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जानिए, क्यों नही टूटा गायत्री उपासकों का आनंद से रिश्ता
Gayatri Mantra: गायत्री की हर शक्ति के अंदर क्या-क्या विशेषताएं हैं? इनका क्या उपयोग है? प्रयोग है ? हम इनसे क्या लाभ उठा सकते हैं? जब हमें गायत्री शक्ति की विशेषताएं, उसकी महिमा, उसकी श्रेष्ठता का पता चल जाता है तब हम इस शक्ति के द्वारा जीवन को सर्वांगपूर्ण बनाने एवं उनके लाभों को संग्रह करने हेतु प्रयासरत रहते हैं।
Gayatri Mantra: गायत्री दिव्य शक्तियों का पुंज है, उसके गर्भ में अनन्त दैवीय शक्तियाँ निहित हैं। इन हजार हजार शक्तियों को जानना समझना आवश्यक है। गायत्री की हर शक्ति के अंदर क्या-क्या विशेषताएं हैं? इनका क्या उपयोग है? प्रयोग है ? हम इनसे क्या लाभ उठा सकते हैं? जब हमें गायत्री शक्ति की विशेषताएं, उसकी महिमा, उसकी श्रेष्ठता का पता चल जाता है तब हम इस शक्ति के द्वारा जीवन को सर्वांगपूर्ण बनाने एवं उनके लाभों को संग्रह करने हेतु प्रयासरत रहते हैं। जैसे जिसे पारस की विशेषताओं का पता न हो उसके लिये वह मामूली पत्थर ही रहता है। इससे अधिक कुछ नहीं। गायत्री को पंचमुखी कहा गया है। शरीर पाँच तत्वों से बना है और आत्मा के भी पाँच कोष हैं।
इन पाँचों मुखों में रहस्य छुपे हैं, आत्मा के ये पाँच कोष अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष, आनंदमय कोष हैं। इन पाँच कोषों के दरवाजे एक के बाद एक, आहिस्ता-आहिस्ता हमारी साधनात्मक स्थित के अनुसार खुलते हैं। इनके खुलने से आत्मा बंधन मुक्त हो जाती है। इन्हीं कोषों को खोलने के लिये ऋषि-मुनि व साधक जप तप व तपस्या करते हैं क्योंकि यह आत्मा के खजाने हैं। इन सिद्ध कोषों में संपदायें व सिद्धियाँ मिलती हैं जिनको पाकर परम आनंद की प्राप्ति होती है, परम सुख की प्राप्ति होती है परन्तु यह परम तप के अभाव में सम्भव नहीं है। इस पंचामृत का स्वाद चखने के लिये देवता भी मनुष्य शरीर ग्रहण कर अवतार लेते हैं। जैसे भोजन सड़ जाता है तो जहर बन जाता है वैसे ही पंचकोष के विकृत हो जाने पर अनेकों प्रकार के दुःख, दुर्भाग्य, चिंता, दरिद्रता आदि पीड़ाएं व वेदनाएं प्रकट होती हैं। पाँच तत्व, पाँच कोष, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, पाँच उप प्राण, पाँच तन्मात्रएं, पाँच यज्ञ, पाँच देव, पाँच योग, पाँच अग्नि, पाँच वर्ण, पाँच क्लेश इत्यादि अनेक पंचक गायत्री के पाँच मुखों से सम्बन्धित हैं। आत्मा की उन्नति की पाँच भूमिकाएं हैं जो जिस कक्षा की भूमिका को उत्तीर्ण कर लेता है वह उस श्रेणी का साधक बन जाता है।
जब मनुष्य अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष, आनंदमय कोष इत्यादि सभी कोषों को पार कर लेता है तो वह इच्छाधारी हो जाता है। जीवन आनंद प्राप्त करने के लिये है इसलिए सद्गुरु को चाहिये कि वह प्रतिक्षण आनंदमय, गुरुमय शिष्यों के मध्य ही विचरण करें। गुरु ग्रह को भी प्रतिक्षण शीतलता की आवश्यकता होती है। इसलिए वे अपने चारों तरफ चंद्रमा रखता है। गुरु ग्रह के चारों तरफ चंद्रमा ही घूमते हैं जो उसे अमृत प्रदान करते हैं, आनंद देते हैं। स्वस्थ पंचकोष से आत्मा जब अपने स्वरूप में पहुँचती है तो उसे अतुल अवर्चनीय आनंद की प्राप्ति होती है।
