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मंगल दिनों की अनोखी धरोहर हैं अवधी और भोजपुरी लोक गीत, हैं संस्कृति का मूल

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Published on: 8 Sep 2017 1:16 PM GMT
मंगल दिनों की अनोखी धरोहर हैं अवधी और भोजपुरी लोक गीत, हैं संस्कृति का मूल
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Dr mamta tripati

मंगल मास के आरंभ के दिन आ रहे हैं। पितृ पक्ष में पितर पूज कर दशहरे में शक्ति की साधना। ठीक बीस दिन के बाद दिया बाती। दूसरे दिन गोधन कुटान। यही से मंगल दिन शुरू। लोक में इन मंगल दिनों का बहुत महत्व है। कार्तिक के महीने को इसीलिए मंगल मास भी कहा जाता है। लोक जीवन के सभी मांगलिक अनुष्ठान यही से गति पाते हैं और यही से लोक साहित्य को मिलते हैं उसके प्राण तत्व। लोक साहित्य की अथाह राशि अब तक हमारे समाज में केवल श्रुति स्वरूप में ही रही है। वे चाहे लोक गीत हो या संस्कार गीत।

सभी केवल पीढ़ी दर पीढ़ी श्रुत रूप में ही स्थानांतरित होते रहे हैं। आधुनिक साहित्य के कुछ रचनाकारों ने इन्हें लिपिबद्ध करने की कोशिश जरूर की है लेकिन वह बहुत मामूली ही रहा है। लोक साहित्य का फलक स्वयं में बहुत विशाल है। यहां भोजपुरी और अवधी के लोकगीतों को लेकर कुछ प्रसंग सामने ला रहे हैं।

वैसे यह विदित है कि लोकगीतों की परंपरा मौखिक है। आज जो भी हम अध्ययन-चिंतन, मनन-लेखन कर रहे हैं। वह हमारी श्रुत-परंपरा पर ही आधारित है, जो अपनी नानी, दादी, मां से सुना है, उसे ही तो लिपिबद्ध कर पा रहे हैं। आवश्यक भी है कि हम लोकगीतों की निर्मल धारा की निरंतरता को बनाये रखें क्योंकि यही हमारी संस्कृति की मूल है। यह अनेक परंपराओं व विश्वासों की संस्कृति है, जो युगों से लोक चेतना में प्रवाहित होती आई है। इन लोकगीतों के माध्यम से लोक मानस, ग्रामीण जनसमुदाय, अपने जीवन की विषमताओं, दु:खों को अभिव्यक्त कर न केवल उनसे मुक्ति पाते है बल्कि जीवन के लिए अतिरिक्त ऊर्जा भी पाते हैं।

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अवधी और भोजपुरी के लोकगीतों को एक साथ लिखने का कारण यह है कि दोनों बोलियों में भाषा का अंतर तो अवश्य है किंतु रीति रिवाजों, परंपराओं, धर्म, जातियों एवं संस्कृति में अंतर नहीं है जिसके आधार पर लोकगीतों के प्रकार बदला करते हैं। जहां ये दोनों बोलियां मिलती हैं, वहां से लेकर दोनों छोर तक बोलियों का भारी अंतर हो जाता है। पर गीतों के प्रकार में काफी साम्य है। संस्कार के गीतों में सोहर, मुंडन, कनछेदन, जनेऊ, विवाह एवं गौना (बहू विदाई) के गीत दोनों क्षेत्रों में गाए जाते हैं।

जातीय गीतों में एक गीत बिरहा है जिसे अहीर जाति के लोग गाते हैं। कुछ बिरहे लंबे होते हैं और कुछ दो दो, चार चार पंक्तियों के छोटे बिरहे होते हैं। ऐसे बिरहों को पितमा कहते हैं। लंबे बिरहों में वीर अथवा शृंगार रस की प्रधानता होती है। पौराणिक आख्यानों, वीर चरित्रों पर भी बिरहे होते हैं। डोली ढोते समय कहारों के कंहरवा गीत श्रमगीत का काम करते हैं और विवाह शादी तथा कुछ उत्सवों में नृत्य के साथ कहरवा गाया जाता है। धोबियों के गीत बिरहे से मिलते जुलते हैं। ये लोग भी नाच के साथ गीत गाते हैं।

