे बड़ी नजीर है घोरावल के उम्भा गांव में हुई घटना। उम्भा गांव में जिस जमीन को लेकर नरसंहार हुआ, उसके जड़ में भी नौकरशाह रहे हैं। आजादी के बाद 1955 में बिहार के एक आईएएस ने उम्भा गांव की 632 बीघा जमीन रियासत से ली। इसके बाद तहसीलदार राबट्र्सगंज ने इस जमीन को आदर्श कोऑपरेटिव सोसाइटी के नाम कर दिया। हालांकि इसके बाद 1966 में सहकारिता समिति अधिनियम के तहत ग्राम सभा के नाम हो गई। बताया जा रहा है कि इसके बाद उम्भा गांव के ग्रामीण इस जमीन पर खेती-बाड़ी करते थे। यह सिलसिला अस्सी के दशक के आखिरी सालों तक चला। यह वो दौर था जब सोनभद्र मिर्जापुर जिले के अंतर्गत आता था। बताया जाता है कि प्रभात मिश्रा ने उम्भा गांव की जमीन निकलवाई। इसके बाद 1989 में उन्होंने फर्जी तरीके से 632 बीघा जमीन अपनी पत्नी, बेटी और दामाद के नाम खरीद लिया।
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नौकरी से रिटायर होने के बाद उन्होंने जमीन पर कब्जा लेने की बहुत कोशिश की, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। बाद में उन्होंने 112 बीघा जमीन उम्भा गांव के प्रधान यज्ञदत्त को बेच दी। प्रभात मिश्रा की तरह यज्ञदत्त ने भी जमीन पर कब्जा करने की कोशिश की, लेकिन जब कामयाबी हाथ नहीं लगी तो वह खूनखराबा पर उतारू हो गया। उम्भा गांव की यह जमीन दो साल पहले तब चर्चा में आई जब ग्राम प्रधान ने इस जमीन को खरीद लिया। गांव वालों की ओर से वकील नित्यानंद द्विवेदी बताते हैं कि दो साल पहले तक पूरी जमीन आदर्श कोऑपरेटिव सोसाइटी के नाम से थी और इन आदिवासियों को सोसाइटी के लोगों ने इस भ्रम में रखा था कि आप लोग भी मेंबर हो और खेती करके उसका कुछ हिस्सा सोसाइटी को दिया करो।
आदिवासी पीढिय़ों से ऐसा ही करते चले आए थे, लेकिन दो साल पहले सौ बीघा जमीन खरीदने के बाद प्रधान अपना अधिकार जताने लगे। इस जमीन से जुड़े तमाम सवालों के जवाब अधिकारियों के पास भी नहीं हैं। राज्य सरकार ने घोरावल तहसील के तमाम अधिकारियों को घटना के बाद ही निलंबित कर दिया था, लेकिन जमीन से जुड़े तमाम सवालों के जवाब अब तक नहीं मिल सके हैं। सरकार ने इसके विभिन्न पहलुओं की उच्चस्तरीय जांज कराने के आदेश दिए हैं।
कई और सफेदपोशों पर आरोप
उम्भा गांव के अलावा कई और गांव हैं जहां की जमीन पर सफेदपोशों ने कब्जा जमा रखा है। इन जमीनों पर दशकों से आदिवासियों का कब्जा था, लेकिन कागजों की हेराफेरी कर रसूखदार उसे अपने नाम करवा लेते हैं। रेनुकूट डिवीजन के गांव जोगेंद्रा में बीएसपी सरकार के एक पूर्व मंत्री ने वन विभाग की 250 बीघा जमीन पर कब्जा कर रखा है। इसी तरह से सोनभद्र जिले के गांव सिलहट में एसपी के एक पूर्व विधायक ने 56 बीघा जमीन का बैनामा अपने भतीजों के नाम करवा दिया। ओबरा वन प्रभाग के वर्दिया गांव में एक कानूनगो ने अपने पिता के नाम जमीन कराई और बाद में उसे बेच दिया।
