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Eleventh Rudra and Rudrani: जानिए, एकादश रुद्र एवं रुद्राणी का परिचय
Ekadasa Rudra and Rudrani: श्रुति का कथन है कि एक ही रूद्र हैं, जो सभी लोगों को अपनी शक्ति से संचालित करते हैं। वही सब के भीतर अंतर्यामी रूप से भी स्थित हैं। आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक रूप से उनके ग्यारह पृथक पृथक नाम श्रुति पुराण आदि में प्राप्त होते हैं।
Ekadasa Rudra and Rudrani in Hindi: भगवान रुद्र ही इस सृष्टि के सृजन, पालन और संहार कर्ता हैं। शंभु, शिव, ईश्वर और महेश्वर आदि नाम उन्हीं के पर्याय हैं। श्रुति का कथन है कि एक ही रूद्र हैं, जो सभी लोगों को अपनी शक्ति से संचालित करते हैं। वही सब के भीतर अंतर्यामी रूप से भी स्थित हैं। आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक रूप से उनके ग्यारह पृथक पृथक नाम श्रुति पुराण आदि में प्राप्त होते हैं। बृहदारण्यक उपनिषद में पुरुष के दस प्राण और ग्यारहवां आत्मा यह एकादश आध्यात्मिक रुद्र बताए गए हैं। अंतरिक्ष में स्थित वायु ही हमारे शरीर में प्राणरूप होकर प्रविष्ट है और शरीर के दस स्थानों में कार्य करता है। इसलिए उसे रुद्र प्राण कहते हैं। आत्मा ग्यारहवें रूद्रप्राण के रूप में जाना जाता है।
आधिभौतिक रूद्र पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, सूर्य, चंद्रमा, यजमान, पवन, पावक और शुचि नाम से कहे गए हैं। इनमें प्रथम आठ शिव की अष्टमूर्ति कहलाते हैं, शेष तीन पवमान, पावक और शुचि घोररूप हैं। आधिदैविक रुद्र तारामंडलों में रहते हैं। विभिन्न पुराणों में इनके नाम तथा उत्पत्ति के भिन्न भिन्न कारण मिलते हैं। पुराणों में इनकी उत्पत्ति का कारण प्रजापति के सृष्टि रच पाने की असमर्थता पर उनके क्रोध और अश्रु को बताया गया है।
शिवपुराण के अनुसार एकादश रूद्र
शिवपुराण में शतरुद्रीय संहिता के अन्तर्गत एकादश रुद्रों को शिव के एक अवतार के रूप में वर्णन है। यहाँ कहा गया है कि कश्यप जी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने कश्यप जी की पत्नी सुरभी के गर्भ से ग्यारह रुद्रों के रूप में जन्म लिया। ये एकादश रुद्र अंतरिक्ष लोक के देवता कहे गए हैं। इनकी पत्नियों को रुद्राणी कहा जाता है। इनके निवास स्थान भी निश्चित है। यहाँ दिये गये नाम पूर्वोक्त सभी सूचियों से कुछ भिन्न हैं।
1. कपाली
2. पिंगल
3. भीम
4. विरूपाक्ष
5. विलोहित
6. शास्ता
7. अजपाद
8. अहिर्बुध्न्य
9. शम्भु
10. चण्ड
11. भव
रुद्राणियों के नाम एवं निवास
रुद्र रुद्राणी निवास स्थान
1. मन्यु घी हृदय
2. मनु वृत्ति इन्द्रिय
3. महिनस् उशना आयु
4. महत् उमा व्योम
5. शिव नियुता वायु
6. ऋतध्वज सर्पि अग्नि
7. उग्रतेरस इला जल
8. भव अम्बिका मही
9. काल इरावती सूर्य
10. वामदेव सुधा चंद्र
11. धृतध्वज दीक्षा तप
महाभारत के अनुसार एकादश रुद्र
महाभारत के आदिपर्व में दो भिन्न अध्यायों में एकादश रुद्र के नाम आये है। दोनों जगह नाम और क्रम समान हैं।
1. मृगव्याध
2. सर्प
3. निऋति
4. अजैकपाद
5. अहिर्बुध्न्य
6. पिनाकी
7. दहन
8. ईश्वर
9. कपाली
10. स्थाणु
11. भव
विभिन्न पुराणानुसार एकादश रुद्र
मत्स्यपुराण, पद्मपुराण, स्कन्दपुराण आदि पुराणों में समान रूप से एकादश रुद्रों के नाम मिलते हैं; परन्तु ये नाम महाभारत के खिल भाग हरिवंश तथा अग्निपुराण, गरुडपुराण आदि की उपरिलिखित सूची से कुछ भिन्न हैं :-
1. अजैकपाद
2. अहिर्बुध्न्य
3. विरूपाक्ष
4. रैवत
5. हर
6. बहुरूप
7. त्र्यम्बक
8. सावित्र
9. जयन्त
10. पिनाकी
11. अपराजित
शैवागम में एकादश रूद्रों का नाम
शंभु, पिनाकी, गिरीश, स्थाणु ,भर्ग, सदाशिव, शिव, हर ,शर्व, कपाली तथा भव बताया गया है ।
प्रथम रुद्र
भगवान शंभु की आधिभौतिक पृथ्वी- मूर्ति एकाम्रनाथ( क्षितिलिंग) के नाम से शिवकाशी में है। भगवती पार्वती ने शिवकाशी में इस पृथ्वीलिंग की प्रतिष्ठा करके शंभु- रुद्र की उपासना की थी।
शैवागम में दूसरे रूद्र
