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Bhagavad Gita Gyan: भक्त को सब भगवान से ही चाहिए, केवल चार तरह के होते हैं भक्त

Bhakt Kitne Prakar Ke Hote Hain:

Sankata Prasad Dwived
Published on: 7 Aug 2023 5:04 AM IST
Bhagavad Gita Gyan: भक्त को सब भगवान से ही चाहिए, केवल चार तरह के होते हैं भक्त
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Bhagavad Gita Gyan Bhakt Kitne Prakar Ke Hote Hain (Photo - Social Media)

Bhakt Kitne Prakar Ke Hote Hain: विश्व में कौन से चार प्रकार के लोग भगवान का भजन करते हैं. जी हाँ आज हम आपको ऐसे ही उन भक्तों के बारे में बताएँगे. गीता तो आपने पढ़ी होगी लेकिन क्या उसका अर्थ और ज्ञान समझा है, नहीं ज्यादातर लोगों ने पूरी तरह नहीं समझा होगा, लेकिन भक्तों के लेकर सब कुछ भगवान श्री कृष्ण ने अपने श्लोक में कहा है.

भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं :-
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्त्तो जिज्ञासुर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।

अर्थ :- हे भातवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! आर्त्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी - ऐसे चार प्रकार के सुकृती भक्तजन मुझे भजते हैं।

अब जानते है कि विश्व में कौन से चार प्रकार के लोग भगवान का भजन करते हैं ?

सुकृती - जन्म-जन्मांतर से शुभकर्म करते - करते जिनका स्वभाव कर्मशील बन गया है और पूर्व संस्कारों के बल से या सत्संग के प्रभाव से, जो इस जन्म में भी भगवत् - आज्ञानुसार शुभ कर्म करते हैं, उन शुभकर्म करने वालों को सुकृती कहते हैं।

भगवान को विश्वासपूर्वक भजने वाले सभी भक्त सुकृती होते हैं, फिर चाहे किसी भी हेतु से भजे। ये पुण्यवान होते हैं, जो किसी भी कारण से परमात्मा की ओर उन्मुख होते हैं।

सुकृतियों में पहली श्रेणी आर्त्त की है।

हम सभी जानते हैं कि संसार में कोई भी व्यक्ति बिना प्रयोजन के कोई कार्य नहीं करता। अपने मुहल्ले अथवा बस्ती में चिकित्सक रहते हैं। लेकिन चिकित्सक के पास वही जाता है, जिसे कोई रोग हो। रोगी का अंतिम लक्ष्य रोगमुक्त होना ही होता है। लेकिन इसके लिए वह केवल चिकित्सक की शरण लेता है।

इसी प्रकार एक आर्त्त व्यक्ति पहले अपने संकट-निवारण के लिए स्वयं भरपूर कोशिश करता है, लेकिन वह सफल नहीं हो पाता है। फिर वह अन्य लोगों की सहायता लेता है, तो भी सफल नहीं हो पाता है। तब वह अंततः भगवान की शरण लेता है। जिस प्रकार रोग मुक्त होने के लिए रोगी चिकित्सक की शरण में जाता है, ठीक उसी प्रकार अपने दुःख एवं कष्ट से मुक्त होने के लिए आर्त्त भक्त भगवान की शरण में जाता है।

सकाम भाव रहने पर भी आर्त्त भक्त उसकी पूर्ति अंत में केवल भगवान से ही चाहता है।
भागवत महापुराण में गजेंद्र का दृष्टांत आर्त्त भक्त के रूप वर्णित है।

एक बार सरोवर में एक बलवान ग्राह ( मगर ) ने गजेंद्र के पैर को पकड़ लिया। गजेंद्र ने विपत्ति में पड़कर अपनी शक्ति के अनुसार अपने को छुड़ाने की कोशिश की, पर छुड़ा न सका। अन्य हाथियों ने भी प्रयास किया, तो भी गजेंद्र अपने पैर को छुड़ा न पाया, तब उसने अंत में भगवान की शरण ली।

प्रार्थना करते हुए गजेंद्र ने कहा

यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं करोतु मेऽदभ्दयो विमोक्षणम्।।

अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की कामना से मनुष्य भगवान का भजन करके अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लेते हैं। इतना ही नहीं, वे ( भगवान ) उनको सभी प्रकार का सुख देते हैं और अपने ही जैसा अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं। वे ही परम दयालु प्रभु मेरा उद्धार करें।

