Ekadashi Vrat Vidhi: जाने एकादशी व्रत के बारे में सम्पूर्ण जानकारी

Ekadashi Vrat Vidhi: महत्व एवं विधि

Kanchan Singh
Published on: 29 May 2024 6:02 AM GMT
Ekadashi Vrat ( Social Media Photo)
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Ekadashi Vrat ( Social Media Photo)

1-एकादशी का उद्गम,कथा एवं क्यों रखा जाता है एकादशी व्रत।

2-कबसे शुरू करें, कैसे रखें व्रत?

3-महत्व एवं विधि।

संस्कृत शब्द एकादशी का शाब्दिक अर्थ ग्यारह होता है। एकादशी पंद्रह दिवसीय पक्ष (चन्द्र मास) के ग्यारहवें दिन आती है। एक चन्द्र मास (शुक्ल पक्ष) में चन्द्रमा अमावस्या से बढ़कर पूर्णिमा तक जाता है। उसके अगले पक्ष में (कृष्ण पक्ष) वह पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्र से घटते हुए अमावस्या तक जाता है। इसलिए हर कैलंडर महीने (सूर्या) में एकादशी दो बार आती है। शुक्ल एकादशी जो कि बढ़ते हुए चन्द्रमा के ग्यारहवें दिन आती है। कृष्ण एकादशी जो कि घटते हुए चन्द्रमा के ग्यारहवें दिन आती हैं। ऐसा निर्देश हैं कि हर वैष्णव को एकादशी के दिन व्रत करना चाहिये, इस प्रकार की गई तपस्या भक्तिमयी जीवन के लिए अत्यंत लाभकारी हैं।

एकादशी का उद्गम

पद्मा पुराण के चतुर्दश अध्याय में, क्रिया-सागर सार नामक भाग में, श्रील व्यासदेव एकादशी के उद्गम की व्याख्या जैमिनी ऋषि को इस प्रकार करते हैं-इस भौतिक जगत् की उत्पत्ति के समय, परम पुरुष भगवान् ने, पापियों को दण्डित करने के लिए पाप का मूर्तिमान रूप लिए एक व्यक्तित्व की रचना की (पापपुरुष)। इस व्यक्ति के चारों हाथ पाँव की रचना अनेक पाप-कर्मों से की गयी थी। इस पापपुरुष को नियंत्रित करने के लिए यमराज की उत्पत्ति अनेक नरकीय ग्रह प्रणालियों की रचना के साथ हुई। वे जीवात्माएं जो अत्यंत पापी होती हैं, उन्हें मृत्युपर्यंत यमराज के पास भेज दिया जाता है, यमराज ,जीव को उसके पापों के भोगों के अनुसार नरक में पीड़ित होने के लिए भेज देते हैं।


इस प्रकार जीवात्मा अपने कर्मों के अनुसार सुख और दुःख भोगने लगी। इतने सारी जीवात्माओं को नरक में कष्ट भोगते देख परम कृपालु भगवान् को उनके लिए बुरा लगने लगा। उनकी सहायतावश भगवान ने अपने स्वयं के स्वरुप से, पाक्षिक एकादशी के रूप को अवतरित किया। इस कारण, एकादशी एक चन्द्र पक्ष के पन्द्रवें दिन उपवास करने के व्रत का ही व्यक्तिकरण है। इस कारण एकादशी और भगवान् श्री विष्णु अभिन्न नहीं हैं। श्रीएकादशी व्रत अत्यधिक पुण्य कर्म हैं, जो कि हर लिए गए संकल्पों में शीर्ष स्थान पर स्थित है।