जीवन जैसी बहुमूल्य संपदा पशुओं की भांति व्यतीत करने के लिये नहीं है, 84 लाख योनियों में भ्रमण करने के बाद अत्यंत कठिनाई से मनुष्य योनि प्राप्त होती है। इसे तुच्छ स्वार्थ में न लगाकर परमार्थ में लगाना चाहिये, गायत्री साधना भी ऐसा ही परमार्थ है। पुराणों में वर्णन मिलता है कि ब्रह्मा ने एक सर्वांग सुन्दरी को उत्पन्न किया इससे वह सुन्दरी उनकी कन्या हुई और इस सुन्दरी की सहायता से सृष्टि का निर्माण किया जिससे कि वह उनकी पत्नी हुईं। लोग इस कथा के मूल तत्व को न समझ कर ब्रह्माजी को अश्रृद्धा की दृष्टि से देखने लगे। लोग भूल जाते हैं कि ब्रह्मा कोई साधारण मनुष्य नहीं है और न ही उनसे उत्पन्न शक्ति कोई स्त्री है, पर मानवीय बुद्धि आध्यात्मिक शक्तियों को मानवीय दृष्टिकोण से ही समझना चाहती है। ब्रह्मा निर्विकार परमात्मा की शक्ति हैं जो निर्माण का कार्य करती है। ब्रह्माजी ने दो प्रकार की सृष्टि का निर्माण किया है। एक है चैतन्य और दूसरी है जड़। जिसे लोग ब्रह्माजी की दो पत्नियाँ कहते हैं गायत्री एवं सावित्री।
गायत्री चैतन्य स्वतंत्र सृष्टि हैं वो परम चैतन्य हैं। ब्रह्मा ने जिस जड़ सृष्टि का निर्माण किया वह पंचभूतों का निर्माण है। पृथ्वी, जल, आकाश, वायु, अग्नि (तेज) के द्वारा विश्व के सभी परमाणुमय पदार्थ बनाये गये। जड़ सृष्टि का आधार परमाणु और चैतन्य का आधार संकल्प है। जड़ शक्ति देखने में अचैतन्य लगती है पर उसके अंदर भी परमाणु शक्ति कार्य कर रही है। जड़ पदार्थों में भी एक "न्यूक्लीयस" होता है उसके चारों तरफ अणु परमाणु अपनी कक्षाओं में घूमते रहते हैं। अब तो इलेक्ट्रान, प्रोटान, न्यूट्रान की खोज हो गई है तथा इनसे भी सूक्ष्म तत्वों की खोज हो गई है। इसलिए जो चीज देखने में जड़ लगती है, वही पल्लवित होती है। जैसे एक बीज है जो देखने में बिल्कुल व्यर्थ मालूम होता है उसमें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता कि इसमें क्या है ? लेकिन जब हम बीज को बो देते हैं तो उसमें अंकुर आता है तब हमें ज्ञात होता है कि ये ठोस कंकड़ सा दिखाई देने वाला बीज अपने भीतर प्राण, शक्ति और ऊर्जा के असीम भण्डार को छिपाये था उसमें अंकुर आया, पत्ते आये, पौधा भी बन गया, वृक्ष बन गया, फूल बन गये, फल आ गये, सुगंध आ गई, आनंद आ गया, उसमें संगीत भी आ गया। इस बीज से सबकुछ आ गया। बीज में कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था।
सभी मनुष्यों में कुण्डली शक्ति होती है जो कि सुप्त अवस्था में पड़ी होती है पर जब यह चैतन्य हो जाती है तो मनुष्य का स्वरूप ही बदल जाता है। यही महाचैतन्य शक्ति गायत्री हैं। मनुष्य को बीज की भांति शक्तियाँ मिली हैं जो इन पर श्रम करता है, इन्हें समझता है वही इन बीजों को धीरे-धीरे पल्लवित कर वृक्ष में रूपांतरित कर लेता है वही बीज फूल बन जाते हैं, सुगंध बन जाते हैं। हमारे भीतर जो शक्तियाँ उपलब्ध हैं अगर उन्हें जगाने का प्रयत्न नहीं किया तो वे बीज रूप में ही पड़ी रहेंगी। बीज भी बहुत दिन तक रखा रहे और उसका उपयोग ना हो तो उसकी गुणवत्ता भी विलीन हो जाती है। इसी प्रकार हमें भी हमारे अंदर की अनंत शक्तियों को समझना आवश्यक है। जो ब्रह्म है वो चैतन्य हैं, वही हमारे भीतर छुपा है, वही आदि चैतन्य है, वह स्वसंवित है। सेल्फ कंसेश। अगर बिजली बुझ जाये तो अंधेरा हो जायेगा। हम एक-दूसरे को नहीं देख पायेंगे। यह प्रकाश पर प्रकाशित है, अंधेरे में हमें कुछ दिखाई न देगा