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Kawad Yatra 2024: सावन विशेष : साक्षात शिव स्वरूप है कांवड़ यात्रा!!!!!!!!
Kawad Yatra 2024: सावन शुरु होते ही इस आस्था और अटूट विश्वास की अनोखी कांवड यात्रा से पूरा का पूरा इलाका केशरिया रंग से सराबोर हो जाता है। पूरा माहौल शिवमय हो जाता है
Kawad Yatra 2024: जी हां, कांवड़ शिव की आराधना का ही एक रूप है। इस यात्रा के जरिए जो शिव की आराधना कर लेता है, वह धन्य हो जाता है। कांवड़ का अर्थ है परात्पर शिव के साथ विहार। अर्थात ब्रह्म यानी परात्पर शिव, जो उनमें रमन करे वह कांवरिया।कैलाश मानसरोवर, अमरनाथ यात्रा, शिवजी के द्वादश ज्योतिर्लिंग (जो विभिन्न राज्यों में स्थित हैं) कांवड़ यात्रा आदि बहुत महंगी होने के कारण तथा अति दुष्कर होने के कारण सबकी सामथ्र्य में नहीं होती। अमरनाथ यात्रा भी दूरस्थ होने के कारण इतनी सरल नहीं है, परन्तु कांवड़ यात्रा की बढ़ती लोकप्रियता ने सभी रिकार्ड्स तोड़ दिए हैं। इलाहबाद, वाराणसी, बिहार नीलकंठ (हरिद्वार), पुरा महादेव (पश्चिमी उत्तरप्रदेश) हरियाणा, राजस्थान के देवालय आदि में सैकड़ों-हजारों से होता हुआ कांवडिया जलाभिषेक लाखों-करोड़ों तक जा पहुंचा है।
वैसे तो भगवान शिव का अभिषेक भारतवर्ष के सारे शिव मंदिरों में होता है। लेकिन श्रावण मास में कांवड़ के माध्यम से जल-अर्पण करने से वैभव और सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है। वेद-पुराणों सहित भगवान भोलेनाथ में भरोसा रखने वालों को विश्वास है कि कांवड़ यात्रा में जहां-जहां से जल भरा जाता है, वह गंगाजी की ही धारा होती है।कांवड़ के माध्यम से जल चढ़ाने से मन्नत के साथ-साथ चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है। तभी तो सावन शुरु होते ही इस आस्था और अटूट विश्वास की अनोखी कांवड यात्रा से पूरा का पूरा इलाका केशरिया रंग से सराबोर हो जाता है। पूरा माहौल शिवमय हो जाता है
अगर कुछ सुनाई देता है तो वो है हर-हर महादेव की गूंज, बोलबम का नारा। कुंवारी लड़किओं से लेकर बुजुर्ग तक सब सावन के महीने में भगवान शिव को प्रसन्न करने में लीन दिखाई देते हैं। कोई सम्पूर्ण माह व्रत रखता है तो कोई सोमवार को, परन्तु सबसे महत्पूर्ण आयोजन है ये कठिन यात्राएं जिनका गंतव्य शिव से सम्बन्धित देवालय होते हैं, जहां जाकर भगवान शिव का जलाभिषेक करतें हैं।भगवान भोलेनाथ का ध्यान जब हम करते हैं तो श्रावण का महीना, रूद्राभिषेक और कांवड़ का उत्सव आंखों के सामने होता है। शिव भूतनाथ, पशुपतिनाथ, अमरनाथ आदि सब रूपों में कहीं न कहीं जल, मिट्टी, रेत, शिला, फल, पेड़ के रूप में पूजनीय हैं। जल साक्षात् शिव है, तो जल के ही जमे रूप में अमरनाथ हैं। बेल शिववृक्ष है तो मिट्टी में पार्थिव लिंग है।