तदुपरांत विभिन्न पाप कर्मी जीवात्माएं एकादशी व्रत का नियम पालन करने लगीं और उस कारण उन्हें तुरंत ही वैकुण्ठ-धाम की प्राप्ति होने लगी। श्रीएकादशी के पालन से हुए अधिरोहण से , पापपुरुष (पाप का मूर्तिमान स्वरुप) को धीरे धीरे दृश्य होने लगा कि अब उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ने लगा है। वह भगवान् श्रीविष्णु के पास प्रार्थना करते हुए पहुँचा, “हे प्रभु, मैं आपके द्वारा निर्मित आपकी ही कृति हूँ और मेरे माध्यम से ही आप घोर पाप कर्मों वाले जीवों को अपनी इच्छा से पीड़ित करते हैं। परन्तु अब श्रीएकादशी के प्रभाव से अब मेरा ह्रास हो रहा है। आप कृपा करके मेरी रक्षा एकादशी के भय से करें। कोई भी पुण्य कर्म मुझे नहीं बाँध सकता है, परन्तु आपके ही स्वरुप में एकादशी मुझे प्रतिरोधित कर रही है। मुझे ऐसा कोई स्थान ज्ञात नहीं जहाँ मैं श्रीएकादशी के भय से मुक्त रह सकूं। हे मेरे स्वामी! मैं आपकी ही कृति से उत्पन्न हूँ, इसलिए कृपा करके मुझे ऐसे स्थान का पता बताईये जहाँ मैं निर्भीक होकर निवास कर सकूँ।”

तदुपरांत, पापपुरुष की स्थिति पर अवलोकन करते हुए श्रीभगवान् विष्णु ने कहा, “हे पापपुरुष! उठो! अब और शोकाकुल मत हो। केवल सुनो, और मैं तुम्हे बताता हूँ कि तुम एकादशी के पवित्र दिन पर कहाँ निवास कर सकते हो। एकादशी का दिन जो त्रिलोक में लाभ देने वाला है, उस दिन तुम अन्न जैसे खाद्य पदार्थ की शरण में जा सकते हो। अब तुम्हारे पास शोकाकुल होने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि मेरे ही स्वरुप में श्रीएकादशी देवी अब तुम्हे अवरोधित नहीं करेगी।” पापपुरुष को आश्वासन देने के बाद भगवान श्रीविष्णु अंतर्ध्यान हो गए और पापपुरुष पुनः अपने कर्मों को पूरा करने में लग गया। भगवान विष्णु के इस निर्देश के अनुसार, संसार भर में जितने भी पाप कर्म पाए जा सकते हैं वे सब इन खाद्य पदार्थ (अनाज) में निवास करते हैं। इसलिए वे मनुष्य गण जो कि जीवात्मा के आधारभूत लाभ के प्रति सजग होते हैं, वे कभी एकादशी के दिन अन्न नहीं ग्रहण करते हैं।


एकादशी व्रत धारण करना

सभी वैदिक शास्त्र एकादशी के दिन पूर्ण रूप से उपवास (निर्जल) करने की दृढ़ता से अनुशंसा करते हैं। आध्यात्मिक प्रगति के लिए आयु आठ से अस्सी तक के हर किसी को वर्ण, आश्रम, लिंग भेद या और किसी भौतिक वैचारिकता की अपेक्षा कर के एकादशी के दिन व्रत करने की अनुशंसा की गयी है।

वे लोग जो पूर्ण रूप से उपवास नहीं कर सकते उनके लिए मध्याह्न या संध्या काल में एक बार भोजन करके एकादशी व्रत करने की भी अनुशंसा की गयी हैं। परन्तु इस दिन किसी भी रूप में, किसी को भी, किसी भी स्थिति में अन्न नहीं ग्रहण करना चाहिये।

एकादशी पर भक्तिमयी सेवा

एकादशी को उसके सभी लाभों के साथ ऐसा उपाय या साधन समझना चाहिये जो सभी जीवों के परम लक्ष्य, भगवद्-भक्ति, को प्राप्त करने में सहायक हैं । भगवान् की कृपा से यह दिन भगवान् की भक्तिमयी सेवा करने के लिए अति शुभकारी एवं फलदायक बन गया है। पापमयी इच्छाओं से मुक्त हो, एक भक्त विशुद्ध भक्तिमयी सेवा कर सकता है और परमेश्वर का कृपापात्र बन सइसलिए, भक्तों के लिए, एकादशी के दिन व्रत करना साधना-भक्ति के मार्ग में प्रगति करने का सशक्त माध्यम है। व्रत करने की क्रिया चेतना का शुद्धिकरण करती है और भक्त को कितने ही भौतिक विचारों से मुक्त करती है। क्योंकि इस दिन की गई भक्तिमयी सेवा का लाभ किसी और दिन की गई सेवा से कई गुना अधिक होता है, इसलिए भक्त जितना अधिक से अधिक हो सके आज के दिन जप, कीर्तन, भगवान् की लीला-संस्मरण पर चर्चाएँ आदि अन्य भक्तिमयी सेवाएं किया करते हैं।

