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Durvasa Rishi: भगवान शिव के अवतार थे ऋषि दुर्वासा !

Durvasa Rishi: ऋषि दुर्वासा इसी शक्ति के कारण चाहे तो श्राप देकर सामने वाले को भस्म कर सकते थे या फिर वरदान के द्वारा किसी का जीवन खुशियों से भर देते थे। यह सब उन्हें क्रोधित करने व प्रसन्न करने से जुड़ा था।

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Published on: 19 May 2023 3:33 AM IST
Durvasa Rishi: भगवान शिव के अवतार थे ऋषि दुर्वासा !
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(Pic: Social Media)

Durvasa Rishi: भारत के पौराणिक इतिहास में अनेक ऐसे ऋषियों, मुनियों का जिक्र है, जिनके पास अलौकिक शक्तियां थीं। वह अपनी इसी शक्ति के कारण चाहे तो श्राप देकर सामने वाले को भस्म कर सकते थे या फिर वरदान के द्वारा किसी का जीवन खुशियों से भर देते थे। यह सब उन्हें क्रोधित करने व प्रसन्न करने से जुड़ा था।ऐसे ही एक महर्षि थे दुर्वासा ऋषि, जो अपने क्रोध के लिए जाने जाते थे। ऋषि दुर्वासा को शिव का अवतार कहा जाता था। लेकिन जहां भोले शंकर को प्रसन्न करना बेहद आसान माना जाता है, वहीं ऋषि दुर्वासा को प्रसन्न करना शायद सबसे मुश्किल काम था। उनका ज्ञान एवं तपोबल था। वे एक सिद्ध योगी हैं। उन्हें क्रोध और श्राप देने के कारण जाना जाता है।

इनके पिता महर्षि अत्रि और माता सती अनुसूइया जी थीं। महर्षि अत्रि जी ब्रह्मा के मानस पुत्र थे और उनकी पत्नी अनुसूया जी पतिव्रता थीं, देवी सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती ने भगवन ब्रह्मा, विष्णु और महेश को उनके सतीत्व की परीक्षा लेने आग्रह किया। माता सती अनुसूइया ने अपने तपोबल से उन्हें शिशुओं के रूप में बदल दिया। माता सरस्वती, माँ लक्ष्मी और माँ पार्वती के अनुरोध पर सती अनुसूया ने उन्हें मुक्त कर दिया। त्रिदेव ने उन्हें अपने समान पुत्रों की प्राप्ति का वरदान दिया। भगवान् ब्रह्मा जी चंद्रमा के रूप में, भगवान् विष्णु दत्तात्रेय जी के रूप में और भगवान् शिव जी दुर्वासा के रूप में अपने-अपने अंश से माता सती अनुसूया के पुत्र के रूप में प्रकट हुए।

पूर्वकाल में महर्षि अत्रि ने संतान की प्राप्ति के लिए भगवान् ब्रह्मा से प्रार्थना की तो उन्होंने ऋषि अत्री को अपनी पत्नी सती अनुसूइया सहित ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्र कामना के लिए कठोर तपस्या करने का आदेश दिया। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर त्रिदेव ने प्रकट होकर वरदान दिया कि त्रिदेव उनके पुत्र रूप में जन्म लेंगे। दुर्वासा ऋषि ने अपनी साधना एवं तपस्या द्वारा अनेक सिद्धियों को प्राप्त किया और अष्टांग योग का अवलम्बन कर अनेक महत्वपुर्ण उपलब्धियां प्राप्त कीं। ऋषि दुर्वासा जीवन-भर भक्तों की परीक्षा लेते रहे अपने महा ज्ञानी स्वरूप होने तथा सभी सिद्धियों के बावजूद भी ऋषि दुर्वासा अपने क्रोध को नियंत्रित नहीं कर पाते थे। उन्हें कभी-कभी अकारण ही भयंकर क्रोध भी आ जाता था। अपने क्रोधवश वे किसी को भी श्राप दे देते थे। उनके श्राप के कारण शकुन्तला को अनेक कष्ट झेलने पड़े।