गंगाजल, पारद, पाषाण, धतूराफल आदि सबमें शिव सत्ता मानी गई है। अतः सब प्राणियों, जड़-जंगम पदार्थों में स्वयं भूतनाथ पशुपतिनाथ की सुगमता और सुलभता ही तो आपको देवाधिदेव महादेव सिद्ध करती है।कांवड़ शिव के उन सभी रूपों को नमन है। कंधे पर गंगा को धारण किए श्रद्धालु इसी आस्था और विश्वास को जीते हैं। यानी कांवड़ यात्रा शिव के कल्याणकारी रूप और निष्ठा के नीर से उसके अभिषेक को तीव्र रूप में प्रतिध्वनित। कहा जाता है कि कांधे पर कांवड़ रखकर बोल बम का नारा लगाते हुए चलना भी काफी पुण्यदायक होता है।इसके हर कदम के साथ एक अश्वमेघ यज्ञ करने जितना फल प्राप्त होता है। यूपी, बिहार सहित दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान तक में कांवड़ लाने का प्रचलन है। घरों में भी प्रायः श्रद्धालु शिवालयों में जाकर सावन मास में भगवान शिव का जलाभिषेक, दुग्धाभिषेक, करते हैं।
ऐसा नहीं है कि कांवड़ यात्रा कोई नयी बात है यह सिलसिला कई सालों से चला आ रहा है। फर्क बस इतना है कि पहले इक्का-दुक्का शिव भक्त ही कांवड़ में जल लाने की हिम्मत जुटा पाते थे, लेकिन पिछले दस सालों से शिव भक्तों कि संख्या में लगातार वृद्धि होती चली जा रही है। मतलब इक्का-दुक्का से सैंकड़ों फिर हजारों और अब लाखों-करोड़ों कांवरियां जलाभिषेक अपने आराध्य देव भगवान भोलेनाथ को कर रहे है।उत्तर भारत में विशेष रूप से पश्चिमी व पूर्वी यूपी 10 वर्षों से कांवड़ यात्रा एक पर्व कुम्भ मेले के समान एक महा आयोजन का रूप ले चुकी है। अपनी श्रद्धा के अनुरूप सर्वप्रथम अपनी सामथ्र्य, समय, अपने गंतव्य की दूरी के अनुसार गंगोत्री या हरिद्वार, ऋषिकेश से जल लेने के लिए बस, ट्रेन आदि से भक्त लोग पहुंचते है। हरिद्वार में सर्वाधिक अनवरत मानव प्रवाह रहता है। मानो प्रतिवर्ष सावन माह में एक कुम्भ का मेला हो।
गंगा स्नान के पश्चात जल भर कर पैदल यात्रा सम्पन्न की जाती है। पूरे माह तक चलने वाली इस यात्रा में कांवडि़ये सैकड़ों किलोमीटर का सफर कर गंगा से जल भरकर लाते हैं और भगवान शिव को चढ़ाते हैं। उत्तराखंड के हरिद्वार और झारखंड के देवघर में कांवड़ यात्रा का खासा महत्व है। कहा जा सकता है सावन लगते ही सड़कों पर अगर कुछ विशेष होता दिखाई देता है तो वह है कांवड़ यात्रा।कांवड़ लाने के लिए शिव के भक्त पूरे साल इंतजार करतें हैं कि कब वो हरिद्वार या झारखंड के सुल्तानगंज के लिए प्रस्थान करेंगे। कठिन यात्रा को पैदल पार करके भगवान भोलेनाथ पर चढायेंगे। कुछ लोग तो गंगोत्री तक से भी जल लेकर धाम में चढ़ाते हैं। हर साल श्रावण मास में लाखों की तादाद में कांवडिये सुदूर स्थानों से आकर गंगा जल से भरी कांवड़ लेकर पदयात्रा करके अपने गांव वापस लौटते हैं।