भगवान आर्त्त भक्त गजेंद्र को देखकर गरुड़ को छोड़कर कूद पड़े और कृपा करके गजेंद्र के साथ ही ग्राह को भी बड़ी शीघ्रता से सरोवर से बाहर निकाल लाए। फिर भगवान श्री हरि ने चक्र से ग्राह का मुंह फाड़ डाला और गजेंद्र को छुड़ा लिया।

इसके बाद गजेंद्र को मोक्ष लाभ होता है। उसका गज शरीर गिर जाता है। वह ईश्वर के पार्षद के रूप में मुक्त हो जाता है।
किसी भी कारण से प्रभु की शरण में जाना और भगवान का भजन करना सुकृती का लक्षण होता है।

सुकृती - अर्थार्थी ( अंक - 2 )

अर्थार्थी की विवेचना-
अर्थार्थी भक्त :-

स्त्री, पुरुष, धन, मान - प्रतिष्ठा, सुख आदि इस लोक के भोगों में से जिसके मन में एक की अथवा अनेक की कामना होती है, परंतु कामना पूर्ति के लिए जो केवल भगवान पर ही निर्भर रहता है और इस निमित्त जो श्रद्धा एवं विश्वास के साथ भगवान का भजन करता है, वह अर्थार्थी भक्त कहलाता है।

अर्थार्थी उस शिशु की तरह है, जो मां को छोड़कर और कुछ नहीं जानता। शिशु के चाह की सीमा नहीं होती, पर वह अपना सारा अभाव मां को ही बताता है। और जो कुछ भी चाहता है, वह मां से ही चाहता है। इसी प्रकार अर्थार्थी भक्त केवल भगवान से ही चाहता है।

कवि आरसी प्रसाद सिंह "हरि की शरणागति" में अर्थार्थी भक्त के बारे में लिखते हैं :-

आखिर किससे मांगा जाए ? कौन दान-अधिकारी है ?
दानी एक वही तो प्रभु है, सारा जगत भिखारी है।।
इसीलिए, प्रभु से ही मांगे, वस्तु मांगना जिसे पड़े।
पुत्र न मांगे अगर पिता से, तो फिर किससे मांग करे ?

भगवान से मांगने के भी विशेष लाभ हैं।

यदि कोई भक्त भगवान से कोई सांसारिक वस्तु मांगता है। उस सांसारिक वस्तु से भक्त का अहित ( नुकसान ) होता है, तो भगवान उसके मांगने पर भी वह वस्तु उसे नहीं देते। इसका बड़ा ही अच्छा उदाहरण नारद जी का है। नारद जी ने भगवान से हरि का रूप ( भगवान का स्वरूप ) मांगा था किंतु हरि शब्द का अर्थ बंदर होने के कारण भगवान ने उनको बंदर का रूप दे दिया। इसके परिणामस्वरूप नारद जी ने क्रोधावेश में आकर भगवान को ही श्राप दे दिया। भगवान ने नारद जी के शाप को भी स्वीकार कर लिया, परंतु अपने भक्त को कंचन एवं कामिनी से इस प्रकार बचा लिया, जिस प्रकार एक हितैषी वैद्य रोगी को कुपथ्य से बचा लेता है।

अर्थार्थी का सबसे अच्छा उदाहरण भक्त ध्रुव का है।

एक बार राजा उत्तानपाद अपनी छोटी रानी सुरुचि के पुत्र उत्तम को गोद में बिठाकर प्यार कर रहे थे, तभी बड़ी रानी सुनीति का पुत्र ध्रुव भी गोद में आकर बैठना चाहा परंतु राजा ने उसका स्वागत नहीं किया। इसका कारण यह था कि महाराज अपनी छोटी रानी को बहुत चाहते थे। छोटी रानी ने ध्रुव को कहा कि यदि तुझे राज-सिंहासन की इच्छा है, तो तपस्या करके परम पुरुष श्री नारायण की आराधना कर।

तभी नारद मुनि वहां आए और उन्होंने ध्रुव को कहा :-

धर्मार्थकाममोक्षाख्यं य इच्छेच्छ्रेय आत्मन:।
एकमेव हरेस्तत्र कारणं पादसेवनम्।।

जिसे अपने लिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थ की अभिलाषा हो, उसके लिए उनकी प्राप्ति का उपाय एकमात्र श्रीहरि के चरणों का सेवन ही है।

ध्रुव ने मधुबन में पहुंचकर नारद जी के उपदेश के अनुसार श्री नारायण की उपासना आरंभ कर दिया। गरुड़ पर चढ़कर भगवान अपने भक्त को दर्शन देने पहुंचे। प्रभु का दर्शन पाकर ध्रुव ने उन्हें दण्डवत प्रणाम किया और उनकी स्तुति करते हुए कहने लगे :-