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चमारों का अपना गीत चनैनी भी एक तरह से नृत्यगीत ही होता है। नौवा झक्कड़ नाइयों के गीत को कहते हैं। मल्लाह लोग विवाह शादियों के मलहिया गीत गाते हैं। यह गीत तब और रंग लाता है जब पूजन के लिए बांस रगड़ते-रगड़ते उसमें से आग निकलने लगती है। गंगा गीत भी इन्हीं द्वारा गाया जाता है। जब मल्लाह नई नाव बनवाता है तो उसके जलावतरण के समय नदी तथा नाव दोनों की पूजा भिक्षाटन से अर्जित धन से की जाती है। इसमें यह भावना छिपी रहती है कि यदि भिक्षा देने वालों में एक भी धर्मात्मा होगा तो नैया दुर्घटनाग्रस्त नहीं होगी। भीख मांगते और पूजा करते समय ये गीत गाए जाते हैं।

गीत की हर पंक्ति के अंत में गंगा जी का नाम आता है। तेली जाति के लोग रात में घानी चलाते समय कथात्मक गीत बंजरवा या नयकवा गाया करते हैं। धार्मिक गीतों में देवीगीत, दोनों क्षेत्रों में चलते हैं। मेला गीत मेला अथवा तीर्थयात्रा को जाते समय स्त्रियों द्वारा राह में गाए जाते हैं। श्रमगीतों में जंतसार, जांत पीसते समय गाया जाता हैं। ये गीत काफी लंबे एवं प्राय: करुणरस से ओतप्रोत होते हैं। अब तो गांवों में भी आटा पीसने वाली मशीनें पहुंच गई हैं, इसलिए इन गीतों का उठान होता जा रहा है। धनरोपनी के गीत धान रोपते समय ग्राम्याओं द्वारा गाए जाते हैं। निरवाही के गीत खेत की निराई करते समय गाए जाते हैं।

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ऋतुगीतों में तीन प्रकार के गीत आते हैं- होली, चैती और कजली। होली को फगुआ के गीत भी कहते हैं। चैती चैत में गाई जाती हैं। चैती गीतों की ऊपर तथा टेक की पंक्तियों में हो रामा शब्द आता है। होली और चैती पुरुषों के गीत हैं। अब से लगभग २० वर्ष पूर्व एक प्रकार का गीत स्त्रियों द्वारा फागुन में ही गाया जाता था जिसका नाम था मनोरा झूमक। अब यह गीत सुनने को नहीं मिलता। गीत की एक पंक्ति हैं- फागुन जाड़ गुलाबी मनोरा झूमक हो। पद्मावत में भी आया है- चहइ मनोरा झूमक होई, फर अउ फूल लिहे सब कोई।

कजली स्त्रियों का गीत है और पावस काल में गाया जाता है। इसके कई भेद हैं, जैसे टुनमुनियां, झूमर, बारहमासा और झूला गीत आदि। इन गीतों में भाई बहन के विशुद्ध प्रेम की भावनाएं होती हैं। इस क्षेत्र में भी जननायकों की गाथाएं लोकनायकों द्वारा गाई जाती हैं। नयकवा, बंजरवा, लोरिकी, विजयमल तथा सोरठी आदि प्रंबंध गीत बहुत प्रसिद्ध हैं। गद्य के साथ लोककथाओं में पद्य कहने की भी परंपरा है, जैसे शीत वसंत, जरेवा परेवा और सदाबृज सारंगा की कथाएँ। अन्य प्रकार के गीतों में लोरियां, लचारियां दोनों क्षेत्रों में चलती हैं किंतु पूर्वी और बिदेसिया भोजपुरी के लोकगीत हैं।

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