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सत्य शब्द नहीं एक अनुभव है, जीवन में एकाग्र भाव होना खास बात
-डॉ जे.एल.एम. कुशवाहा
जीवन में एकाग्र भाव होना खास बात है। एक के प्रति समर्पण, एक की उपासना, एक के प्रति प्रेम, एकनिष्ठता, का अपना महत्व है। इसीलिए कहा भी गया है कि एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय। अलंग अलग संतों ने एकत्व पर अपनी व्याख्याएं भले ही अलग अलग दी हैं लेकिन उन सबका निष्कर्ष एक ही है। ऐसी अनेक कथाएं मिलती हैं जिनसे पता चलता है कि एकाग्रता से जीवन में बदलाव आता है। बहुत भाषण करने से कोई पंडित नहीं होता। बल्कि जो क्षेमवान, अवैरी और निर्भय होता है, वही पंडित है। सत्य शास्त्र में नहीं, सत्य शब्द में भी नहीं है। सत्य तथाकथित बौद्धिक ज्ञान में भी नहीं है, सत्य अनुभव है और अनुभव शून्य में प्रकट होता है,। मौन और आन्तरिक एकान्त में प्रकट होता है।
एक प्रसंग है कि भिक्षु एकुदान जंगल में रहते थे। वृक्ष- वनस्पतियां, पर्वत- झरने यही उनके साथी थे। वन देव- वनदेवी उनके आत्मीय थे। उनके जीवन का एक ही सत्य था -बुद्धं शरणं गच्छामि। इसी का चिन्तन करते हुए वह ध्यानस्थ हो जाते थे। वह इसी सूत्र वाक्य का उपदेश करते। अपने इस मंत्र के अलावा जीवन में अन्य कोई बात उनको आती ही नहीं थी। हालांकि इसे कहते हुए उनके जीवन का समाधि सुख छलक उठता था। वह एक अनोखे अहोभाव से भर उठते थे। इस एक वाक्य को बोलते हुए उनकी अन्तर्चेतना में अनेक अलौकिक रंग निखर उठते थे। पर वह बोलते एक ही वाक्य थे- बुद्धं शरणं गच्छामि।
इस जंगल से जो भी गुजरता, उन्हें रोज एक ही उपेदश कहते हुए सुनता। एक ही वाक्य में रोज- रोज भला किसको रस आता। इसलिए कोई उनके पास टिकता नहीं था। अपनी कुटी में भिक्षु एकुदान अकेले वक्ता थे, श्रोता भी वही अकेले होते। दूसरा कोई होता भी तो कैसे? किसी भी तरह कोई आ भी जाता तो भाग जाता। रोज वही उपदेश शब्दश: वही। उसमें कभी भेद ही नहीं पड़ता था। शायद उन्हें इसके अलावा और कुछ आता भी नहीं था।
परंतु अपने इस एक जीवन सत्य को वह जब भी कहते पूरे वन में एक अद्भुत वातावरण बन जाता। पेड़, पर्वत, झरने सभी एक अलौकिक चेतना से तरंगित हो उठते। वन देवी- वन देवता उन्हें साधुवाद देते। सारा जंगल गुंजायमान हो जाता था, साधु! साधु! एक अनोखी छटा- एक अलौकिक जीवन्तता सब ओर छा जाती।
एक दिन उसी जंगल में पांच- पांच सौ शिष्यों के साथ दो त्रिपटकधारी भिक्षु आए। उनके अगाध पाण्डित्य की सब ओर ख्याति थी। एकुदान उनके आने से बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उन सबका स्वागत किया। फिर बोले, भंते, बहुत अच्छा हुआ जो आप आए। मैं तो अज्ञानी हूं। बस एक बात मुझे समझ में आयी है, उसी का रोज उपदेश करता हूँ। और कोई तो सुनता नहीं, बस जंगल के देवता दयावश उसे सुनते हैं, और साधुवाद देते हैं। हालांकि वे भी उसे सुन- सुनकर थक गए होंगे। यह उनका मुझ बूढ़े पर अनुग्रह ही है कि वे मेरी एक ही बात को बार-बार सुनकर प्रसन्नता व्यक्त करते हैं।