श्रावण की चतुर्दशी के दिन उस गंगा जल से अपने निवास के आसपास शिव मंदिरों में शिव का अभिषेक किया जाता है। कहने को तो ये धार्मिक आयोजन भर है, लेकिन इसके सामाजिक सरोकार भी हैं। कांवड के माध्यम से जल की यात्रा का यह पर्व सृष्टि रूपी शिव की आराधना के लिए है। पानी आम आदमी के साथ साथ पेड पौधों, पशु-पक्षियों, धरती में निवास करने वाले हजारो लाखों तरह के कीडे-मकोडों और समूचे पर्यावरण के लिए बेहद आवश्यक वस्तु है और किसी न किसी रुप में इन्हें भी जल मिल जाता है।सम्पूर्ण भारत में भगवान् शिव का जलाभिषेक करने के लिए भक्त अपने कन्धों पर कांवड़ लिए हुए (कांवड़ में कंधे पर बांस तथा उसके दोनों छोरों पर गंगाजली रहती है) गोमुख (गंगोत्री) तथा अन्य समस्त स्थानों पर जहां भी पतित पावनी गंगा विराजमान हैं, से जल लेकर अपनी यात्रा के लिए निकल पड़ते हैं। कांवड की जानकारी उस प्रसंग से प्राप्त होती है, जब मात-पितृ भक्त श्रवन कुमार अपने नेत्रहीन माता-पिता को कांवड में बैठाकर तीर्थयात्रा के लिए निकले थे। ‘कस्य आवरः कावरः अर्थात परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ वरदान।
एक अन्य मीमांसा के अनुसार क का अर्थ जीव और अ का अर्थ विष्णु है, वर अर्थात जीव और सगुण परमात्मा का उत्तम धाम। इसी तरह कां का अर्थ जल माना गया है और आवर का अर्थ उसकी व्यवस्था। जलपूर्ण घटों को व्यवस्थित करके विश्वात्मा शिव को अर्पित कर परमात्मा की व्यवस्था का स्मरण किया जाता है। क का अर्थ सिर भी है, जो सारे अंगों में प्रधान है, वैसे ही शिव के लिए कांवड़ का महत्व है जिससे ज्ञान की श्रेष्ठता का प्रतिपादन होता है।क का अर्थ समीप और आवर का अर्थ सम्यक रूप से धारण करना भी है। जैसे वायु सबको सुख, आनंद देती हुई परम पावन बना देती है वैसे ही साधक अपने वातावरण को पावन बनाए। इन तमाम अर्थों के साथ कांवड़ यात्रा का उल्लेख एक रूपक के तौर पर भी करते हैं।
हरिद्वार में भगवान परशुराम ने शुरु की कांवड़
हरिद्वार में कांवड़ यात्रा के बाबत कहा जाता है सर्वप्रथम भगवान परशुराम ने कांवड़ लाकर “पुरा महादेव”, जो यूपी के बागपत में है, भगवान भोलेनाथ की नियमित पूजा करते थे। श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को गढ़मुक्तेश्वर से कांवड़ में गंगा जल लाकर शिवलिंग पर जलाभिषेक किया करते थे।आज भी उसी परंपरा का अनुपालन करते हुए श्रावण मास में गढ़मुक्तेश्वर, जिसका वर्तमान नाम ब्रजघाट है, से जल लाकर लाखों लोग श्रावण मास में भगवान शिव पर चढ़ाकर अपनी कामनाओं की पूर्ति करते हैं। कहते है भगवान शिव को श्रावण का सोमवार विशेष रूप से प्रिय है। श्रावण में भगवान भोलेनाथ का गंगाजल व पंचामृत से अभिषेक करने से शीतलता मिलती है। भगवान शिव की हरियाली से पूजा करने से विशेष पुण्य मिलता है।खासतौर से श्रावण मास के सोमवार को शिव का पूजन बेलपत्र, भांग, धतूरे, दूर्वाकुर आक्खे के पुष्प और लाल कनेर के पुष्पों से पूजन करने का प्रावधान है। इसके अलावा पांच तरह के जो अमृत बताए गए हैं उनमें दूध, दही, शहद, घी, शर्करा को मिलाकर बनाए गए पंचामृत से भगवान आशुतोष की पूजा कल्याणकारी होती है।
