यूपी में कभी भी थम सकते हैं, कबाड़ हो चुकी सिटी बसों के पहिये

Update:2017-08-11 18:02 IST

सुशील कुमार

मेरठ। उत्तर प्रदेश में मेरठ समेत सात शहरों में सिटी बसों के पहिए कभी भी जाम हो सकते हैं। वजह सिटी बस कर्मचारियों की हड़ताल नहीं बल्कि नगरीय परिवहन व्यवस्था का लगातार बढ़ता घाटा है। सच्चाई यही है कि उत्तर प्रदेश में सिटी बस की सर्विस चलाना अब सरकार के लिए घाटे का सौदा साबित हो रही है। इस समय यूपी के विभिन्न शहरों में 1140 सिटी बसें चलाई जा रही हैं।

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2009 में शुरू हुयी थी योजना

वर्ष 2009 में मेरठ, लखनऊ, कानपुर, आगरा, मथुरा, वाराणसी, और इलाहाबाद जैसे शहरों में सिटी बसें चलाने के लिए केंद्र ने जेएनएनयूआरएम योजना के तहत यूपी सरकार की आर्थिक मदद की थी। बसें चलाने के लिये संबंधित शहरों में एस.पी.वी. का गठन कर संचालन कराने का निर्णय लिया गया,जिसकी पूंजी लागत का 50 फीसदी भाग भारत सरकार द्वारा,20 फीसदी उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा तथा शेष 30 फीसदी हिस्सा मिशन शहरों के विकास प्राधिकरण, नगर निगम, नगर पालिका, परिषद तथा उत्तर प्रदेश राज्य सडक़ परिवहन निगम द्वारा बराबर-बराबर भाग में वहन किया गया है।

वर्ष 2012 में इसमें उत्तर प्रदेश आवास एवं विकास परिषद को भी शामिल किया गया। इस योजना के तहत कुल 1310 बसें उपलब्ध कराई जानी थीं। शुरुआत में 1140 बसें खरीदी गईं, जिनमें से आगरा में 170, मेरठ में 120 और मथुरा में 60 बसें चल रही हैं। अलावा लखनऊ में 260, इलाहाबाद में 130, वाराणसी में 130 और कानपुर में 270 सिटी बसें चलाई जा रही हैं।

कबाड़ हो गयीं बसें

सिटी बसों के इस प्रोजेक्ट में 335 करोड़ रुपये खर्च हुए, जिसमें से आधा हिस्सा तो केंद्र सरकार ने दिया, बाकी 20 फीसदी हिस्सा राज्य सरकार ने दिया। परिवहन विभाग, प्राधिकरण और नगर निगम ने भी इसमें 10-10 फीसदी रकम का योगदान दिया। बसों की मेंटेनेंस में होने वाले खर्च की जिम्मेदारी प्राधिकरण और नगर निगम के हिस्से में डाली गई थी। तब से अब तक इस मद में करीब 200 करोड़ रुपये का नुकसान हो चुका है।

अब नगर निगम और संबंधित प्राधिकरण के साथ ट्रांसपोर्ट विभाग की उदासीनता के चलते स्थिति बदतर होती जा रही है। हालत यह है कि उचित रखरखाव और बेहतर संचालन के अभाव में सिटी बसें कबाड़ होती जा रही हैं। घाटे पर काबू पाने और सिटी बस सेवा को लाभ की तरफ ले जाने की कोशिशों के दावे तो संबंधित अफसरों द्वारा हर साल किये जाते हैं,लेकिन कोशिशें सफल होती अब तक नहीं दिखी हैं।

आठ साल में एक भी बस नहीं बढ़ी

मेरठ की ही बात करें तो 2009 में 12 करोड़ रुपये की छोटी-बड़ी 120 बसें मिली थी। बस सेवा का संचालन मेरठ सिटी ट्रांसपोर्ट सर्विसेज लिमिटेड (एमसीटीएसएल) नाम से कंपनी बोर्ड बना कर किया जा रहा है। कहने को तो मेरठ में 16 रूटों पर बसें चलायी जा रही हैं। लेकिन रखरखाव की कमी से अकसर खराब होती बसें इस व्यवस्था को पूरी तरह से पटरी से उतार चुकी हैं। नतीजन,घाटा थमने का नाम नहीं ले रहा है।