का नाम पिनाकी है ,जिनकी जलमूर्ति तमिलनाडु के त्रिचनापल्ली जिले में श्रीरंगम के पास स्थित है। इसे जलतत्वलिंग अथवा जंबूकेश्वर लिंग के नाम से जाना जाता है ।
तीसरे रूद्र
कैलास पर्वत के शिखर पर भगवान रुद्र अपने तीसरे स्वरूप गिरीश के नाम से प्रसिद्ध हैं ।आधिभौतिक रूप मे इन्हीं भगवान गिरीश की अग्निमूर्ति (तेजोलिंग) अरुणाचल में अवस्थित है।
चतुर्थ रूद्र
स्थाणु रुद्र के रूप में चतुर्थ रुद्र की मूर्ति बालाजी से उत्तर आर्काट जिले में स्वर्णमुखी नदी के तट पर अवस्थित है। इस मूर्ति को वायुलिंग कहा जाता है।
पांचवे रुद्र
भगवान भर्ग को भयविनाशक कहा गया है। समुद्र मंथन के पश्चात हलाहल विष के निकलने पर सभी के कल्याण के लिए कालकूट विष का पान उन्होंने ही किया था। परोपकार के प्रतीक भगवान भर्गरुद्र की मूर्ति आकाशलिंग के रूप में चिदंबरम में कावेरी नदी के तट पर स्थित है ,जो चिदंबरेश्वर नटराज के रूप में विद्यमान है। चिदंबर का अर्थ है चिदाकाश, ज्ञानस्वरूप ।
भगवान रूद्र के छठे स्वरूप
को सदाशिव कहा गया है। शिवपुराण के अनुसार सर्वप्रथम निराकार ब्रह्म रूद्र ने अपने लिए मूर्ति की कल्पना की। उस मूर्ति मे स्वयं प्रतिष्ठित हो अंतर्ध्यान हो गये। सदाशिव को ही परमपुरुष, ईश्वर और महेश्वर कहते हैं ।उन्होंने ही ‘शिवलोक’ नामक क्षेत्र का निर्माण किया था जिसे काशी कहते हैं। शक्ति और सदाशिव काशीक्षेत्र का कभी त्याग नहीं करते हैं, इसीलिए वह अविमुक्त क्षेत्र कहलाता है। यह क्षेत्र आनंद का हेतु है आधिभौतिक रूप मे सूर्यदेव सदाशिव रूद्र के ही स्वरूप हैं। शास्त्रों एवं धर्म ग्रंथों के अनुसार सूर्य प्रत्यक्ष देवता है ।सदाशिव और सूर्य में कोई भेद नहीं है। आदित्यं च शिवं विद्याच्छिवमादित्य रूपिणम्।उभयोरन्तरं नास्ति ह्यादित्यस्य शिवस्य च।। सूर्य एवं भगवान शिव को एक ही जानना चाहिए इन दोनों में कोई अंतर नहीं है।
भगवान रुद्र का सातवां स्वरूप
शिव कहा गया है। शिव शब्द नित्य विज्ञान एवं आनंदघन परमात्मा का वाचक है। जिसको सब चाहते हैं उसका नाम शिव है। शिव शब्द का तात्पर्य अखंड आनंद हुआ। जहां आनंद है वहीं शांति है और परम आनंद को ही परम कल्याण कहते हैं। इस शिवतत्व को केवल हिमालय तनया भगवती पार्वती ही यथार्थ रूप से जानती हैं। आधि भौतिक रूप से सातवें रूद्र के रूप में भगवान शिव गुजरात स्थित सोमनाथ के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसे यजमान मूर्ति भी कहते हैं।
भगवान हर को सर्पभूषण कहा गया है जिसका तात्पर्य यह है कि मंगल और अमंगल सब कुछ ईश्वर शरीर में है। इसका एक अभिप्राय यह भी है कि संहार कारक रुद्र में संहार सामग्री रहनी ही चाहिए। काल को अपने भूषण के रूप में धारण करने के बाद भी भगवान हर कालातीत हैं।
आठवें रुद्र
हर की आधिभौतिक मूर्ति काठमांडू नेपाल में पशुपतिनाथ के नाम से प्रसिद्ध है।
भगवान रुद्र के नवें स्वरूप
भगवान रुद्र के नवें स्वरूप का नाम शर्व है। सर्वदेवमय रथ पर सवार होकर त्रिपुर का संहार करने के कारण ही उन्हें शर्व रुद्र कहा जाता है। उन्होंने ही तारकासुर के के पुत्रों का वध किया था। शर्व स्वरूप रूद्र को पवमान कहा गया है। इनका निवास स्थान आकाश में है ।
दसवे रुद्र
दक्षयज्ञ का विध्वंस करने वाले तथा क्रोधित मुख कमल वाले दसवें रुद्र का नाम कपाली है। ब्रह्मा को दंड देने के लिए उनका पांचवां मस्तक इनके द्वारा काट लिए जाने की बात भी कही जाती है । कपाली रूद्र के आधिभौतिक स्वरूप को पावक कहा जाता है।
भगवान रुद्र के ग्यारहवें स्वरूप
भगवान रुद्र के ग्यारहवें स्वरूप का नाम ‘भव’ है। इसी रूप मे वे संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त हैं तथा जगद्गुरु के रूप में वेदांत और योग का उपदेश देकर आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त करते हैं। उनकी कृपा के बिना विद्या, योग, ज्ञान ,भक्ति आदि के वास्तविक रहस्य से परिचित होना असंभव है ।भगवान भव रुद्र ही योगशास्त्र के आदि गुरु हैं । इसी रूप में वह संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त हैं।
(कंचन सिंह)