भक्तिं मुहु: प्रवहतां त्वयि में प्रसंगो भूयादनन्त महताममलाशयानाम्।
येनांजसोल्बणमुरुव्यसनं भवाब्धिं नेष्ये भवद्गुणकथामृतपानमत्त:।।

अनंत परमात्मन् ! मुझे तो आप उन विशुद्ध हृदय महात्मा भक्तों का संग दीजिए , जिनका आप में अविच्छिन्न भक्ति भाव है, उनके संग से मैं आपके गुणों और लीलाओं की कथा-सुधा को पी कर उन्मत्त हो जाऊंगा और सहज ही इस अनेक प्रकार की दुःखों से पूर्ण भयंकर संसार सागर के उसे पार पहुंच जाऊंगा।

श्री भगवान ने कहा - "उत्तम व्रत का पालन करने वाले राजकुमार ! मैं तुझे अन्य लोकों का नाश हो जाने पर भी जो स्थिर रहता है, वह ध्रुव लोक मैं तुझे देता हूं।
आज जो स्थिर तारा हम देखते हैं, उसका नाम भक्त ध्रुव के नाम पर ही ध्रुवतारा पड़ा।
तरुण अवस्था प्राप्त होने पर पुत्र ध्रुव को राजा ने राजपद पर अभिषिक्त कर दिया।
इस प्रकार यह ध्यान में आता है कि भगवान से सांसारिक वस्तु की कामना करने पर भी अपने भीतर भक्ति-भाव तीव्र एवं सुदृढ़ होता है।

भगवान श्री कृष्ण भगवद्गीता में अर्जुन को कहते हैं :-

उदारा: सर्व एवैते।
अर्थात् सभी चारों प्रकार के भक्त - आर्त्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी एवं ज्ञानी -उदार होते हैं।

निहितार्थ :- चारों प्रकार के भक्त भली-भांति इस बात का निश्चय कर चुके होते हैं कि भगवान सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वेश्वर, परम दयालु और परम सुहृद् हैं। हमारी आशा और आकांक्षाओं की पूर्ति एकमात्र उन्हीं से हो सकती है। ऐसा मानकर और जानकर वे अन्य सब प्रकार के आश्रयों का त्याग करके अपने जीवन को भगवान के ही भजन, पूजन, स्मरण और सेवा आदि में लगाए रखते हैं।

यदि उनके भीतर कामनाएं भी हैं, तो वे अपनी पूर्ति भगवान से ही कराना चाहते हैं। जैसे कोई पतिव्रता स्त्री अपने लिए कुछ चाहती भी है, तो वह एकमात्र अपने प्रियतम पति से ही चाहती है। वह न तो दूसरे की ओर ताकती है और न जानती है। इसी प्रकार ये चारों प्रकार के भक्त भी एकमात्र भगवान पर ही भरोसा करते हैं। इसलिए भगवान कहते हैं कि ये सभी उदार ( उत्तम ) हैं।

यहां यह ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि ये चारों प्रकार के भक्त अपनी ओर से भगवान से संबंध जोड़ने की पहल करते हैं। भगवान संबंध जोड़ें या ना जोड़ें - भक्त इसकी परवाह नहीं करता। वह तो अपनी तरफ से पहले संबंध जोड़ता है एवं अपने को भगवान के प्रति समर्पित कर देता है, इसलिए वह उदार कहा गया है।

सकाम-भाव से भी भगवान की भक्ति करने वाले मनुष्य उदार अर्थात् पुण्यवान ही होते हैं। अपनी कामना की पूर्ति हो या न हो, तो भी भक्त भगवान का ही भजन करते हैं, भगवान के भजन को नहीं छोड़ते। भोग भोगने और संग्रह करने की लालसा को छोड़कर भगवान का भजन करना तो भक्त की उदारता ही है।

भगवान को जानने हेतु अपनी जिज्ञासा को भगवान से ही पूरा करना जिज्ञासु भक्त की उदारता है।
ज्ञानी भक्त मानवीय चेतना को परमात्मा की अनंत चेतना के साथ एकाकार करके दिव्या-रसानुभूति की प्राप्ति करता है।

ऐसे भक्त किसी अन्य देव - देवी, यक्ष - राक्षस, भूत - प्रेत आदि के शरण नहीं जाते। वे साक्षात् भगवान के ही शरणागत होते हैं, इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसे भक्तों को उदार अर्थात् पुण्यवान एवं श्रेष्ठ कहा है।

सर्वोपरि अनन्य-भाव से भगवान के शरणागत होना ही भक्त की उदारता है।

( लेखक ज्योतिषाचार्य हैं ।)



Sankata Prasad Dwived

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