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Bhagavad Gita: भगवद्गीता - अध्याय -1 श्लोक (दुर्योधन द्रोणाचार्य संवाद)
Bhagavad Gita: दुर्योधन द्रोणाचार्य को कहता है - " आचार्य ! देखिए ।" क्या द्रोणाचार्य भी धृतराष्ट्र की भांति अंधे थे कि उन्हें शत्रु पक्ष नजर नहीं आ रहा था ? द्रोणाचार्य को दुर्योधन से पांडव - पक्ष की अधिक जानकारी थी।
Bhagavad Gita:
पश्यैतां पांडूपुत्रानामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।
अर्थ - हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पांडुपुत्रों की बड़ी भारी सेना को देखिए।
निहितार्थ - युद्ध कला में शत्रु -पक्ष का पहले विचार करना, उसका बारीकी से निरीक्षण करना तथा उसकी शक्ति का अनुमान लगाना आवश्यक होता है। इसके बाद ही अपनी रक्षात्मक और आक्रामक रणनीति बनाना किसी भी कुशल एवं अनुभवी युद्ध - विशारद के लिए जरूरी होता है। दुर्योधन इस कसौटी पर खरा उतरता है। जब किसी मनुष्य के भीतर हीन - ग्रंथि का जन्म होता है , तो वह पहले अपने को दूसरों के समक्ष श्रेष्ठ साबित करने का प्रयास करता है। अपना विचार पहले करता है तत्पश्चात् दूसरे का विचार करता है।
दुर्योधन द्रोणाचार्य को कहता है - " आचार्य ! देखिए ।" क्या द्रोणाचार्य भी धृतराष्ट्र की भांति अंधे थे कि उन्हें शत्रु पक्ष नजर नहीं आ रहा था ? द्रोणाचार्य को दुर्योधन से पांडव - पक्ष की अधिक जानकारी थी। तो फिर , दुर्योधन के कहने का तात्पर्य क्या था ? इसे जानने के लिए हमें दुर्योधन के मानस - पटल में प्रवेश करना होगा।
दुर्योधन यहां पांडवों को पांडु-पुत्र तथा धृष्टद्युम्न को उसका नाम ना ले कर उसे द्रुपद - पुत्र कहता है । द्रोणाचार्य को दुर्योधन यह बताना चाह रहा है कि ये तो पुत्रवत् हैं , भला ! आप जैसे श्रेष्ठ धनुर्विद्या के धनी के सामने वे कैसे टिक पाएंगे ? दुर्योधन यह भी कहना चाह रहा है कि देखिए ! ये पांडव कितने कृतघ्न हैं कि आपकी कृतज्ञता को भुलाकर आप के प्राण लेने के लिए रणक्षेत्र में धृष्टद्युम्न को प्रधान सेनापति बना कर आप के ही खिलाफ लड़ने के लिए तत्पर एवं व्याकुल हैं। अतः आप भी पांडवों के प्रति थोड़ा भी स्नेह ना रखें - दुर्योधन द्रोणाचार्य को यह संकेत देना चाह रहा है।
धृतराष्ट्र पक्ष की सेना 11 अक्षौहिणी थी , पांडवों की सेना तो मात्र 7 अक्षौहिणी ही थी । फिर भी दुर्योधन पांडवों की सेना को ' महती चमू ' अर्थात् विशाल सेना कहता है । 12 वर्ष के वनवास तथा 1 वर्ष के अज्ञातवास का निर्वासित जीवन बिता कर पांडव युद्ध को स्वीकार किए थे। दुर्योधन की दृष्टि में पांडवों के पास तो सेना होनी ही नहीं चाहिए थी , फिर भी 7 अक्षौहिणी सेना पांडवों की तरफ से धृतराष्ट्र पक्ष से युद्ध करने आ जाएगी - यह आशा दुर्योधन को थी ही नहीं । अतः विशाल सेना कहकर दुर्योधन अपने अंतस् में छिपे भय को प्रकट कर रहा है।
दुर्योधन को उस घटना का स्मरण था, जब अर्जुन छद्म वेश में राजा विराट की तरफ से धृतराष्ट्र -पक्ष से लड़ रहे थे। उस समय पांडवों ने इन लोगों की दुर्गति कर दी थी। उस समय तो पांडव अपने लिए नहीं लड़े थे ,आज वे अपने अधिकारों के लिए लड़ने आए हैं । उस समय उनके पास इतनी सेना भी नहीं थी, पर आज सात अक्षौहिणी सेना भी है। अतः दुर्योधन द्रोणाचार्य को सतर्क रहने की सलाह दे रहा है कि हम से कम सेना होने के बावजूद पांडवों की शक्ति को कम आंकना गलत साबित हुआ
धृष्टद्युम्न को बुद्धिमान शिष्य कहकर दुर्योधन यह बताना चाह रहा है कि आपने जिसे युद्ध विद्या में प्रवीण बनाया । आज वही शिष्य आप से लड़ने के लिए आ खड़ा हुआ है। ' आप कैसे बेवकूफ एवं मूर्ख हैं ?' - यह दुर्भाव दुर्योधन व्यक्त कर रहा है। दूसरी ओर यह भी कहना चाह रहा है कि द्रुपद - पुत्र आखिर आपका शिष्य ही तो है , आप तो उसके गुरु ठहरे ! कहीं आज तक गुरु के मुकाबले शिष्य ठहर पाया है ? उपर्युक्त सभी प्रकार के भावों , जो दुर्योधन के अंतःकरण में उठ रहे थे , का सूक्ष्म रूप से प्रकटीकरण इस तीसरे श्लोक में हो रहा था - ऐसा अपना मत है।
(श्रीमद्भगवद् गीता शास्त्र फेसबुक पेज से साभार)