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दशहरा: बुराई पर जीत और मां की पूजा का उत्सव
भारतीय संस्कृति में दशहरा का बहुत अधिक महत्व है। नवरात्रि के नौ दिनों के बाद अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को इसका आयोजन किया जाता हैं। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार भगवान राम ने इसी दिन रावण का वध किया था तथा देवी दुर्गा ने नौ रात्रि एवं दस दिन के युद्ध के उपरान्त इसी दिन महिषासुर नामक राक्षस पर विजय प्राप्त की थी। दशहरा को असत्य पर सत्य और बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में मनाया जाता है, इसलिए इस दशमी को विजयादशमी के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता के अनुसार दशहरा वर्ष की तीन अत्यन्त शुभ तिथियों में से एक है, अन्य दो हैं चैत्र शुक्ल की एवं कार्तिक शुक्ल की प्रतिपदा।
अहंकार पर विजय का पर्व दशहरा शारदीय नवरात्रि के दसवें दिन आता है। आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की दशमी को देशभर दशहरे का उत्सव मनाया जाता है। इस बार वर्ष 2019 में दशहरा या विजयादशमी का पर्व 08 अक्टूबर मनाया जाएगा।
अस्त्र-शस्त्र की पूजा की परंपरा
पौराणिक कथाओं के अनुसार दशहरे के दिन ही भगवान राम ने लंका के राजा रावण का वध किया था। इसी की खुशी में दशमी तिथि को विजयादशमी के पर्व के रूप में मनाया जाता है। युद्ध में विजय के कारण और पांडवों से जुड़ी एक कथा के कारण विजयदशमी को हथियार (अस्त्र-शस्त्र) पूजने की परंपरा भी है। दशहरे के दिन अगर किसी को नीलकंठ पक्षी दिख जाए तो काफी शुभ होता है। नीलकंठ भगवान शिव का प्रतीक है जिसके दर्शन से सौभाग्य और पुण्य की प्राप्ति होती है। दशहरे के दिन गंगा स्नान करने को भी बहुत महत्वपूर्ण बताया गया है। दशहरे के दिन गंगा स्नान करने का शुभ फल कई गुना बढ़ जाता है। इसलिए दशहरे दिन लोग गंगा या अपने इलाके की पास किसी नदी में स्नान करने जाते हैं।
शमी का पूजन
हिंदू धर्म में विजयादशमी के दिन शमी वृक्ष का पूजन किया जाता है। खासकर क्षत्रियों में इस पूजन का महत्व ज्यादा है। महाभारत के युद्ध में पांडवोंं ने इसी वृक्ष के ऊपर अपने हथियार छुपाए थे और बाद में उन्हें कौरवों से जीत मिली थी। विक्रमादित्य के समय में सुप्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर ने भी अपने बृहतसंहिता नामक ग्रंथ के कुसुमलता अध्याय में शमीवृक्ष अर्थात खिजड़े का उल्लेख किया है। वराहमिहिर के अनुसार जिस साल शमीवृक्ष ज्यादा फूलता-फलता है, उस साल सूखे की स्थिति का निर्माण होता है। विजयादशमी के दिन इसकी पूजा करने का एक तात्पर्य यह भी है कि यह वृक्ष आने वाली कृषि विपदा का पहले से संकेत दे देता है जिससे किसान पहले से भी ज्यादा पुरुषार्थ करके आनेवालेे संकट का सामना कर सकता है।
दरिद्रता दूर करने के लिए रखें नवमी पर व्रत