भक्तों के लिए इस दिन कम से कम पच्चीस जप माला संख्या पूरी करने, भगवान् के लीला-संस्मरणों को पढ़ने एवं भौतिक कार्यकलापों में न्यूनतम संलग्न होने की अनुशंसा की है। वे भक्त जो पहले से ही भगवान् की भक्ति की सेवाओं (जैसे पुस्तक वितरण, प्रवचन आदि) में सक्रियता से लगे हुए हैं, उनके लिए उन्होंने कुछ छूट दी हैं, जैसे उन खाद्यों को वे इस दिन भी खा या पी सकते है जिनमें अन्न नहीं हैं।

एकादशी का महात्म्य-

भक्ति-सन्दर्भ में स्कन्द पुराण में से लिया हुआ एक श्लोक भर्त्सना करते हुए बताता है कि जो मनुष्य एकादशी के दिन अन्न ग्रहण करते हैं, वे मनुष्य अपने माता, पिता, भाइयों एवं अपने गुरु की मृत्यु के दोषी होते हैं। वैसे मनुष्य अगर वैकुंठ धाम तक भी पहुँच जाएँ तो भी वे वहाँ से नीचे गिर जाते हैं। इस दिन किसी भी तरह के अन्न को ग्रहण करना सर्वथा वर्जित है, चाहे वह भगवान् विष्णु को ही क्यों न अर्पित हो।

ब्रह्म-वैवर्त पुराण में कहा गया है कि जो कोई भी एकादशी के दिन व्रत करता है वो सभी पाप कर्मों के दोषों से मुक्त हो जाता हैं। आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करता है। मूल सिद्धान्त केवल उस दिन भूखे रहना नहीं है, बल्कि अपनी निष्ठा और प्रेम को गोविन्द, या कृष्ण पर और भी सुदृढ़ करना है। एकादशी के दिन व्रत का मुख्य कारण है अपनी शरीर की जरूरतों को घटाना और अपने समय का भगवान् की सेवा में जप या किसी और सेवा के रूप में व्यय करना है। उपवास के दिन सर्वश्रेष्ठ कार्य तो भगवान् श्रीगोविन्द की मंगलमय लीलाओं का ध्यान करना और उनके पावन नामों को निरंतर सुनते एकादशी व्रत के पुण्य के समान और कोई पुण्य नहीं है ।

युधिष्ठिर ने पूछा: वासुदेव ! आपको नमस्कार है ! कृपया आप यह बताइये कि चैत्र शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है?भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! एकाग्रचित्त होकर यह पुरातन कथा सुनो, जिसे वशिष्ठजी ने राजा दिलीप के पूछने पर कहा था ।वशिष्ठजी बोले : राजन् ! चैत्र शुक्लपक्ष में ‘कामदा’ नाम की एकादशी होती है । वह परम पुण्यमयी है । पापरुपी ईँधन के लिए तो वह दावानल ही है ।

प्राचीन काल की बात है: नागपुर नाम का एक सुन्दर नगर था, जहाँ सोने के महल बने हुए थे । उस नगर में पुण्डरीक आदि महा भयंकर नाग निवास करते थे । पुण्डरीक नाम का नाग उन दिनों वहाँ राज्य करता था । गन्धर्व, किन्नर और अप्सराएँ भी उस नगरी का सेवन करती थीं । वहाँ एक श्रेष्ठ अप्सरा थी, जिसका नाम ललिता था । उसके साथ ललित नामवाला गन्धर्व भी था । वे दोनों पति पत्नी के रुप में रहते थे । दोनों ही परस्पर काम से पीड़ित रहा करते थे । ललिता के हृदय में सदा पति की ही मूर्ति बसी रहती थी और ललित के हृदय में सुन्दरी ललिता का नित्य निवास था ।

एक दिन की बात है । नागराज पुण्डरीक राजसभा में बैठकर मनोंरंजन कर रहा था नागों में श्रेष्ठ कर्कोटक को ललित के मन का सन्ताप ज्ञात हो गया, अत: उसने राजा पुण्डरीक को उसके पैरों की गति रुकने और गान में त्रुटि होने की बात बता दी । कर्कोटक की बात सुनकर नागराज पुण्डरीक की आँखे क्रोध से लाल हो गयीं । उसने गाते हुए कामातुर ललित को शाप दिया : ‘दुर्बुद्धे ! तू मेरे सामने गान करते समय भी पत्नी के वशीभूत हो गया, इसलिए राक्षस हो जा ।’