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घोरावल रेंज के धोरिया गांव में ऐसे ही एक रसूखदार ने 18 बीघा जमीन 90 हजार रुपये में खरीदी। इसकी आड़ में और भी जमीन कब्जा ली। ओबरा वन प्रभाग के बिल्ली मारकुंडी में जंगल विभाग की जमीन पर पेट्रोल पंप बनाने का मामला कोर्ट में विचाराधीन है। चुर्क में एक कॉलेज बनाने के लिए वन विभाग की जमीन ली गई।
एवज में ग्राम सभा की जमीन दिखाकर जो जमीन दी गई, जांच में वह भी वन विभाग की ही निकली। अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) नियमावली-2007 के तहत 13 दिसंबर 2005 से पहले से काबिज व्यक्ति को भूमिधर अधिकार देने की व्यवस्था की गई है मगर सरकारी कर्मचारियों की मिलीभगत से इस कानून का गलत इस्तेमाल बड़े पैमाने पर हो रहा है।
साल-दो साल पहले आए लोगों को भी 2005 या उससे पहले से काबिज दिखाकर जंगल की जमीन खुर्द-बुर्द की जा रही है। जानकारों का कहना है कि जब तक वन विभाग, खनन और राजस्व विभाग, तीनों मिलकर जमीन का स्पष्ट सीमांकन नहीं करते, यह समस्या बनी रहेगी।
सियासत का नया अड्डा बना सोनभद्र
उम्भा कांड के बाद सोनभद्र सियासत का नया अड्डा बन गया है। इस घटना के बहाने विरोधी यूपी सरकार को घेरने में लगे हुए हैं। इसकी शुरुआत प्रियंका गांधी के दौरे से हुई। प्रियंका गांधी वाराणसी के बाबतपुर एयरपोर्ट पर उतरने के बाद सीधे ट्रामा सेंटर पहुंचीं। यहां सोनभद्र हिंसा के पीडि़तों से मिलने के बाद वे उम्भा गांव के लिए निकल पड़ीं।
किसी को नहीं पता था कि उनका यह दौरा यूपी की सियासत में तूफान खड़ा कर देगा। नारायणपुर के पास जिला प्रशासन ने उन्हें सोनभद्र जाने से रोक दिया। इसके बाद तो बखेड़ा शुरू हो गया।
प्रियंका गांधी की अगुवाई में कांग्रेसी कार्यकर्ता धरने पर बैठ गए। इस बीच काफी देर तक जिला प्रशासन और प्रियंका गांधी के बीच बातचीत चलती रही। आखिर में जिला प्रशासन प्रियंका गांधी को अपने साथ चुनार गेस्ट हाउस ले गई औऱ फिर शुरू हुई धरना पॉलिटिक्स।
हिट रहा प्रियंका का धरना
सोनभद्र नरसंहार को लेकर धरने पर बैठी प्रियंका गांधी का ऐसा रूप और ऐसा अंदाज शायद पहले कभी नहीं दिखा। सोनभद्र हिंसा के पीडि़तों से मिलने पर अड़ी प्रियंका ने 40 डिग्री तापमान और बेहिसाब उमस की भी परवाह नहीं की। प्रियंका पूरे 26 घंटे तक चुनार किले में बने गेस्ट हाउस में कार्यकर्ताओं के साथ डटी रहीं। वे तब तक डटी रहीं जब तक उनकी जिद के आगे मिर्जापुर जिला प्रशासन झुक नहीं गया। मिर्जापुर जिला प्रशासन को भी यह एहसास नहीं रहा होगा कि ये मामला इतना तूल पकड़ लेगा। अधिकारियों को लगा कि शायद दूसरे नेताओं की तरह प्रियंका गांधी भी रोके जाने के बाद फोटो सेशन कराएंगी और लौट जाएंगी। लेकिन प्रियंका तो कुछ और ही ठान कर दिल्ली से चली थीं।
