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Grihasth Jeevan Ke Niyam: क्या आपको पता है ? गृहस्थ जीवन है धन्य, वहीं कर सकता है पाँचों यज्ञ
Grihasth Jeevan Ke Niyam: पञ्च महायज्ञों के विषय में विस्तार से बताया गया। सो, उस विषय पे बुद्धिमान् पाठकों के लिए कुछ नहीं जोड़ना, यह छोड़कर कि ये कर्म गृहस्थी के ही विशेष कर्तव्य हैं । इन्हीं कर्तव्यों से, विशेषकर, बलि वैश्वदेव यज्ञ और अतिथि यज्ञ से वह अन्य आश्रमों, व अन्य प्राणियों को भी, पालता है ।
Grihasth Jeevan Ke Niyam: गृहस्थी होते हुए, हम अधिकतर धनार्जन और परिवार-पोषण में लगे रहते हैं । अवश्य ही ये गृहस्थी के मुख्य कर्तव्य हैं, परन्तु मनु बताते हैं कि गृहस्थी के अन्य भी विशेष कर्तव्य हैं, जिनको हम प्रायः भूले हुए हैं । इस लेख में कुछ उन कर्तव्यों पर भी प्रकाश डाल जा रहा हैं ।
पञ्च महायज्ञों के विषय में विस्तार से बताया गया। सो, उस विषय पे बुद्धिमान् पाठकों के लिए कुछ नहीं जोड़ना, यह छोड़कर कि ये कर्म गृहस्थी के ही विशेष कर्तव्य हैं । इन्हीं कर्तव्यों से, विशेषकर, बलि वैश्वदेव यज्ञ और अतिथि यज्ञ से वह अन्य आश्रमों, व अन्य प्राणियों को भी, पालता है ।
इसी कारण मनु कहते हैं :–
यस्मात् त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेनान्नेन चान्वहम् ।
गृहस्थेनैव धार्यन्ते
तस्माज्ज्येष्ठा श्रमो गृही ॥
(मनुस्मृतिः ३।७८ )
अर्थात् क्योंकि बाकी तीनों ही आश्रमी गृहस्थ से प्रतिदिन अन्न, वस्त्रादि, दान प्राप्त करते हैं, इसलिए वस्तुतः गृहस्थी ही उनको धारण करता है । इस कारण से, गृहस्थाश्रम ही सबमें बड़ा है । और अन्यत्र –
दैवकर्मणि युक्तो हि बिभर्तीदं चराचरम् ॥
(मनु० ३।७५ ॥)
गृहस्थ देवयज्ञ के द्वारा सारे चराचर जगत् का भरण करता है ।
वेदान्ती लोग ’भज गोविन्दम्’ आदि शंकराचार्य-कृतियों में बहकर, गृहस्थाश्रम को कुत्सित बताकर, सब को संन्यास धारण करने का प्रवचन देते हैं । वे भूल जाते हैं कि यदि सचमुच सबने उनकी बात मान ली, तो उनकी आजीविका ही न रहेगी ! और जिससे उनको आजीविका मिल रही है, वह इतना बुरा तो नहीं हो सकता !