भगवान शिव को बेलपत्र चढ़ाने के लिए एक दिन पूर्व सायंकाल से पहले तोड़कर रखना चाहिए। सोमवार को बेलपत्र तोड़कर भगवान पर चढ़ाया जाना उचित नहीं है। भगवान भोलेनाथ के साथ शिव परिवार, नंदी व भगवान परशुराम की पूजा भी श्रावण मास में लाभकारी है। शिव की पूजा से पहले नंदी व परशुराम की पूजा की जानी चाहिए। शिव का जलाभिषेक नियमित रूप से करने से वैभव और सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है।उत्तर भारत में भी गंगाजी के किनारे के क्षेत्र के प्रदेशों में कांवड़ का बहुत महत्व है। राजस्थान के मारवाड़ी समाज के लोगों के यहां गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बदरीनाथ के तीर्थ पुरोहित जो जल लाते थे और प्रसाद के साथ जल देते थे, उन्हें कांवडि़ये कहते थे। ये लोग गोमुख से जल भरकर रामेश्वरम में ले जाकर भगवान शिव का अभिषेक करते थे। यह एक प्रचलित परंपरा थी। लगभग 6 महीने की पैदल यात्रा करके वहां पहुंचा जाता था।इसका पौराणिक तथा सामाजिक दोनों महत्व है। इससे एक तो हिमालय से लेकर दक्षिण तक संपूर्ण देश की संस्कृति में भगवान का संदेश जाता था। इसके अलावा भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की लौकिक और शास्त्रीय परंपराओं के आदान-प्रदान का बोध होता था। परंतु अब इस परंपरा में परिवर्तन आ गया है। अब लोग गंगाजी अथवा मुख्य तीर्थों के पास से बहने वाली जल धाराओं से जल भरकर श्रावण मास में भगवान का जलाभिषेक करते हैं।
बाबा बैजनाथ धाम में मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने की जलाभिषेक : - झारखंड स्थित बैजनाथधाम कांवड़ यात्रा के संबंद्ध में कहा जाता है कहते हैं, पहले कांवडि़या रावण थे। मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने भी सदाशिव को कांवड़ चढ़ाई थी। आनंद रामायण में इस बात का उल्लेख मिलता है कि भगवान श्री राम ने कांवडि़या बनकर सुल्तानगंज से जल लिया और देवघर स्थित बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का अभिषेक किया।
कंधे पर गंगाजल लेकर भगवान शिव के ज्योतिर्लिंगों पर चढ़ाने की परंपरा, कांवड़ यात्रा कहलाती है। कहते हैं यह भक्तों को भगवान से जोड़ती है। महादेव को प्रसन्न कर मनोवांछित फल पाने के लिए कई उपायों में एक उपाय कांवड़ यात्रा भी है, जिसे शिव को प्रसन्न करने का सहज मार्ग माना गया है। वैसे तो कांवड़ शब्द के कई मायने हैं। एक अर्थ यह भी है- क यानी ब्रह्म (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) और जो उनमें रमन करे वह कांवडि़या जो नियमों का सम्यक पान करके अपने आपको इन देवों की शक्तियों से संपूरित कर देकांवड़ तब बनती है, जब फूल-माला, घंटी और घुंघरू से सजे दोनों किनारों पर वैदिक अनुष्ठान के साथ गंगाजल का भार पिटारियों में रखा जाता है।