महाराज पुण्डरीक के इतना कहते ही वह गन्धर्व राक्षस हो गया । भयंकर मुख, विकराल आँखें और देखनेमात्र से भय उपजानेवाला रुप - ऐसा राक्षस होकर वह कर्म का फल भोगने लगाललिता अपने पति की विकराल आकृति देख मन ही मन बहुत चिन्तित हुई । भारी दु:ख से वह कष्ट पाने लगी । सोचने लगी: ‘क्या करुँ? कहाँ जाऊँ? मेरे पति पाप से कष्ट पा रहे हैं…’

वह रोती हुई घने जंगलों में पति के पीछे पीछे घूमने लगी । वन में उसे एक सुन्दर आश्रम दिखायी दिया, जहाँ एक मुनि शान्त बैठे हुए थे । किसी भी प्राणी के साथ उनका वैर विरोध नहीं था । ललिता शीघ्रता के साथ वहाँ गयी और मुनि को प्रणाम करके उनके सामने खड़ी हुई । मुनि बड़े दयालु थे । उस दु:खिनी को देखकर वे इस प्रकार बोले : ‘शुभे ! तुम कौन हो ? कहाँ से यहाँ आयी हो? मेरे सामने सच सच बताओ ।’

ललिता ने कहा : महामुने ! वीरधन्वा नामवाले एक गन्धर्व हैं । मैं उन्हीं महात्मा की पुत्री हूँ । मेरा नाम ललिता है । मेरे स्वामी अपने पाप दोष के कारण राक्षस हो गये हैं । उनकी यह अवस्था देखकर मुझे चैन नहीं है । ब्रह्मन् ! इस समय मेरा जो कर्त्तव्य हो, वह बताइये । विप्रवर! जिस पुण्य के द्वारा मेरे पति राक्षसभाव से छुटकारा पा जायें, उसका उपदेश कीजिये ।

ॠषि बोले : भद्रे ! इस समय चैत्र मास के शुक्लपक्ष की ‘कामदा’ नामक एकादशी तिथि है, जो सब पापों को हरनेवाली और उत्तम है । तुम उसीका विधिपूर्वक व्रत करो और इस व्रत का जो पुण्य हो, उसे अपने स्वामी को दे डालो । पुण्य देने पर क्षणभर में ही उसके शाप का दोष दूर हो जायेगा ।

राजन् ! मुनि का यह वचन सुनकर ललिता को बड़ा हर्ष हुआ । उसने एकादशी को उपवास करके द्वादशी के दिन उन ब्रह्मर्षि के समीप ही भगवान वासुदेव के (श्रीविग्रह के) समक्ष अपने पति के उद्धार के लिए यह वचन कहा: ‘मैंने जो यह ‘कामदा एकादशी’ का उपवास व्रत किया है, उसके पुण्य के प्रभाव से मेरे पति का राक्षसभाव दूर हो जाय ।’

वशिष्ठजी कहते हैं : ललिता के इतना कहते ही उसी क्षण ललित का पाप दूर हो गया । उसने दिव्य देह धारण कर लिया । राक्षसभाव चला गया और पुन: गन्धर्वत्व की प्राप्ति हुई ।नृपश्रेष्ठ ! वे दोनों पति पत्नी ‘कामदा’ के प्रभाव से पहले की अपेक्षा भी अधिक सुन्दर रुप धारण करके विमान पर आरुढ़ होकर अत्यन्त शोभा पाने लगे । यह जानकर इस एकादशी के व्रत का यत्नपूर्वक पालन करना चाहिए ।

मैंने लोगों के हित के लिए तुम्हारे सामने इस व्रत का वर्णन किया है । ‘कामदा एकादशी’ ब्रह्महत्या आदि पापों तथा पिशाचत्व आदि दोषों का नाश करनेवाली है । राजन् ! इसके पढ़ने और सुनने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है ।

नमो भगवते वासुदेवाय नम।

( लेखिका प्रख्यात ज्योतिषाचार्य हैं। )

Shalini Rai

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