मनु ने जहां अपनी रुचि के अनुसार धार्मिक, हिंसा-रहित जीविका ग्रहण करने का उपदेश दिया है, वहीं उन्होंने सिखाया है कि सांसारिक काम उतना ही उठाओ जितने से तुम्हारा जीवन सुगमता से व्यतीत हो, बहुत अधिक धन जुटाने में मत लगो । ये स्वास्थ-रक्षण के लिए भी कहा है और इसलिए भी कि प्रतिदिन कुछ समय स्वाध्याय के लिए निकालना गृहस्थी का सबसे बड़ा धर्म है । यहां ’स्वाध्याय’ से वेदादि मोक्षपरक ग्रन्थों का अध्ययन अभिप्रेत हैं । मनु कहते हैं :–
वेदमेवाभ्यसेन्नित्यं यथाकालमतन्द्रितः ।
तं ह्यस्याहुः परं धर्ममुपधर्मोऽन्य उच्यते ॥
(;मनु० ४।१४७ )
अर्थात् जितना समय मिले, उतना समय, बिना आलस्य किए, नित्य वेदाभ्यास करना चाहिए क्योंकि वही परम धर्म है; अन्य सभी धर्म उपधर्म ही हैं । पढ़े हुए को यथाशक्ति पढ़ाना भी चाहिए-
सर्वान् परित्यजेतर्थान् स्वाध्यायस्य विरोधिनः ।
यथातथाध्यापयंस्तु सा ह्यस्य कृतकृत्यता ॥
(मनु० ४।१७ )
जो भी कार्य स्वाध्याय के विरोधी हैं, उन सभी को छोड़ता जाए और किस भी तरह थोड़ा पढ़ाए, क्योंकि स्वाध्याय की कृतकृत्यता इसी में है । वास्तव में, स्वाध्याय ऋषियज्ञ ही है, परन्तु इस भाग को हम अनेक बार भूल जाते हैं ।
दान के विषय में मनु एक चेतावनी देते हैं । एक ओर तो नित्य दान करना गृहस्थी का धर्म है :–
दानधर्म निषेवेत नित्यमैष्टिकपौर्तिकम् ।
परितुष्टेन भावेन पात्रमासाद्य शक्तितः ॥"
(मनु० ४।२२७ )
अर्थात् सुखी होकर ( वस्तु से मोह पूर्णतया हटाते हुए ), गृहस्थी को नित्य यथाशक्ति ऐष्टिक = यज्ञों का आयोजन, और पौर्तिक = रुग्णालय, पाठशाला, आदि बनवाना, और पात्र को ढूढ़ कर उसको दान देना चाहिए; वहीं दूसरी ओर, पात्र का योग्य होना बहुत ही आवश्यक है । गलत पात्र को देने से पुण्य तो क्या, केवल पाप का ही अर्जन होता है :–
त्रिष्वप्येतेषु दत्तं हि विधिनाप्यर्जितं धनम् ।
दातुर्भवत्यनर्थाय परत्रादातुरेव च ॥
(मनु० ४।१९३ )
तीन प्रकार के गलत पात्रों को देने से, धर्मानुसार अर्जित धन भी, दाता के लिए इसी जन्म में अनर्थ का कारण बन जाता है, और दान लेने वाले के लिए परजन्म में दुःख पहुंचाता है । ये तीन प्रकार के कुपात्र कौन से हैं, सो ये वे ही हैं जिनको अनेकों जन आज आदर-सम्मान से अपने घर में बुलाते हैं और जिनके लिए हंसते-हंसते अपनी तिजोरी का ताला खोल देते हैं – धार्मिक प्रवचनकर्ता । मनु बताते हैं कि ये तीन प्रकार के होते हैं । एक तो जो बड़ी-बड़ी बातें करके, अपने चमत्कारों, अपने बड़े-बड़े कार्यों, या अपने महान ज्ञान की झलक देके भीरु जन को रिझाते हैं । दूसरे वे जो अपने को विनम्र दिखाते हुए अपने को ज्ञानी साबित करते हैं । तीसरे वे जो वेदों को न जानते हुए भी धर्म का उपदेश देते फिरते हैं । आज के समय में, क्या कोई भी धार्मिक प्रवचनकर्ता बच रहता है ?!
गृहस्थ का सुखी होना बहुत आवश्यक है । तभी वह धर्म के मार्ग पर चल सकता है । सुखवर्धन के उपाय बताते हुए मनु कहते हैं कि, जहां तक हो सके जीविका अपने वश में होनी चाहिए, क्योंकि जो-जो परवश होता है, वह दुःखकारी होता है :–
सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम् ।
एतद्विद्यात् समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ॥
(मनु० ४।१६० )
परन्तु हमारे प्रयत्नों से जो भी हमें प्राप्त हो, उससे हमें सन्तुष्ट हो जाना चाहिए, चाहे हम और वृद्धि के लिए क्यों न प्रयासरत बने रहे । सन्तुष्टि के बिना सब धन-ऐश्वर्य मिट्टी समान हैं –