पर इतना तो पता चलता है कि मैं हूँ। अंधेरे में भी हमें अपना पता चल जाता है और जब हम अपने भीतर जाकर देखते हैं तो वहाँ स्व प्रकाशित, स्व ज्योर्तिमय तत्व मौजूद है। स्वसंवित होने का अर्थ है जिसे हम बाहर से नहीं जान सकते वह आदि चेतना जो सदा से हमारे भीतर है और उसे ही जान लेना, पहचान लेना, समझ लेना यही गायत्री है। गायत्री को सभी जपते हैं। ऋषि कहते हैं अजपा गायत्री अजपा का अर्थ है, ठहर जाना गायत्री में ठहर जाना। जहाँ गायत्री वहीं मंत्र हैं, जहाँ मंत्र है वहीं गायत्री है। जब मंत्र और देवता में कोई अंतर नहीं रहता। उसे ही अजपा कहते हैं वही अजपा गायत्री है। मंत्र तीन तल पर प्रकट होता है वाणी में, हमारे विचार में और अचेतन में उसके नीचे भी एक तल है जिसे महाचेतन कहें उसका कोई रूप नहीं है। मंत्र अचेतन में आकर अंकुरित होता है और चेतन में आकर प्रकट होता है।
गायत्री चैतन्य में प्रकट होती हैं। वहीं से अजपा शुरु होता है और जब मंत्र अजपा हो जाये तो वह गायत्री बन जाता है। जब मंत्र बहुत गहराई में पहुँच जाते हैं, बहुत अंदर गुह्य में पहुँच जातें हैं तभी वह साधक उस मंत्र की शक्ति से परिचित होता है। मंत्र का गुह्य में पहुँचे बगैर ईश्वरीय स्वरूप का दर्शन नहीं होता और स्वरूप के दर्शन हो जाने पर मंत्र अजपा हो जाता है। यह मंत्र महाध्वनियाँ हैं, ये महाध्वनियाँ सभी विकारों को समाप्त कर देती हैं। जैसे हुंकार एक महाध्वनि है इसकी ध्वनि बहुत गहरी है चाहे कोई भी मंत्र हो जब वह बहुत गहराई में चला जायेगा, गुह्य हो जायेगा, विकार रहित हो जायेगा, अजपा हो जायेगा। तो वह गायत्री बन जायेगा। जो स्वयं में रम गया, रमण को उपलब्ध हो गया, ऐसा व्यक्ति सदैव आनंद में डूबा रहता है। फिर उसके ऊपर दुःख नहीं आते, फिर बीमारी नहीं आती, जरा नहीं आता, मृत्यु नहीं आती, उस पर कोई बाधा नहीं आती क्योंकि वह दूर खड़ा देखता रहता है। दुःख तो आते हैं, बीमारियाँ तो आती हैं, पैर में काँटे भी लगते हैं, बुढ़ापा भी आता है, झुर्रियाँ भी आती हैं लेकिन उस पर नहीं आती वह दूर खड़ा रहता है क्योंकि गायत्री की प्राप्ति हो गयी। ईसा ने जब गायत्री को समझ लिया तो सूली लग गई, शरीर मर गया पर वह दूर खड़े देख रहे थे। जो आनंदमय कोष में पहुँच गये, गायत्री के स्वरूप को देख लिया, समझ लिया वह व्यक्ति दुःख से घिर सकता है, अंधेरे से घिर सकता है लेकिन वह स्वयं अंधकारमय नहीं होता। गायत्री उपासकों का क्षणभर के लिये भी आनंद स्खलित नहीं होता, आनंद से उनका सम्बन्ध नहीं टूटता इसलिए ऋषियों ने गायत्री को सच्चिदानंद कहा है। सत् + चित आनंद- सत का अर्थ है जो सदा रहेगा, शाश्वत रूप से सत्य होगा कभी भी अन्यथा नहीं होगा। चित्त का अर्थ है चैतन्यता, ज्ञान, बोध, जो बोध से पूर्ण रहेगा, जिसका बोध कभी नहीं खोयेगा। आनंद का अर्थ है सुख, दुःख के पार एक परम रहस्य जो मस्ती में डूबा रहेगा, ऐसी मस्ती जो बाहर से नहीं आती इसके स्तोत्र भीतर हैं उस स्वभाव को कहा है सच्चिदानंद जब गायत्री का प्रकाश फैलता है तब चित्त की दशा साफ हो जाती है। "क्रिस्टल क्लीयर" सब दिखाई पड़ता है, जैसा है जैसे दिखाई पड़ता है। स्वच्छ निर्मल आलौकिक कहाँ जा रहे हैं? कहाँ से आ रहे हैं? कहाँ खड़े हैं? हम कौन हैं? क्या हैं? चारों तरफ क्योंकि आत्मप्रकाश के बिना सत्य का दर्शन नहीं हो सकता, आत्मप्रकाश आत्मचेता ही गायत्री हैं।