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Bhagavad Geeta Gyan: कर्म से भागना और कर्म फल की आशा करना अनुचित
Bhagavad Geeta Gyan in Hindi: अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा, “हे वासुदेव, हे ज्ञानमूर्ति, मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है
Bhagavad Geeta Gyan in Hindi: भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, “हे निष्पाप अर्जुन, “जिस मार्ग पर चलकर मनुष्य अपने को आत्मा के रूप में देखता है, परमात्मा के अंश के रूप में स्वयं को पहचान जाता है, उसी मार्ग को धर्म कहतेहैं। जब मनुष्य स्वयं को परमात्मा के अंश के रूप में जान लेता है, तब उसे यह अनुभूति होती है कि यह संपूर्ण सृष्टि ही परमात्मा है और यह परमात्मा ही सृष्टि है। सृष्टि और परमात्मा में कोई भेद नहीं है। जो मनुष्य यह जान लेता है, वह दूसरे मनुष्य के प्रति या अन्य प्राणियों के प्रति निर्दय और कठोर नहीं होता। वह जानता है कि जीभ में चोट लगने से पीड़ा केवल जीभ को नहीं होती, उसकी अनुभूति समस्त शरीर को होती है। वैसे ही जैसे एक मनुष्य को पीड़ा होती है तो समस्त संसार उस पीड़ा का अनुभव करता है। जब तक संसार में एक भी मनुष्य पीड़ित है, तब तक वास्तव में किसी का भी सुख संपूर्ण नहीं है। यह जानने पर मनुष्य का मन करुणा से भर जाए, उसे धर्म कहते हैं। जब मनुष्य पर तमस गुण छाया होता है, तो वह दूसरों के प्रति कठोर निर्दय और स्वार्थी हो जाता है। अपने कल्पित सुख के लिए वह दूसरों को दुख देता है। परमात्मा की ओर उसकी गति नहीं हो पाती। अर्थात अधर्म परमात्मा से दूर ले जाने वाले मार्ग का नाम है।”अर्जुन ने पुनः प्रश्न किया, “किंतु हे केशव, अधर्म तो अज्ञान का दूसरा नाम है। तो फिर अज्ञानी के प्रति तो दया होनी चाहिए, दंड का क्या तात्पर्य है?”
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, “हे पार्थ प्राणी जब ज्ञान के मूल्य को जानने को सज्ज न हो, ज्ञान पर दृष्टि डालने को सज्ज न हो, तब दंड ही दया है, उसके प्रति भी और दूसरों के प्रति भी। सृष्टि की गति परमात्मा की ओर ले जाना अनिवार्य है। किंतु कभी-कभी ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि अधर्म, अज्ञान और मोह बढ़ जाता है। अनाचार, अत्याचार बढ़ने से संसार से धर्म लुप्त होने का भय पैदा हो जाता है। जब संसार से धर्म लुप्त हो जाता है, तो करुणा भी नष्ट हो जाती है, और सत्य भी नष्ट हो जाता है। आने वाली पीढ़ियों को धर्म प्राप्त हो सके, इसलिए अधर्म करने वालों का विनाश करके धर्म की पुनः स्थापना करना अनिवार्य हो जाता है। आज भी ऐसी ही स्थिति है पार्थ! और धर्म स्थापना का कर्तव्य तुम्हारा है, इसलिए निर्बलता का त्याग करो और युद्ध के लिए सज्ज हो जाओ!”
भगवान श्रीकृष्ण आगे कहते हैं, “जब सृष्टि ही परमात्मा है और मनुष्य स्वयं परमात्मा का अंश, तो सारे कार्य परमात्मा ही करते हैं। मनुष्य स्वयं कुछ नहीं करता, वह केवल एक निमित्त मात्र है। यही कर्म योग का मूल सिद्धांत है। तुम्हें भी कर्मयोगी बनकर यह युद्ध करना आवश्यक है पार्थ! तीनों गुणों का त्याग करके निर्गुण हो जाओ! इस द्वंद्व से मुक्त हो जाओ, सदा सद्गुण अपनाकर परमात्मा में बुद्धि लगाकर निरंतर अपने कर्तव्य का वहन करते जाओ! कुछ प्राप्त करने की इच्छा और प्राप्त किए हुए के संरक्षण को त्याग दो पार्थ! तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने का है। कर्म का फल ईश्वर के हाथ में है, इसलिए न कर्म से भागना उचित है और न ही कर्म के फल की आशा रखना उचित है।”