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Famous Katha Vachak: देहबुद्धि के विस्मरण के लिए नामस्मरण
Famous Katha Vachak Satsang: परमेश्वर का अंश हर प्राणी में होता, यह बात सच है लेकिन इसे समझने की बुद्धि केवल मनुष्य में ही है,फिर भी उसका पतन किस प्रकार होता इसे जानो
Famous Katha Vachak Satsang: हमें स्वयं की पहचान करने के लिए नामस्मरण ही एक उपाय है । परमेश्वर का अंश हर प्राणी में होता है, यह बात सच है । लेकिन इसे समझने की बुद्धि केवल मनुष्य में ही है । फिर भी उसका पतन किस प्रकार होता रहता है इसे जानो । जीव मूलतः परमेश्वर स्वरुप है, अतः मनुष्य प्रारंभ में कहता है, ‘मैं ही वह अर्थात परमेश्वर हूँ;’ इस स्थिति से उसकी अवनति होती है । तब वह कहता है, ‘मैं उसका हूँ’ यहीं उसकी अवनति रूकती नहीं, फिर आगे चलकर वह कहता है, ‘मेरा और उसका अर्थात परमेश्वर कोई संबंध नहीं है ।’ इस अवनति का कारण है, देहबुद्धि का प्रभाव इतना बढ़ता है कि अंत में उसकी पक्की भावना यह होती है कि मैं देह ही हूँ । यद्यपि ऐसी भावना दृढ़ होती है तो भी, अनजाने से क्यों न हो मनुष्य के मुँह से जो सत्य है वही कहा जाता है; जैसे किसी व्यक्ति के मित्र की मृत्यु होती है, तब वह कहता है, ‘मेरे मित्र का स्वर्गवास हो गया ।’ इसका मतलब है कि वह अपने सामने जो मित्र की देह थी उसको मित्र नहीं समझता था ।
शरीर के भीतर जो चैतन्य होता है, जो ईश्वर का अंश है उसी को मित्र मानता रहा । अर्थात जो सत्य होता है वही उसके मुँह से प्रकट होता है । ऐसी स्थिति होते हुए भी वह अपने लिए यह भावना निरंतर नहीं रखता और वह शरीर को ही स्वयं यानि आत्मा समझकर व्यवहार करता है । इसका असली कारण यह है कि वह सत्य ‘मैं' को भूल गया है।देहबुद्धि अधिक प्रबल और प्रभावी हो गयी है । अब इसके लिए एक ही उपाय है, जिस मार्ग से 'मैं' की अवनति हुई है, उसी मार्ग से उलटे जाकर प्रगत होन। अतः पहली बात यह है कि अब मैं जो देहरूप बन गया हूँ वह ‘मैं’ उसका यानी परमेश्वर का हूँ, ऐसी भावना दृढ़ करना। इस भावना की परमावस्था यानी 'मैं ईश्वर ही हूँ' यह भावना दृढ़ हो जाना। यह कैसे सधेगा? जिसके विस्मरण से मेरी अवनति हुई है, उसका स्मरण करना स्मरण के लिए सबसे अच्छा साधन है ईश्वर का नाम । इसके कारण स्मरण निरंतर होता रहेगा, नामस्मरण के प्रति लगन लगेगी और मैं वास्तव में कौन हूँ यह ज्ञात होगा और अपनी खुद की पहचान होगी। सत्य परमार्थ ऐसा है, और बहुत सरfamous katha vachakल है किन्तु सही रास्ते से जाना चाहिए । किसी गाँठ को खोलना हो तो रस्सी का कौन-सा छोर खीचना है, यह मालूम होना चाहिए । परमार्थ की बात भी ठीक ऐसी ही है ।
जब यह मालूम होगा कि मैं कौन हूँ तो परमात्मा की पहचान अपने आप हो जाएगी । दोनों का स्वरुप समान है । अर्थात दोनों अभिन्न है । परमात्मा निर्गुण है, तब उसको जानने के लिए क्या हमें भी निर्गुण नहीं होना चाहिए? इसलिए देहबुद्धि का त्याग करना चाहिए । किसी भी चीज को जब हम जानते हैं तो उस वस्तु से हमें एकरूप होना पड़ता है, बिना उसके हम उस वस्तु को जान ही नहीं सकते । अतः यदि हम परमात्मा को जानना चाहते हैं, तो क्या हमें परमात्मा नहीं होना चाहिए । इसी को साधु बनकर साधु को जानना’ कहते हैं । संस्कृत में कहते हैं ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत ।’नामस्मरण की मस्ती के बिना अहंभाव मिटता नहीं ।