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सिखों के पवित्र स्थल 'अकाल तख्त' के बारे में ये रोचक बातें नहीं जानते होंगे आप
देश की खड्ग भुजा कहे जाने वाले पंजाब राज्य के इतिहास का हर अध्याय त्याग, बलिदान, अध्यात्म और सेवा-भावना से ओत-प्रोत है। अमृतसर का अध्याय शुरू होते ही हमारी निगाहें वहां जाकर ठहर जाती हैं, जिस पर दर्ज है श्री अकाल तख्त की गौरव गाथा।
दुर्गेश पार्थसारथी
अमृतसर: देश की खड्ग भुजा कहे जाने वाले पंजाब राज्य के इतिहास का हर अध्याय त्याग, बलिदान, अध्यात्म और सेवा-भावना से ओत-प्रोत है। अमृतसर का अध्याय शुरू होते ही हमारी निगाहें वहां जाकर ठहर जाती हैं, जिस पर दर्ज है श्री अकाल तख्त की गौरव गाथा।
सिख धर्म में पांच तख्त हैं, मगहर अकाल तख्त की महत्ता सबसे ज्यादा है। ऐतिहासिक प्रमाण बताते हैं कि जब देश की बागडोर मुगल बादशाह अकबर के बाद कमजोर एवं संकुचित मानिसकता वाले शासकों के हाथों आई तो देश की स्थिति डवांडोल होती चली गई।
जनता को जहां एक तरफ इन कट्टर शासकों की कुत्सित विचारधारा का शिकार होना पड़ रहा था, वहीं आए दिन होने वाले विदेशी हमलों से उत्पन्न कहर-आतंक व लूटपाट का भी सामना करना पड़ता था।
परिणामत: जनता में आक्रोश की भावना पैदा होने लगी। ऐसे में जनता में से ही कुछ सूरमे आगे आए जिन्होंने इन बस विसंगतियों से लोहा लेने के लिए अपना सबकुछ न्योछावर कर जनता के मान-सम्मान और अधिकारों की रक्षा की।
इन सूरमाओं में पंजाब पृष्ठभूमि में सिखों के छठवें गुरु श्री हरगोबिंद सिंह का भी नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है, क्योंकि इनसे पहले सिख गुरु दया, धर्म, क्षमा व शस्त्रों पर ही विश्वास रखते थे।
मगर उन्होंने शास्त्र के साथ शस्त्र जोड़कर शक्ति एवं भक्ति में सामंजस्य थापित किया। देश समाज और जनता में एक नई शक्ति संचरित करने के लिए उन्होंने जुल्म के खिलाफ हथियार उठाया, जिसकी परिणति में अकाल तख्त का आविर्भाव हुआ।
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1606 में स्थापित हुआ श्री अकाल तख्त साहिब
प्रमाण के अनुसार मुगल बादशाहर जहांगीर ने देश के शासन की बागडोर अपने हाथों में आते ही ऐलान किया कि होई भी प्रजा का आदमी न तो दो फीट से ऊंचा चबूतरा बनवा सकता है और न ही घुड़सवारी कर सकता है।
यदि कोई ऐसा करता है तो उसे राजद्रोही करार देकर सजा दी जाएगी। इधर, जब नजता पर शाही आतंक व उत्पीड़न बढ़ा तो वह लावा बनकर गुरु हरगोबिंद सिंह के रूप में फूट पड़ा। उन्होंने राजाज्ञा की अवमानना करते हुए चुनौती स्वरूप सन् 1606 में स्वर्ण मंदिर के सामने अकाल तख्त का निर्माण करवाया एवं उस पर अपना सिंहासन लगवाया। मीरी-पीरी की दो तलवारें धारण कीं। बाज पाला और कलगी लगाकर इसी सिंहासन पर आसीन हो , शक्ति-भक्ति को एक साथ संचालित किया जो मुगल हुकूमत के लिए खुला बिगुल था।
तैयार किए 400 शस्त्रधारी
गुरु हरगोबिंद साहिब जी सिंहासन पर बैठते ही चार सौ सेवक शस्त्रधारी मरजीवड़े तैयार किए जो धर्मार्थ अपना शीश देने के लिए तैयार हुए। इन जुझारू सैनिकों का संचालन अपने चार सेनापतियों के हाथों में सौंप दिया। मुगल हुकूमत का बहिष्कार करते हुए स्वर्ण मंदिर में शब्द-किर्तन का प्रवाह अनवरत कर दिया। इन बातों से नाराज हो मुगल सेना व गुरुजी की सेना में युद्ध हुआ। इन जांबाज सैनिकों ने मुगल सैनिकों के छक्के छुड़ा दिए।
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सिख सूरमाओं ने 1763में लाल किले पर फहरा दिया अपना ध्वज
उधर, जब पश्चिम से विदेशी आक्रमणकारी अहमदशाह अब्दाली ने देश पर आक्रमण किया तो उसके सेनापति कलंदर खां ने अकाल तख्त के सामने भषण रक्तपात करते हुए अकालतख्त की मर्यादा को खंडित किया, परंतु 1762 की दीवाली में 'सरबत-खालसा' के आयोजन के दौरान कलंदर खां का कत्ल कर सखि सूरमाओं ने उस अपमान का बदला ले किया। इस घटना से बौखलाकर अहमदशाह अब्दाली ने पिफर आक्रमण किया, जिसमें तमाम सिख सैनिक शहीद हुए एवं उसने स्वर्ण मंदिर को ध्वस्त करवा दिया।
सन् 1763 में जत्थेदार बघेल सिंह और सरदार जस्सा सिंह अहलूवालिया ने दिल्ली पर आक्रमण कर लाल किले पर अपना ध्वज फहरा बादशाह होने की घोषणा कर दी। सन् 1765 में उन्होंने हरिमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर) में उन्होंने हरिमंदिर साहिब का निर्माण करवाते हुए 1774 में अकाल तख्त के ऊपर एक मंजिला भव्य इमारत का निर्माण करवाया था।
महाराजा रणजीत सिंह ने करवाया चार मंजिलों का निर्माण
कालांतर में शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह ने अकाल तख्त साहिब के ऊपर चार और मंजिलों का निर्माण करवाया। इसके बाद जरनैल रही सिंह नलवा की तरफ से ऊपरी बंगले और गंबद का निर्माण करवाया।
निर्माण कार्य संपन्न होने के बाद यहां से 'खालसा राज' के सिक्के चालू किए गए। यहां सरबत खालसा एकत्र हो कर पंथ संबंधी विचार-विमर्श, निर्णय और मत पास किए जाते एवं पंथ के नाम हुक्मनामे जारी किए जाते।
सन् 1920 को यहीं पर अरदास करके पंथ की तरफ से शिरोमणि गुरु गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी एवं इसी सन में शिरोमणि अकाली दल की नींव भी रखी गई। समय-समय पर अन्य ऐतिहासिक, सामाजिक, व राजनैतिक हम मामले में जो सिख धर्म व पंथ प्रभावित कर सकते थे, का संचालन अकाल तख्त की छत्रछाया में ही होता रहा है। इस पावन इमारत के भीतर आज भी सिख गुरुओं से संबंधित शस्त्र दशनिय रूप में सुरक्षित हैं।
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