धूप-दीप की खुशबू, मुख में श्बोल बमश् का नारा, मन में बाबा एक सहारा। भोले नाथ कांवर से गंगाजल चढ़ाने से सबसे ज्यादा प्रसन्न होते हैं। इसके पीछे मान्यता यह भी है कि जब समुद्रमंथन के बाद 14 रत्नों में विष भी निकला था और भोलेनाथ ने उस विष का पान करके दुनिया की रक्षा की थी। विषपान करने से उनका कंठ नीला पड़ गया और कहते हैं इसी विष के प्रकोप को कम करने के लिए, उसे ठंडा करने के लिए शिवलिंग पर जलाभिषेक किया जाता है और इस जलाभिषेक से शिव प्रसन्न होकर आपकी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। यहां रावणेश्वर लिंग के रूप में स्थापित है।श्रावण मास तथा भाद्रपद मास में लाखों श्रद्धालु कांवड़ यात्रा करके इनका जलाभिषेक करते हैं। इस धार्मिक उत्सव की विशेषता यह है कि सभी कांवड़ यात्री केसरिया रंग के वस्त्र धारण करते हैं और बच्चे, बूढ़े, जवान, स्त्री, पुरुष सबको एक ही भाषा में बोल-बम के नारे से संबोधित करते हैं। दरभंगा आदि क्षेत्रों के यात्री कांवड़ के माध्यम से भगवान का अभिषेक बसंत पंचमी पर करते हैं। सर्वप्रथम उत्तर भारत से गए हुए मारवाड़ी परंपरा के लोगों ने इस क्षेत्र में यह परंपरा प्रारंभ की थी।
आगरा में साक्षात शिव दर्शन हुआ कुंवारी कन्या को : आगरा जिले के पास बटेश्वर में, जिन्हें ब्रह्मलालजी महाराज के नाम से भी जाना जाता है। भगवान शिवजी का शिवलिंग रूप के साथ-साथ पार्वती, गणेश का मूर्ति रूप भी है। श्रावण मास में कासगंज से गंगाजी का जल भरकर लाखों की संख्या में श्रद्धालु भगवान शिव का कांवड़ यात्रा के माध्यम से अभिषेक करते हैं। यहां पर 101 मंदिर स्थापित हैं।इसके बारे में एक प्राचीन कथा है कि 2 मित्र राजाओं ने संकल्प किया कि हमारे पुत्र अथवा कन्या होने पर दोनों का विवाह करेंगे। परंतु दोनों के यहां पुत्री संतानें हुईं। एक राजा ने ये बात सबसे छिपा ली और विदाई का समय आने पर उस कन्या ने, जिसके पिता ने उसकी बात छुपाई थी, अपने मन में संकल्प किया कि वह यह विवाह नहीं करेगी और अपने प्राण त्याग देगी। उसने यमुना नदी में छलांग लगा दी।
जल के बीच में उसे भगवान शिव के दर्शन हुए और उसकी समर्पण की भावना को देखकर भगवान ने उसे वरदान मांगने को कहा। तब उसने कहा कि मुझे कन्या से लड़का बना दीजिए तो मेरे पिता की इज्जत बच जाएगी। इसके लिए भगवान ने उसे निर्देश दिया कि तुम इस नदी के किनारे मंदिर का निर्माण करना।यह मंदिर उसी समय से मौजूद है। यहां पर कांवड़ यात्रा के बाद जल चढ़ाने पर अथवा मान्यता करके जल चढ़ाने पर पुत्र संतान की प्राप्ति होती है। इस मंदिर की एक विशेषता यह है कि यहां एक-दो किलो से लेकर 500-700 किलोग्राम तक के घंटे टंगे हुए हैं। उज्जयनी में महाकाल को जल चढ़ाने से रोग निवृत्ति और दीर्घायु प्राप्त होती है। लाखों यात्री इस समय में भगवान शिव का जलाभिषेक करते हैं।यहां की विशेषता यह है कि हजारों की संख्या में संन्यासियों के माध्यम से टोली बनाकर कावड़ यात्री चलते हैं। ये यात्रा लगभग 15 दिन चलती है। हरिद्वार से जल लेकर दिल्ली, पंजाब आदि प्रांतों में करोड़ों यात्री जलाभिषेक करते हैं। यह यात्रा लगभग पूरे श्रावण मास से लेकर शिवरात्रि तक चलती है।