सोनभद्र जाने से मना करने पर अधिकारियों ने गिरफ्तारी की बात कही तो प्रियंका का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया। उन्होंने निजी मुचलका भरने से इनकार कर दिया और साफ-साफ कह दिया कि पीडि़तों से मिले बिना हिलूंगी नहीं,चाहे मुझे जेल ही क्यों ना जाना पड़े। जब जिला प्रशासन ने सोनभद्र पीडि़तों को प्रियंका से मिलवाया तब कहीं जाकर पूरे मामले का पटाक्षेप हो पाया। प्रियंका गांधी के इस धरना पॉलिटिक्स को मीडिया में खूब कवरेज मिला। अब सपा और बसपा भी इस मामले में कूद पड़े हैं। दोनों दलों ने घटना की जांच के लिए अपना दल मौके पर भेजा और इसे भाजपा को दोषी बताया है।
सोनभद्र में क्यों बढ़ी जमीन की डिमांड
नक्सल प्रभावित सोनभद्र जिले में आदिवासियों की बड़ी आबादी है। यहां के अधिकांश जंगलों और खेतों में उनका कब्जा रहा है, लेकिन गरीबी और अशिक्षा के चलते आदिवासी हमेशा ठगे जाते रहे हैं। हाल के दिनों में जिस तरह से यहां पर अवैध खनन के काम ने जोर पकड़ा है, यहां देश के दूसरे हिस्सों से आने वालों की आमद बढऩे लगी है। कहते हैं कि यहां की जमीन सोना उगलती है। लिहाजा लोगों की नजरें आदिवासियों की जमीन पर होती है। पहले औने-पौने दाम पर लेने की कोशिश होती है और जब कामयाबी नहीं मिलती है तो फिर प्रशासनिक मिलीभगत से कागजों में हेरफेर कर जमीन हथिया ली जाती है। दूसरी ओर जानकारी और जागरुकता के अभाव में आदिवासी इस पूरी साजिश से बेखबर रहता है। उसे तो यह बात तब मालूम होती है जब उसकी जमीन पर कब्जा लेने के लिए लोग पहुंचते हैं। ऐसे वक्त में आदिवासी के सामने सिर्फ दो ही रास्ते बचते हैं या तो वह गोली मारे या फिर गोली खाए। सोनभद्र में क्रशर का काम जोरों पर होने से यहां जमीन की डिमांड बढ़ गई है।
बीजेपी ने बताया कांग्रेस का पाप
वहीं दूसरी तरह प्रियंका गांधी के धरने के बाद बीजेपी बैकफुट पर आ गई। घटना के शुरुआती दिनों में मुआवजे का मरहम लगाकर योगी सरकार ने मामले को रफा-दफा करने की कोशिश की, लेकिन जब प्रियंका गांधी धरने पर बैठीं तो मामले ने राजनीतिक रंग ले लिया। आनन-फानन में योगी सरकार ने घोरावल के एसडीएम, सीओ, एसएचओ, सहित दर्जनभर पुलिसवालों और प्रशासनिक कर्मचारियों को निलंबित कर अपनी साख बचाने की कोशिश की, लेकिन जिस तरह प्रियंका गांधी हमलावर थीउसके बचाव में सीएम योगी आदित्यनाथ को मैदान में उतरना पड़ा। योगी आदित्यनाथ को उम्भा गांव भी जाना पड़ा। योगी ने इस घटना के लिए कांग्रेस पार्टी को जिम्मेदार ठहरा दिया। उन्होंने कहा कि कांग्रेस के पापों की वजह से यह घटना हुई। उन्होंने कहा कि जिस वक्त जमीन में हेरफेर हुई, उत्तर प्रदेश के अंदर कांग्रेस की सरकार थी। कांग्रेस ने जानबूझकर मामले को लटकाए रखा।