लखनऊ: बोध के अभाव में पनपे अलगाव, आतंक, अस्थिरता और अव्यवस्था से जर्जरित आज का मानव समाज त्रस्त है, भयग्रस्त है। लोग आशंकित हैं कि पतन और विनाश का संजाल कहीं असमय ही उन्हें अपनी मृत्युपाश में न बांध ले। सामाजिक, राजनैतिक, आध्यात्मिक व सांस्कृतिक सभी ओर एक-सी स्थिति है।
चहुं ओर प्रश्न ही प्रश्न हैं, समाधान विहीन प्रश्न। इन व्यथापूर्ण क्षणों में व्याकुल मानव के हृदय में फिर से विश्व-गुरु के लिए पुन: पुकार उठ रही है। उन्हीं विश्व गुरु के लिए जिनकी वंदना में गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं, "वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकर रुपिणम्" यानी स्वयं बोधस्वरूप व शाश्वत गुरु स्वयं सृष्टि के सूत्र संचालक भगवान महाकाल हैं।
गुरु-शिष्य परंपरा भारतीय संस्कृति की ऐसी अनुपम धरोहर है, जिसकी मिसाल दुनिया भर में दी जाती है। यही परंपरा आदिकाल से ज्ञान संपदा का संरक्षण कर उसे श्रुति के रूप में क्रमबद्ध रूप से संरक्षित करती आई है। भारत को जगद्गुरु की उपमा इस कारण दी जाती है क्योंकि उसने न सिर्फ विश्व के मानव समाज का मार्गदर्शन किया वरन आदर्शों को जीवन में उतार कर प्रेरणास्रोत बना। गुरु व शिष्य के परस्पर महान संबंधों एवं समर्पण भाव द्वारा अपने अहंकार को गला कर गुरु कृपा प्राप्त करने के तमाम विवरण हमारे शास्त्रों में भरे पड़े हैं।
आज जिस तरह स्कूल-कॉलेजों में शिक्षा-दीक्षा दी जाती है वही काम प्राचीन काल में गुरुकुल करते थे। मगर पुरातन व आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में एक मूल अंतर है। जहां आज की शिक्षा दीक्षा घोर व्यावसायिक हो गई है, वहीं प्राचीन काल में विद्यादान का पुण्य कार्य ऋषि आश्रमों में पूरी तरह निःशुल्क होता था। शिक्षा पूर्ण होने पर शिष्य अपने गुरु को यथा सामर्थ्य गुरु दक्षिणा देते थे।
वहां गुरु यानी आचार्य अपने शिष्यों आज की तरह सिर्फ पुस्तकीय नहीं देते थे, अपितु शिक्षार्थी के व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास उनका लक्ष्य होता था। वे उनके समस्त स्वाभाविक गुणों को परिष्कृत करने के साथ उन्हें जीवन विद्या का प्रशिक्षण देकर भावी जीवन के लिए तैयार करते थे।
भारतीय संस्कृति में जीवनविद्या के पथप्रदर्शकों को भी गुरु के समकक्ष माना गया है। सहस्त्राब्दियों, सदियों का इतिहास गवाह है कि मानवी बुद्धि जब-जब भी भटकी है, कृष्ण, ईसा, बुद्ध, जरथुस्त्र, मुहम्मद, महावीर, महर्षि वेद व्यास व वाल्मीकि जैसे पथ प्रदर्शक उसे मार्गदर्शन देते रहे। उनके लिए जाति, धर्म व धरती के किसी भूखण्ड की सीमा अवरोध नहीं बनी, सृष्टि का कण-कण उनके प्रेमपूर्ण बोध से लाभान्वित हुआ। नाम-रूपों की भिन्नता के बावजूद देशकाल, परिस्थिति के अनुरूप समाधान का बोध कराती उनकी विश्वचेतना मुखरित हुई।
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अर्जुन को निमित्त बनाकर गीता ज्ञान से दिग्भ्रमित मानव को सत्पथ दिखाने और कौरवों के विनाशकारी आतंक से त्राण दिलाने वाले श्रीकृष्ण "कृष्णं वन्दे जगद्गुरुं" कहकर पूजित किए गए। दार्शनिक भ्रम जंजाल व मूढ़ मान्यताओं में उलझी-फंसी मनुष्यता को महर्षि व्यास ने समाधान के स्वर दिए। चार वेद, षड्दर्शन व 18 पुराणों के विशालतम विचारकोष को पाकर सनातन हिन्दू समाज ने उन्हें लोक गुरु की मान्यता दी और गुरु पूर्णिमा व्यास पूर्णिमा का पर्याय बन गयी।
हम सभी जानते हैं कि देश काल की परिस्थतियों के सापेक्ष सामाजिक विकृतियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं और उन्हें समाधान भी दिये जाते हैं। भगवान बुद्ध के समय यज्ञीय हिंसा की वाममार्गी असुरता का बोलबाला था। तो स्वामी दयानन्द के समय पाखण्डी अनाचार चहुंओर फैला हुआ था। स्वामी विवेकानन्द ने भारतीय संस्कृति की अनास्था के दुष्परिणाम देखे थे और महात्मा गांधी ने जनमानस में पराधीनता प्रिय निराशा को जड़ जमाए पाया था। हर महापुरुष ने अपनी अपनी तरह से इनसे मोर्चा लिया और समाज को प्रकाश की, उन्नत जीवन की राह दिखायी। इन सभी पथ प्रदर्शकों के प्रयास मूलतः एक ही सुधार प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होते हुए भी वाह्य दृष्टि से सर्वथा भिन्न थे।