क्यों खास है सावन का हर सोमवार : शिव को श्रावण का सोमवार विशेष रूप से प्रिय है। श्रावण में भगवान आशुतोष का गंगाजल व पंचामृत से अभिषेक करने से शीतलता मिलती है। भगवान शिव की हरियाली से पूजा करने से विशेष पुण्य मिलता है। खासतौर से श्रावण मास के सोमवार को शिव का पूजन बेलपत्र, भांग, धतूरे, दूर्वाकुर आक्खे के पुष्प और लाल कनेर के पुष्पों से पूजन करने का प्रावधान है। इसके अलावा पांच तरह के जो अमृत बताए गए हैं उनमें दूध, दही, शहद, घी, शर्करा को मिलाकर बनाए गए पंचामृत से भगवान आशुतोष की पूजा कल्याणकारी होती है।
भगवान शिव को बेलपत्र चढ़ाने के लिए एक दिन पूर्व सायंकाल से पहले तोड़कर रखना चाहिए। सोमवार को बेलपत्र तोड़कर भगवान पर चढ़ाया जाना उचित नहीं है। भगवान आशुतोष के साथ शिव परिवार, नंदी व भगवान परशुराम की पूजा भी श्रावण मास में लाभकारी है। शिव की पूजा से पहले नंदी की पूजा की जानी चाहिए। सावन के महीने में सोमवार का विशेष महत्व होता है।
इसे भगवान शिव का दिन माना जाता है। इसलिए सोमवार के दिन शिव भक्त शिवालयों में जाकर शिव की विशेष पूजा अर्चना करते हैं। इस वर्ष सावन के महीने में चार सोमवार है। पहला सोमवार 3 अगस्त को है, दूसरा 10 अगस्त को, तीसरा 17 को और चैथा 24 अगस्त को। इन चारों सोमवार का अपना विशेष महत्व है।
सावन का दूसरा सोमवारः शिव से पाएं स्वास्थ्य और बल : - सावन का दूसरा सोमवार भी सर्वार्थ सिद्धि योग लेकर आ रहा है। इसके साथ ही इस दिन व्रज नामक योग भी बन रहा है। इस दोनों योगों के कारण सावन का दूसरा सोमवार विशेष फलदायक बन गया है। इस दिन भगवान शिव की पूजा से बल एवं स्वास्थ्य की प्राप्ति का आशीर्वाद प्राप्त करें। इस सोमवार के दिन भगवान शिव को भांग, धतूरा एवं शहद अर्पित करना उत्तम फलदायी रहेगा।
सावन का तीसरा सोमवारः शिव मंत्र की सिद्धि करें : - सावन का तीसरा सोमवार साध्य योग लेकर आ रहा है। इस योग को साधना और भक्ति के लिए उत्तम माना गया है। शिव भक्त इस दिन भगवान शिव के मंत्रों का जप करके मंत्र सिद्घि प्राप्त कर सकते हैं। माना जाता है कि साध्य योग में भगवान शिव की पूजा करने से कठिन कार्य भी आसानी से बन जाता है।
सर्वोत्तम है सावन का चैथा सोमवार : - सावन का चैथा सोमवार प्रदोश व्रत को साथ लेकर आ रहा है। प्रदोष व्रत भी भगवान शिव को समर्पित होता है इसलिए इस सोमवार का महत्व और भी बढ़ गया है। शास्त्रों के अनुसार सावन के महीने में प्रदोष व्रत के दिन खासतौर पर सोमवार भी हो तो शिव की पूजा करने से अन्य दिनों की अपेक्षा कई गुणा पुण्य प्राप्त होता है।
इस दिन भक्ति पूर्वक शिव की पूजा करने से शत्रुओं पर विजय मिलती है। कार्य क्षेत्र एवं जीवन के दूसरे क्षेत्रों में आने वाली बाधाओं का निवारण होता है। जीवन पर आने वाले संकट टल जाते हैं। इसके अलावा इस दिन आयुष्मान योग एवं सौभाग्य योग भी बन रहा है। इस शुभ योग में भगवान शिव की पूजा करने से दांपत्य जीवन में आपसी प्रेम और सहयोग बढ़ता है।आर्थिक परेशानियों में कमी आती है तथा जीवन पर आने वाले संकट से भगवान शिव रक्षा करते हैं।
कई प्रकार के कावड़ !!!!!