महानंदा नवमी के दिन पूजाघर में दीपक जलाएं और ऊं हीं महालक्ष्म्यै नम: का जाप करें। उसके बाद घर का कूड़ा सूप में रखकर घर के बाहर कर दें। इस प्रक्रिया में घर का सब कूड़ा इक कर बाहर कर देना चाहिए। इसे अलक्ष्मी का विसर्जन कहा जाता है। महानंदा व्रत के दिन पूजा करने का खास विधान है। महानंदा नवमी से कुछ दिन पहले घर की साफ-सफाई करें। नवमी के दिन पूजाघर के बीच में बड़ा दीपक जलाएं और रात भर जगे रहें। रात्रि जागरण कर ऊं ह्रीं महालक्ष्म्यै नम: का जाप करते रहें। जाप के बाद रात में पूजा कर पारण करना चाहिए। साथ ही नवमी के दिन कुंवारी कन्याओं को भोजन करा कुछ दान दें फिर उनसे आशीर्वाद मांगें। आशीर्वाद आपके लिए बहुत शुभ होगा।
ऐसा माना जाता है कि नवमी के दिन व्रत तथा पूजा करने से घर के सभी दुख और क्लेश दूर हो जाते हैं। इस व्रत के मनुष्य को न केवल भौतिक सुख मिलते हैं बल्कि मानसिक शांति भी मिलती है। अगर आपको ऐसा लगता है कि आपके घर में लक्ष्मी नहीं आ रही हैं और अगर आती भी हैं तो टिक नहीं रहीं तो आप महानंदा नवमी का व्रत जरूर करें। इस व्रत को करने और मन से लक्ष्मी का ध्यान कर पूजन करने से घर में सुख-समृद्धि आती है जो हमारी आने वाली पीढिय़ों के लिए लाभदायी होता है।
महानंदा नवमी से जुड़ी कथा
महानंदा नवमी व्रत की कथा के अनुसार एक बार एक साहूकार अपनी बेटी के साथ रहता था। बेटी बहुत धार्मिक प्रवृत्ति की थी। वह प्रतिदिन एक पीपल के वृक्ष की पूजा करती थी। उस पीपल के वृक्ष में लक्ष्मी जी वास करती थीं। एक दिन लक्ष्मी जी ने साहूकार की बेटी से दोस्ती कर ली। लक्ष्मी जी एक दिन साहूकार की बेटी को अपने घर ले गयीं और उसे खूब खिलाया-पिलाया। उसके बाद बहुत से उपहार देकर बेटी को विदा कर दिया। साहूकार की बेटी को विदा करते समय लक्ष्मी जी बोली कि मुझे कब अपने घर बुला रही हो। इस पर साहूकार की बेटी उदास हो गयी। उदासी से उसने लक्ष्मी जी को अपने घर आने का न्योता दे दिया। घर आकर उसने अपने पिता को यह बात बताई और कहा कि लक्ष्मी जी का सत्कार हम कैसे करेंगे। इस पर साहूकार ने कहा कि हमारे पास जो भी है उसी से लक्ष्मी जी का स्वागत करेंगे। तभी एक चील उनके घर में हीरों का हार गिराकर चली गयी जिसे बेचकर साहूकार की बेटी ने लक्ष्मी जी के लिए सोने की चौकी, सोने की थाली और दुशाला खरीदी।
लक्ष्मीजी थोड़ी देर बाद गणेश जी के साथ पधारीं। उस कन्या ने लक्ष्मी-गणेश की खूब सेवा की। उन्होंने उस बालिका की सेवा से प्रसन्न होकर समृद्ध होने का आशीर्वाद दिया।
यहां हैं दुर्गा पूजा की जड़ें
माना जाता है कि दुर्गा पूजा की शुरुआत सांस्कृतिक भूमि मानी जाने वाली बंग भूमि अर्थात बंगाल से हुई, लेकिन आज पूरे देश में दुर्गापूजा का अनुष्ठान हर्षोल्लास से किया जाता है। इस दौरान दुर्गा मां की नई मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा कर नौ दिन तक विधि-विधान से पूजन किया जाता है और फिर उन्हें विदाई देते हुए बहते जल में प्रवाहित किया जाता है।
आत्मविश्वास में वृद्धि करती है दुर्गा पूजा