भारतभूमि के वैदिक ऋषियों व सुकरात और कन्फ्यूशियस जैसे विश्व विख्यात तत्वदर्शी मनीषियों ने किसी युग में जिस जीवन पथ का सृजन किया था, वर्तमान युग में उस लुप्तप्रायः जीवन विद्या का पुनर्जीवन आचार्य श्रीराम शर्मा ने किया। प्रश्नों से आकुल वर्तमान समाज में उनका व्यक्तित्व समाधान का पर्याय बनकर अवतरित हुआ था। राष्ट्रनिष्ठ ब्राह्मणत्व की मर्यादा वाले अनुकरणीय व्यक्तित्व व समाधानपरक लेखनी से समाज में वैचारिक क्रांति को जन्म देने वाले इस महामानव की गिनती उन विरले प्रज्ञा पुरुषों में होती है, जिनमें ऋषित्व व मनीषा एकाकार हुई थी। उन्होंने लोकजीवन की विपन्न मानसिकता को गहराई से अनुभव किया और यही करुणा उनकी तपश्चर्या का आधार बनी।
अपनी रचनात्मक प्रतिभा के बलबूते समाधान की शोध में तत्पर हुए। उन्होंने धर्म पर लदे रूढ़ियों का आच्छादन तोड़ने और एक वर्ग तक सीमित मध्ययुग के तथाकथित दार्शनिक बुद्धिवाद के चक्रव्यूह को तोड़कर ज्ञान की सहज धारा से जन समान्य को लाभान्वित किया। सद्ज्ञान के प्रदाता गायत्री महामंत्र को सर्वसुलभ करने का महापुरुषार्थ करने वाले इस राष्ट्रनिष्ठ महामनीषी को समूचे देश के संत समाज व चिंतकों-मनीषियों ने 80 के दशक में एकस्वर में मां गायत्री के वरद पुत्र और युग के विश्वामित्र की उपाधियों से सम्मानित किया था।
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महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि आचार्यश्री के दार्शनिक विचारों का उद्देश्य बौद्धिक महत्वाकांक्षा से उपजे किसी मत या वाद की महत्ता का प्रतिपादन नहीं बल्कि जीवनभर किये गये महत्वपूर्ण प्रयोगों से प्राप्त निष्कर्षों का वितरण है। इसलिए उनके विचार मानवी अन्तःकरण में बोध का बीज अंकुरित करते हैं।
श्रीकृष्ण के जीवनकाल में उनके विचारों के प्रति सर्वथा समर्पित शिष्य वीरवर अर्जुन एवं मनीषी उद्धव थे। लेकिन विचारों की सार्वभौमिकता कुछ ऐसी थी कि आज हिन्दू जाति ही समूचा विश्व समाज कृष्णं वन्दे जगद्गुरुं कहकर उनकी अभ्यर्थना करता है। ईसा मसीह के भी जीवनकाल में सिर्फ 12 शिष्य थे, लेकिन आज ईसा और पैगम्बर मुहम्मद के विचार समूची दुनिया की आलोकित कर रहे हैं। जिस तरह क्रौंच पक्षी के वध से आहत होकर महर्षि वाल्मीकि ने रामायण की रचना कर लोकजीवन को मर्यादा, साहस, सूझ-बूझ एवं उज्ज्वल चरित्र वाले महानायक का आदर्श किया; महर्षि व्यास ने अपनी लेखनी से महाभारत युद्ध के उपरान्त विकल मनुष्यता को नवसृजन को प्रेरित किया।
वही भाव कालान्तर में रामानंद, संत कबीर, रविदास, संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, करपात्री महराज श्री श्री परमहंस, महर्षि रमण, अरविंद, लाहिड़ी महराज, देवरहा बाबा, श्री श्री योगानंद, दयानंद सरस्वती जैसे अनेक दिव्य संतों-मनीषियों के साथ आचार्य श्रीराम के स्वरों में भी तरंगित हुए। भारत को जीवन विद्या की धरती यूं ही नहीं कहा जाता। आज भी मोरारी बापू , डा. प्रणव पण्ड्या, श्री श्री रविशंकर, बीके शिवानी, जग्गी वसुदेव, रमेशभाई ओझा, मां अमृतानंदमयी, अवधूत बाबा शिवानंद आदि कई राष्ट्रनिष्ठ संत-मनीषी ज्ञान प्रवाह की भारतीय परम्परा के ध्वजवाहक बन कर समाज में समरसता व जीवनमूल्यों का बीजारोपण कर रहे हैं।
इनके बोधमय स्वरों में प्राच्य एवं पाश्चात्य चिन्तन की गंगा एवं यमुना का पवित्र संगम तो है ही, सरस्वती की मौलिकता भी गुप्त होते हुए भी प्रखर है। ये प्रकाश दीप अपनी वाणी से सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक प्रत्येक क्षेत्र में पनपने वाली समस्याओं का सार्थक समाधान प्रस्तुत कर तकनीक में भटके आज के मानव को, खोखली हो रही संस्कृति व सभ्यता को व तमाम सांसारिक व्यथाओं के भार से लड़खड़ाती मनुष्य जाति को सन्मार्ग दिखा रहे हैं। गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व पर इन पथ प्रदर्शकों को भावभरा नमन!