डाक कांवड़ : - डाक कांवडि़या कांवड़ यात्रा की शुरुआत से शिव के जलाभिषेक तक लगातार चलते रहते हैं, बगैर रुके। शिवधाम तक की यात्रा एक निश्चित समय में तय करते हैं। यह समय अमूमन 24 घंटे के आसपास होता है। इस दौरान शरीर से उत्सर्जन की क्रियाएं तक वर्जित होती हैं।
खड़ी कांवड़ : - कुछ भक्त खड़ी कांवड़ लेकर चलते हैं। इस दौरान उनकी मदद के लिए कोई-न-कोई सहयोगी उनके साथ चलता है। जब वे आराम करते हैं, तो सहयोगी अपने कंधे पर उनकी कांवड़ लेकर कांवड़ को चलने के अंदाज में हिलाते-डुलाते रहते हैं।
दांडी कांवड़ : - ये भक्त नदी तट से शिवधाम तक की यात्रा दंड देते हुए पूरी करते हैं। मतलब कांवड़ पथ की दूरी को अपने शरीर की लंबाई से लेट कर नापते हुए यात्रा पूरी करते हैं। यह बेहद मुश्किल होता है और इसमें एक महीने तक का वक्त लग जाता हैइस यात्रा में बिना नहाए कांवड़ यात्री कांवड़ को नहीं छूते। तेल, साबुन, कंघी की भी मनाही होती है। यात्रा में शामिल सभी एक-दूसरे को भोला या भोली कहकर ही बुलाते हैं।
बोल बम या बम प्रौढ़ परस्पर एक दूसरे को भोला या भोली कहकर ही सम्बोधित करते हैं। कांवड़ ले जाने के पीछे अपना संकल्प है कुछ लोग “खडी कांवड़” का संकल्प लेकर चलते हैं, वो जमीन पर कांवड़ नहीं रखते पूरी यात्रा में। पूर्ण रूपेण शाकाहारी भोजन, मदिरा आदि का सेवन न करना भी इनके विधान में रहता है।पैरों में पड़े छाले, सूजे हुए पैर, केसरिया बाने में सजे कांवडि़यों का अनवरत प्रवाह चलता ही रहता है। स्थान-स्थान पर स्वयमसेवी संगठनों द्वारा कांवड़ सेवा शिविर आयोजित किये जाते हैं, जिनमें निशुल्क भोजन, जल, चिकित्सा सेवा, स्नान विश्राम आदि की व्यवस्था रहती है। मार्ग स्थित स्कूलों, धर्मशालाओं, मंदिरों में विश्राम करते हुए ये कांवड़ धारी, रास्ते में स्थित शिवमंदिरों में पूजार्चना करते हुए नाचते गाते, “बम बम बोले बम” भोले की गुंजार के साथ शिवरात्रि (श्रावण कृष्णपक्ष त्रयोदशी ़चतुर्दशी) को जलाभिषेक करते हैं।
देश के अन्य स्थानों में किसी न किसी न किसी रूप में सम्पूर्ण श्रावण मास में ऐसे ही विशिष्ठ आयोजन रहते हैं। श्रावण मास की शिवरात्रि के पर्व से लगभग 10-12 दिन पूर्व से चलने वाला यह जन सैलाब आस्था, श्रद्धा विश्वास के सहारे ही अपनी कठिन थकान भरी यात्रा पूरी करता है। अपने परिवार से दूर, कभी उमस भारी भीषण गर्मी तो कभी निरंतर वर्षा के कारण जल भरे सड़कें, गड्ढे ,भीग कर वायरल, आई फ्लू, पेचिश, अतिसार आदि रोगों की मार भी डिगा नहीं पाती इनको।अंतिम दो दिन ये यात्रा अखंड चलती है जिसको डाक कांवड़ कहा जाता है। निरंतर जीप, वैन, मिनी ट्रक, गाडि़यां, स्कूटर्स, बाईक्स आदि पर सवार भक्त अपनी यात्रा अपने घर से गंतव्य स्थान की दूरी के लिए निर्धारित घंटे लेकर चलते हैं। और अपने इष्ट के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं। बहुत सी कांवड़ तो बहुत ही विशाल होती हैं जिनको कई लोग उठाकर चलते हैं।
विश्व कल्याण की कांवड़ यात्रा : - विषपान की घटना सावन महीने में हुई थी, तभी से यह क्रम अनवरत चलता आ रहा है। कांवड़ यात्रा को आप पदयात्रा को बढ़ावा देने के प्रतीक रूप में मान सकते हैं। पैदल यात्रा से शरीर के वायु तत्व का शमन होता है। कांवड़ यात्रा के माध्यम से व्यक्ति अपने संकल्प बल में प्रखरता लाता है। वैसे साल के सभी सोमवार शिव उपासना के माने गए हैं, लेकिन सावन में चार सोमवार, श्रावण नक्षत्र और शिव विवाह की तिथि पड़ने के कारण शिव उपासना का माहात्म्य बढ़ जाता है।