एकुदान बोले, आप दोनों ही महाज्ञानी हैं। त्रिपटक आपको कण्ठस्थ हैं। आपके ज्ञान की महिमा से आकर्षित होकर ही आप के पांच-पाँच सौ शिष्य हैं। मुझे कुछ आता ही नहीं है। इसीलिए मेरा एक भी शिष्य नहीं है। भला एक ही उपदेश देना हो तो कोई शिष्य बनेगा ही क्यों? वे त्रिपटकधारी दोनों महापण्डित उन की बातें सुनकर एक दूसरे की तरफ अर्थगर्भित दृष्टियों से देखते हुए मुस्कराए। उनकी आँखों में पाण्डित्य का अभिमान था।
उन दोनों ने सोचा कि यह बूढ़ा अकेले रहते-रहते पागल हो गया है। अकेलेपन के कारण इसे विक्षिप्तता ने घेर लिया है। अन्यथा कोई एक ही उपदेश रोज-रोज देता है? अपनी विक्षिप्तता के कारण ही यह कहता है कि इसका उपदेश जंगल के देवता सुनते हैं, और साधुवाद देते हैं। अरे, कहां के देवता। भला देवता भी कहीं किसी का उपदेश सुनने आते हैं। जब हम दोनों जैसे पण्डितों का उपदेश सुनने के लिए वे आज तक नहीं आए। तब इन मूर्ख की वही एक तोता रटन्त सुनने के लिए भला वे क्या आएंगे। बेचारा, वृद्ध अपने बुढ़ापे के कारण यह परेशान है। और इसी विक्षिप्तता एवं परेशानी के कारण इसका मन परेशानी से भर गया है। कोई बात नहीं, चलो आज बताएंगे इसको कि उपदेश क्या होता है? कुछ क्षणों में ही उन दोनों महापण्डितों ने इतनी सारी बातें सोच डाली। पर प्रत्यक्ष में उन्होंने एकुदान की आयु का ख्याल करते हुए बड़ी शालीनता से कहा- भन्ते! हम दोनों को ही आपका प्रस्ताव स्वीकार है। मेरे उपदेश से आपको भी यथार्थ का बोध पाने में मदद मिलेगी।आप दोनों महाज्ञानियों की इस कृपा से कृतार्थ हुआ भन्ते। भिक्षु एकुदान का हृदय कृतज्ञता के भावों से ओत-प्रोत हो गया। उसने बड़े प्रेम और परिश्रम से उनके प्रवचन का इन्तजाम किया। महापण्डितों के बैठने के लिए धर्मासन की व्यवस्था की। आज वह स्वयं को कृतकृत्य मान रहा था कि उसे इतनी पाण्डित्यपूर्ण वाणी सुनने को मिलेगी। हुआ भी वही। धर्मासन पर बैठकर उन दोनों ने बारी-बारी से उपेदश दिया। वे बड़े पण्डित थे, त्रिपटक के ज्ञाता थे। बुद्ध के सारे उपदेश उन्हें कण्ठस्थ थे। हमेशा ही वे अपने प्रशंकों और शिष्यों से घिरे रहते थे। उन पण्डितों ने एक-एक करके उपदेश दिया। उपदेश से पहले शिष्यों ने उनकी विद्वता एवं प्रभुता का परिचय दिया।यह बताया कि समाज में उनका कितना प्रभाव है। कितने देशों का उन्होंने भ्रमण किया है। कितनी उपाधियां एवं प्रमाण पत्र उन्हें मिले हैं। परिचय के बाद शिष्यों ने साज और संगीत के साथ गीत गाया। कुल मिलाकर प्रवचन की प्रस्तुति को प्रभावी बनाने की कोई कसर नहीं छोड़ी गयी। प्रवचन हुआ, शास्त्र सम्मत, पाण्डित्य से भरपूर, तर्क से प्रतिष्ठित। शिष्यों ने हर्षध्वनि की- साधु! साधु! वृद्ध भिक्षु एकुदान भी आनन्दित हुए। उन्होंने भी सराहना की। बस एक बात उन्हें खटक रही थी कि आज वन की देवशक्तियों ने कुछ नहीं कहा। वन देवी-वन देवता चुप थे। उन्होंने यह बात पण्डितों से भी कही कि बात क्या है? आज जंगल के देवता चुप क्यों हैं? इनको क्या हो गया? ये रोज मेरा उपदेश सुनते हैं तो पूरा जंगल इनके साधुवाद से भर जाता है। और आज ऐसा परम उपदेश हुआ, ऐसा ज्ञान से भरा। फिर भी ये सब मौन हैं।
वे दोनों महापण्डितों ने वृद्ध एकुदान की इन बातों को फिर से उनकी विक्षिप्तता से उपजा पागलपन