पिछले पांच सालों की ही बात करें तो एमसीटीएसएल को घाटा हर साल हो रहा है। विभागीय अफसर घाटे की वजह अपनी संचालन अक्षमता मानने को तैयार नहीं हैं। एमसीटीएसएल के एमडी संदीप लाहा घाटे की मुख्य वजह किराया कम रखा जाना बताते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि नगर बसों में बिना टिकट यात्रा करने वाले यात्रियों की बड़ी संख्य़ा भी है।

स्टाफ की कमी के कारण चलते विभागीय अफसर टिकट निरीक्षण करने वाले निरीक्षक दस्ते गठित करने में असमर्थ हैं। विभाग को इस मामले में स्थानीय पुलिस का अपेक्षित सहयोग भी नही मिल पाता है। हालत यह है कि आये दिन सिटी बस के चालकों और कंडक्टरों के साथ मारपीट की वारदातें होती रहती हैं।

एमसीटीएसएल बस बेड़े में 2009 में 120 बसें बसें शामिल हुई थी। तब से लेकर आज तक बसों की संख्या नहीं बढ़ी है। सभी बसें करीब 8 वर्ष पुरानी हो चुकी है। ज्यादा उम्र होने के चलते अधिकांश बसें आये दिन खराब होती रहती हैं। जिसके कारण 120 में आधी से भी कम बसें सडक़ों पर दौड़ पाती हैं। 30 बसों की हालत तो संचालन के लायक भी नही रह गई है। विभागीय अफसरों का कहना है कि नई बसों की मांग की जा रही है।

कंडम बसें चल रही इलाहाबाद में

इलाबाद शहर में सडक़ों पर दौड़ रही लो सिटी बसों का भी हाल बेहाल है। जेएनएनयूआरएम के तहत उम्दा लो फ्लोर बसें चलायी गयीं थीं लेकिन अब इनकी हालत ऐसी है कि जैसे कभी न सफाई की गयी हो और न मरम्मत। इनके रखरखाव का जिम्मा झूंसी वर्कशॉप को है। वर्कशाप की हालत यह है कि 60 फीसदी से ज्यादा पद खाली हैं।

लखनऊ का भी वही हाल

राजधानी में जेएनएनयूआरएम के तहत सिटी बसों की संख्या लगातार घटती चली जा रही है। बताया जाता है कि बसों के मेंटनेंस के लिए कोई बजट ही नहीं है। असल में मेंटनेंस के लिए सिटी ट्रांसपोर्ट विभाग सीधे तौर पर रोजाना की कमाई पर निर्भर है। जैसे-जैसे आय होती जाती है, वैसे-वैसे वाहनों की मेंटनेंस कराई जाती है। इसी का नतीजा है कि बसों के डिस्प्ले बोर्ड, सीसीटीवी कैमरे, एनाुंसमेनट सिस्टम आदि बर्बाद हो चुके हैं। ड्राइवर की सीट तक का काम जोड़-जुगाड़ से चलाया जा रहा है।

सिटी बसों के खरखाव का जिम्मा पहले एक निजी कंपनी को सौंपा गया था लेकिन कुछ विवाद होने के बाद वह समाप्त कर दिया गया। गोमतीनगर स्थित केंद्रीय वर्कशॉप सिटी बसों का कब्रगाह जैसा नजर आता है। हैरत की बात है कि अब स्मार्ट सिटी के नाम पर ‘हाईटेक’ बस स्टॉप बनाने की बातें की जा रही हैं, जबकि पूरे शहर के बस स्टॉप या बस शेल्टर दुकानों में तब्दील हो चुके हैं।

= विभिन्न शहरों में 1140 सिटी बसें चलाई जा रहीं

= 2009 में जेएनएनयूआरएम के तहत सिटी बसों के लिए केंद्र ने दिया था पैसा

= 335 करोड़ रुपये खर्च हुये सिटी बस प्रोजेक्ट में

मेरठ में घाटे का ब्यौरा

वित्तीय वर्ष

2012-13

2013-14

2014-15

2015-16

2016-17

लाभ

0

0

0

0

0

हानि

278.48

111.52

92.82

28.62

84.77

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