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जानिए इस्लाम में क्यों जरूरी मानी जाती है जुम्मे की नमाज?

Newstrack
Published on: 27 May 2016 9:45 AM GMT
जानिए इस्लाम में क्यों जरूरी मानी जाती है जुम्मे की नमाज?
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लखनऊ: सभी धर्मों में ईश्वर की इबादत करने के अलग-अलग तरीके होते हैं। अलग-अलग नामों के साथ उसकी शुरूआत और समापन भी किए जाते हैं। हम बात कर रहे है इस्लाम (मुस्लिम) धर्म की जिसमें सबसे जरूरी और अहम मानी जाती है जुमे की नमाज।

वैसे तो इस्लाम के अनुसार हर रोज 5 बार नमाज अदा करना जरूरी होता है, लेकिन जो रोज नमाज नहीं कर पाते, उनके लिए विशेषकर शुक्रवार का दिन बनाया गया है इस दिन को जुम्मा माना जाता है और इस दिन पढ़े जाने वाली नमाज को जुमे की नमाज कहते है।

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जुमे की नमाज का महत्व क्यों?

इस्लाम का कहना है यूं तो हर दिन अल्लाह का होता है, ऐसे में शुक्रवार की नमाज का महत्व इतना खास क्यों है? हर शुक्रवार मस्जिद में या फिर घर के पास बने किसी पार्क में हम लोगों को नमाज पढ़ते हुए देखते जरूर हैं। यहां तक कि एक नमाजी को जहां कहीं भी जगह मिले, वो शुक्रवार के दिन आसन बिछाकर नमाज पढ़ना शुरू कर देता है।

जामा मस्जिद का नाम 'जुमा'

दिल्ली के जामा मस्जिद का एक नाम 'जुमा' भी रखा गया है, जिसके अनुसार ये वह स्थान है जहां हर जुम्मे के दिन लोग इकट्ठे होकर नमाज पढ़ते हैं। एक दूसरे से मिलकर अपनी जिंदगी की परेशानियों का हल निकालते हैं और एक दूसरे के प्रति अपने रिश्ते को कायम रखते हैं।

रहम का दिन

इस्लाम में जुमा को अल्लाह के दरबार में रहम का दिन माना जाता है। इस दिन नमाज पढ़ने वाले इंसान की पूरे हफ्ते की गलतियों को अल्लाह माफ करते हैं और उसे आने वाले दिनों में एक अच्छा जीवन जीने का संदेश देते हैं।

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परफ्यूम और सिवाक

इसके अलावा किसी अन्य दिन आप इत्र यानि कि परफ्यूम लगाएं या ना लगाएं, लेकिन शुक्रवार के दिन इत्र लगाना जरूरी होता है। आखिरी काम है 'सिवाक' करना, यानि दांतो को साफ करने की प्रतिक्रिया। इस्लाम में ये तीनों कार्य शुक्रवार के दिन करना बेहद महत्वपूर्ण माना गया है।

आदम की मृत्यु

ऐसा भी कहा जाता है कि शुक्रवार के ही दिन अल्लाह द्वारा 'आदम' को बनाया गया था और इसी दिन आदम की मृत्यु भी हुई थी, लेकिन आदम जन्म के बाद धरती पर आए थे, इसलिए दिन के एक घंटे को बेहद अहम माना जाता है।

कहते हैं शुक्रवार को यदि आप अल्लाह से कुछ ना भी मांगो तब भी वे आपकी मुराद सुन लेते हैं और उसे पूरा करते हैं। परंतु वो मुराद इस्लामिक कायदे-कानूनों के अनुकूल ही होनी चाहिए।

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