पहले पैरालिंपिक खेलों में जीते थे 5 मेडल, जीने के लिए मिलती है 300 रुपए पेंशन
कौशलेंद्र ने 1981 टोक्यो एबिलिंपिक यानी पैरालिंपिक खेलों में 1500 मीटर और 100 मीटर व्हील चेयर मुकाबलों में गोल्ड मेडल के अलावा 100 मीटर बाधा दौड़ में भी गोल्ड मेडल जीते थे। तब वह 16 साल के थे। 1982 में हॉन्ग कॉन्ग के फार ईस्ट ऐंड साउथ पैसिफिक खेलों में उन्होंने सिल्वर और ब्रॉन्ज मेडल जीते थे।
शाहजहांपुर: रियो पैरालिंपिक्स खेलों में तमिलनाडु के मरियप्पन थंगावेलु और नोएडा के वरुण भाटी ने मेडल जीत कर देश का परचम लहरा दिया। देश के गर्व इन खिलाड़ियों को केंद्र और राज्य सरकार ने पुरस्कारों से भी सम्मानित किया और धन से भी, जिसके वे अधिकारी हैं। लेकिन कई खिलाड़ी ऐसे भी हैं, जो देश का माथा ऊंचा करने के बाद भी पेट भरने तक के लिए तरस रहे हैं। इन्हीं में एक हैं तीन गोल्ड जीतने वाले कौशलेंद्र सिंह।
धन और संघर्ष
-रियो पैरालिंपिक 2016 के हाई जंप इवेंट में मरियप्पन थंगावेलु ने गोल्ड मेडल जीता, तो वरूण भाटी ने कांस्य पदक।
-मरियप्पन को तमिलनाडु सरकार ने 2 करोड़ और भारत सरकार के खेल मंत्रालय ने 75 लाख रुपए पुरस्कार की घोषणा की है।
-भाटी को उत्तर प्रदेश रसरकार ने 1 करोड़ और भारत सरकार के खेल मंत्रालय ने 30 लाख रुपए देने की घोषणा की है।
-लेकिन टोक्यो के पहले एबिलिंपिक खेलों में भारत के लिए 3 गोल्ड समेत 5 मेडल जीतने वाले खिलाड़ी कौशलेंद्र सिंह को 300 रुपए महीना मिलता है।
-मात्र 300 रुपए की पेंशन पाने के लिए भी कौशलेंद्र को 20 साल संघर्ष करना पड़ा।
रचा था इतिहास
-कौशलेंद्र ने 1981 टोक्यो एबिलिंपिक यानी पैरालिंपिक खेलों में 1500 मीटर और 100 मीटर व्हील चेयर मुकाबलों में गोल्ड मेडल के अलावा 100 मीटर बाधा दौड़ में भी गोल्ड मेडल जीते थे। तब वह 16 साल के थे।
-1982 में हॉन्ग कॉन्ग के फार ईस्ट ऐंड साउथ पैसिफिक खेलों में उन्होंने सिल्वर और ब्रॉन्ज मेडल जीते थे।
-तब के एबिलिंपिक्स को ही आज के क्राफ्ट और लाइफस्टाइल से जुड़ी प्रतिस्पर्धा के तौर पर देखा जाता है। एबिलिंपिक्स में विकलांगों के लिए खेल प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती थीं।
-राष्ट्रीय स्तर पर कई पदक जीतने वाले कौशलेंद्र सिंह का जन्म 23 दिसम्बर 1964 को जलालाबाद कस्बे में हुआ था। अब वह 51 साल के हो चुके हैं।
-बचपन से ही कौशलेंद्र सिंह की खेलों में रुचि थी। लेकिन 13 साल की उम्र में उनके साथ हादसा हो गया।
-एक पेड़ से गिरने के बाद उनकी कमर से नीचे के हिस्से ने काम करना बंद कर दिया।
जज्बा है, मदद नहीं
-लेकिन हादसे के बाद भी न तो कौशलेंद्र सिंह में खेलों का जुनून कम हुआ, न देश के लिए कुछ करने का जज्बा।
-दिल्ली की राष्ट्रीय प्रतियोगिता में प्रदर्शन के आधार पर उन्हें 1981 के टोक्यो पैरालिंपिक के लिए चुना गया था, जहां उन्होंने इतिहास रच दिया।
-कौशलेंद्र सिंह अब एक छोटे से कमरे में भाई के परिवार के साथ गुमनामी की जिंदगी गुजार रहे हैं।
-गुहार के बाद भी राज्य सरकार ने उन्हें किसी तरह की आर्थिक सहायता नहीं दी, सिवाय 300 रुपए महीना पेंशन के।
-अब वह युवा एथलीट्स को प्रशिक्षण देना चाहते हैं। आर्थिक रूप से टूटे खिलाड़ियों के लिए एक कोष भी बनाना चाहते हैं।
-लेकिन कौशलेंद्र सिंह मायूस हैं कि वाहवाही लूटने वाली सरकारें न आने वाले खिलाड़ियों के लिए कुछ करना चाहतीं, न पीछे छूट गए खिलाड़ियों के लिए।
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