’शिव’ परमात्मा के कल्याणकारी स्वरूप का नाम है। जो मार्ग नियम, व्यवहार, आचरण और विचार हमें तुच्छता से शीर्ष की ओर ले जाए, वही कल्याणकारी है। शिव लिंग को अंतर्ज्योति का प्रतीक माना गया है। यह ध्यान की अंतिम अवस्था का प्रतीक है, क्योंकि सृष्टि के संहारक शिव भय, अज्ञान, काम, क्रोध, मद और लोभ जैसी बुराइयों का भी अंत करते हैं। शिव कर्पूर गौर अर्थात सत्वगुण के प्रतीक हैं। वे दिगंबर अर्थात माया के आवरण से पूरी तरह मुक्त हैं।उनकी जटाएं वेदों की ऋचाएं हैं। शिव त्रिनेत्रधारी हैं अर्थात भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों के ज्ञाता हैं। बाघंबर उनका आसन है और वे गज चर्म का उत्तरीय धारण करते हैं। हमारी संस्कृति में बाघ क्रूरता और संकटों का प्रतीक है, जब कि हाथी मंगलकारी माना गया है। शिव के इस स्वरूप का अर्थ यह है कि वे दूषित विचारों को दबाकर अपने भक्तों को मंगल प्रदान करते हैं। शिव का त्रिशूल उनके भक्तों को त्रिताप से मुक्त करता है।
मानव कल्याण की संस्कृति ही वास्तव में शिव की संस्कृति है। सावन का महीना, पार्वती जी का भी महीना है। शिव परमपिता परमेश्वर हैं तो मां पार्वती जगदंबा और शक्ति। सदाशिव और मां पार्वती प्रकृति के आधार हैं। चतुर्मास में जब भगवान विष्णु शयन के लिए चले जाते हैं, तब शिव रूद्र नहीं, वरन भोले बाबा बनकर आते हैं। सावन में धरती पर पाताल लोक के प्राणियों का विचरण होने लगता है। वर्षायोग से राहत भी मिलती है और परेशानी भी।
चतुर्मास की शुरुआत में वर्षा के कारण रास्ते आने-जाने लायक नहीं रह जाते। सावन आते-आते वर्षा की गति मंथर हो जाती है। इस काल में पैदल यात्राओं का दौर धीरे-धीरे शुरू हो जाता है। कांवडियों के रूप में यह प्रार्थना सामूहिक उत्सव के रूप में देखने को मिलती है। कांवड़ यात्रा धर्म और अर्पण का प्रतीक है। सावन में काम का आवेग बढ़ता है। शंकर जी इस आवेग का शमन करते हैं।
कामदेव को भस्म करने का प्रसंग भी सावन का ही है। और शिव का विवाह भी श्रावण मास की शिवरात्रि को ही संपन्न हुआ। शिव चरित में उल्लेख है कि सृष्टि चक्र की मर्यादा, परंपरा और नियमोपनियम बने रहें, इसलिए तारकासुर को मारने के लिए शिव ने विवाह किया। तभी से सावन में विवाह परंपरा का भी जन्म हुआ था। इस नाते सावन महीने में लोकोत्पत्ति का उत्सव भी मनाया जाता है।
बम बम भोले में बसी है आस्था : - बम बम भोले बस यही तीन शब्द हैं जिनके सहारे कांवडिए आगे बढ़े जा रहे हैं, लेकिन यह केवल तीन शब्द नहीं हैं, इन शब्दों में छिपी है अपार आस्था, दिल की गहराइयों में बसी भोले की भक्ति, लाखों मनोकामनाएं और उनके पूरा होने की उम्मीद।
प्रसाद हैं पैरों के छाले : - कांवड़ लाने वाले लोगों की संख्या हाइवे पर बढ़ने के साथ ही उनकी सेवा करने वालों की संख्या बढ़ गई है। कांवड़ लेकर आने वाले लोगांें के पैरों में पैदल चलते-चलते छाले पड़ने लगे है। भक्तों को पैरों में छाले एवं बदन दर्द परेशान कर रहा है, लेकिन वह इसे भोले बाबा का प्रसाद मानकर अपनी यात्रा पूरी करने में जुटे हैं।
पं वेद प्रकाश तिवारी ज्योतिष एवं हस्तरेखा विशेषज्ञ