नवरात्रि के समय में जगह-जगह पंडालों में मंत्रोच्चारण और वाद्य यंत्रों की ध्वनि से ऐसा दैवीय वातावरण निर्मित होता है, जो मन में छिपे डर का नाश करने में समक्ष है। उस समय मां दुर्गा के विग्रह के सामने विनती करने से मां के समीप होने का अहसास होता है। मंत्र का जाप और सप्तशती के सस्वर पाठ की गूंज कानों से मस्तिष्क में प्रवेश कर अपार मानसिक बल और आत्मविश्वास बढ़ाती है।
ये धर्मग्रंथ करते हैं मान्यताओं की पुष्टि
शारदातिलकम, महामंत्र महार्णव, मंत्रमहोदधि जैसे ग्रंथ और कुछ पारंपरिक मान्यताएं दुर्गा पूजा से होने वाले लाभ की पुष्टि करते हैं। बांग्ला मान्यताओं के अनुसार गोबर, गोमूत्र, लकड़ी व जूट के ढांचे, धान के छिलके, सिंदूर, विशेष वनस्पतियों, पवित्र नदियों की मिट्टी और जल के साथ निषिद्धों पाली के रज (वेश्याओं के घर या क्षेत्र की मिट्टी) के समावेश से निर्मित देवी शक्ति की प्रतिमा का पूजन किया जाता है।
यहां बनती हैं दुनिया की सबसे अधिक दुर्गा मूर्ति
यंत्रों और मंत्रों से विधिपूर्वक उपासना करने पर पूजा पंडाल में वातावरण लोक और परलोक में उत्थान की ऊर्जा से सराबोर माना गया है। एक तरफ जहां कोलकाता में दुनिया का सबसे बड़ा वेश्यालय सोनागाछी है, वहीं कोलकाता के कुमरटली इलाके में भारत की सर्वाधिक देवी प्रतिमाओं का निर्माण होता है। यहां बनने वाली मूर्तियों के निर्माण में निषिद्धो पाली के रज के रूप में सोनागाछी की मिट्टी का इस्तेमाल होता है।
तंत्र का अर्थ है यह
तंत्र यानी प्राचीन विज्ञान। तन का आनंद या शारीरिक सुख तांत्रह्म्य उपासना का मुख्य उद्देश्य हैं। अध्यात्म में कामचक्र को ही कामना का आधार माना जाता है। यदि कामवासना से जुड़े विकारों को दुरुस्त कर लिया जाए और ऊर्जा प्रबंधन ठीक कर लिया जाए तो भौतिक कामनाओं की पूर्ति का मार्ग आसान हो जाता है। आध्यात्म के इन सूत्रों को जानकर व्यक्ति चाहे तो अपनी ऊर्जा काम चक्र पर खर्च कर यौन सुख प्राप्त कर ले और चाहे तो उसी चक्र को सक्रिय करके अपनी समस्त कामनाओं की पूर्ति कर लें।
पीहर आती हैं मां पार्वती
महालया पर देवी की अनगढ़ प्रतिमा को नेत्र प्रदान किए जाते हैं। यह प्रक्रिया चक्षु-दान कहलाती है और यहीं से पूजा के पर्व का आगाज माना जाता है। कहते हैं कि देवी अपने साथ गणपति,कार्तिकेय को लेकर अपने महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के विराट स्वरूप में दस दिवस के लिए अपने पति को कैलाश पर छोडक़र अपने पीहर आती हैं।
इस तरह होती है देवी की प्राण प्रतिष्ठा
भारत वर्ष में अधिकतर प्रतिपदा से ही देवी की स्थापना हो जाती है। लेकिन बंगाल में महाषष्ठी की संध्या में कालीबोधन के साथ देवी के श्रीमुख से आवरण हटने के साथ देवी का प्राकट्य माना जाता है। महाअष्टमी का आगाज होम और संधिपूजा से होता है। कुल 108 प्रज्वलित दीपों के समक्ष निर्जल मुख से मंत्रोच्चार के साथ संधिक्षण में देवी की प्राण प्रतिष्ठा होती है।