एक बार कुंती के अतिथ्य सत्कार से प्रसन्न होकर उन्होंने उसे एक मंत्र प्रदान कर दिया जिसके द्वारा वह किसी भी देवता का आहवान कर सकती थी। इसी वरदान स्वरुप कुंती ने सूर्यदेव का आवाहन किया, जिससे परिणाम स्वरूप कुँवारेपन में ही उन्हें कर्ण की प्राप्ति हुई। बाद में पाण्डु के शापग्रस्त होने पर उन्होंने और माद्री ने युधिष्टर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव की प्राप्ति की।

दुर्वासा ऋषि ने भगवान् श्री कृष्ण की परीक्षा लेने के लिए उन्हें अपनी जूठी खीर को शरीर पर मलने को कहा। भगवान् श्री कृष्ण ने ऐसा ही किया। ऋषि दुर्वासा ने प्रसन्न होकर भगवान् श्री कृष्ण को वरदान दिया कि सृष्टि का जितना प्रेम अन्न में होगा उतना ही उनमें भी होगा। ऋषि दुर्वासा महाराज अम्बरीश के राजभवन में पधारे। उस दिन राजा अंबरीश निर्जला एकादशी उपरांत द्वादशी व्रत पालन में थे। पूजा पाठ करने के पश्चात राजा ने ऋषि दुर्वासा को प्रसाद ग्रहण करने का निवेदन किया ताकि वे अपना व्रत पूर्ण कर सकें। परंतु ऋषि दुर्वासा यमुना स्नान करके ही कुछ ग्रहण करने की बात कहकर चले गए। इधर पारण का समय समाप्त हो रहा हो रहा था; अतः ब्राह्मणों के परामर्श के अनुसार राजा ने प्रसाद के रूप में चरणामृत ग्रहण कर लिया।

ऋषि दुर्वासा ने यह जान कर राजा अम्बरीश को भस्म करने के लिए अपनी जटा से क्रत्या नामक राक्षसी को उत्पन्न किया। राजा ने बिना विचलित हुए भगवान विष्णु का स्मरण किया। सुदर्शन चक्र राजा अंबरीश रखते थे। कृत्या जैसे ही राजा पर झपटी। उसे सुदर्शन चक्र ने नष्ट कर दिया। अब दुर्वासा ऋषि आगे आगे और सुदर्शन चक्र उनके पीछे पीछे। दुर्वासा जी को अपना पिंड छुड़ाना भारी पड़ गया। तीनों लोकों में भागने के बाद वे भगवान् शिव की शरण में गए तो भगवान् शिव ने अपने असमर्थता प्रकट की और भगवान् विष्णु की शरण में जाने को कहा।

भगवान् विष्णु ने उन्हें राजा अम्बरीश से क्षमा मांगने को कहा। ऋषि दुर्वासा राजा अम्बरीश की शरण में गए और अपने आचरण के लिए क्षमा माँगी। महर्षि दुर्वासा की यह दशा देखकर राजा अम्बरीश ने सुदर्शन चक्र की स्तुति कर उन्हें लौट जाने का आग्रह किया। दुर्योधन ने ऋषि दुर्वासा के आगमन पर उनकी बहुत आवभगत की जिससे वे खुश हो गए। उन्हें प्रसन्न कर दुर्योधन ने उन्हें युधिष्ठिर का आथित्य स्वीकार करने को कहा और ऐसे वक्त जाने का आग्रह किया जब वे भोजन कर चुकें। ऐसा ही हुआ। द्रौपदी ने सूर्यदेव द्वारा दी गई दिव्य बटलोई को माँज दिया था। ऋषि अपने शिष्यों सहित स्नान ध्यान को तत्पर हुए तो द्रौपदी ने भगवान् श्री कृष्ण का स्मरण किया।

भगवान् श्री कृष्ण प्रकट हो गए। द्रौपदी ने अपनी समस्या बताई तो उन्होंने बटलोई को माँगा। उसे अन्दर से देखा तो एक साग का पत्ता उन्हें लगा हुआ मिल गया। उन्होंने उसे ही खा लिया। उनके साग के पत्ते को खाते ही दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्यों की भूख खत्म हो गई। वे सब युधिष्ठिर के श्राप के भय से वहाँ लौट कर ही नहीं आये। कहा जाता है कि गुरु नानक देव दुर्वासा ऋषि के अंश रूप में पैदा हुए थे।

(कंचन सिंह)



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