सन्तोषं परमास्थाय सुखार्थी संयतो भवेत् ।
सन्तोषमूलं हि सुखं दुःखमूलं विपर्ययः ॥
(मनु० ४।१२ )
अर्थात्, परम सन्तोष में स्थित हो, सुख चाहने वाला इच्छाओं को वश में रखे, क्योंकि सन्तोष ही सुख का मूल है, और असन्तोष दुःख का जनक है । यदि अनेक प्रयासों के बाद भी हम दीन बने रहें, तब भी हमें अपनी अवस्था के लिए अपने को दोष नहीं देना चाहिए, और श्री की प्राप्ति को कभी भी दुर्लभ न समझते हुए, मृत्यु-पर्यन्त प्रयत्न करते ही रहना चाहिए –
नात्मानमवमन्येत पूर्वाभिरसमृद्धिभिः ।
आमृत्योः श्रियमन्विच्छेन्नैनां मन्येत दुर्लभाम् ॥
(मनु० ४।१३७ )
स्वभाव के विषय में, वे संक्षेप में बताते हैं –
नास्तिक्यं वेदनिन्दां च देवतानां च कुत्सनम्
द्वेषं दम्भं च मानं च क्रोधं तैक्ष्ण्यं च वर्जयेत ॥
(मनु० ४।१६३ )
हमें क्या-क्या नहीं होना चाहिए – नास्तिक, वेदों की निन्दा करने वाला, विद्वानों की निन्दा करने वाला, द्वेष, कुटिल, अभिमान, क्रोध या कटाक्ष करने वाला । चाहे हमें वेद का ज्ञान न हो, फिर भी हमें, विद्वानों के वचन पर श्रद्धा रखते हुए, वेदों के प्रति आदर-भाव बनाए रखना चाहिए । विद्वानों का अनादर और अपने ऊपर अभिमान हमें ज्ञानप्रकाश से वञ्चित रखेगा । द्वेष, दम्भ, क्रोध और तैक्ष्ण्य हमारे मन को सबसे अधिक मलिन करते हैं । दुःख भी हमें इतना पाप की ओर प्रेरित नहीं करता, जितना ये चारों भावनाएं करती हैं । इसलिए इनको जल्दी से जल्दी त्याग देना चाहिए ।
दृढकारो मृदुर्दान्तः क्रूराचारैरसंवसन् ।
अहिंस्रो दमदानभ्यां जयेत् स्वर्गं तथाव्रतः ॥
(मनु० ४।२४६ )
हमें क्या-क्या होना चाहिए, इस विषय में कहते हैं – सदा धर्म के मार्ग पर दृढ़ रहना चाहिए, सबों से कोमल व्यवहार करना चाहिए, क्रूरों से सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए, स्वयं अहिंसक होना चाहिए, जितेन्द्रिय और दानशील होना चाहिए । इससे गृहस्थ शीघ्र ही महान सुख को प्राप्त करता है । अत्यन्त सुन्दरता से मनु ने गृहस्थ के स्वभाव का विवरण दे दिया !
गृहस्थ का विशेष धर्म तो पञ्च महायज्ञ ही हैं, जिन्हें कोई और आश्रमी बिल्कुल भी या पूर्णता से नहीं करता । ब्रह्मचारी ऋषियज्ञ और देवयज्ञ ही करते हैं । वानप्रस्थी, इन दोनों के साथ, बलि वैश्वदेव और अतिथि यज्ञ सूक्ष्मरूप से करता है, क्योंकि उसके साधन सीमित होते हैं,और अतिथि तो उसके पास कम ही आते है; पितृयज्ञ तो उसे करने की आवश्यकता नहीं होती । क्योंकि कोई पितर उसके साथ नहीं होते । संन्यासी को कोई भी यज्ञ करने की आवश्यकता नहीं होती, परन्तु उपासना और अध्यापन-रूप में उसका ऋषियज्ञ करना कहा जा सकता है । इस प्रकार, गृहस्थ को ही पांचों ही यज्ञ करने होते हैं । अपने परिवार, समाज और राष्ट्र को उसी के कर्म धारण करते हैं । इन सब कर्तव्यों के साथ-साथ उसे सबसे अधिक भोग भी प्राप्त होता है । धर्म पर तो सभी आश्रमी चलते हैं, परन्तु अर्थ और काम का आनन्द गृहस्थी ही लेता है । इसलिए वह अपने सब कर्तव्यों को हंसते-हंसते निर्वाह कर लेता है । सुनने में अत्यधिक कठोर लगने वाले ये व्रत वास्तव में इतने कठिन भी नहीं होते !
१. योगदर्शन में तो इन तीनों को ही ’सार्वभौम’ कहा गया है :- जातिदेशकालसमयानवच्छिन्ना: सार्वभौमा महाव्रतम् ( योग० २।३१ )
लेकिन इनको अलग-अलग समझना लाभकर है।
( लेखक प्रख्यात धर्म विद् हैं।)