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Kartik Mahatmya Adhyay 20,21: शंकर ने ऐसे मारा राक्षस जलंधर को, कार्तिक माहात्म्य/अध्याय – 20, 21
Kartik Mahatmya Adhyay 20,21: नारद जी बोले–जब गिरिजा वहाँ से अदृश्य हो गईं और गन्धर्वी माया भी विलीन हो गई तब भगवान वृषभध्वज चैतन्य हो गये। उन्होंने लौकिकता व्यक्त करते हुए बड़ा क्रोध किया और विस्मितमना जलन्धर से युद्ध करने लगे।
Kartik Mahatmya Adhyay 20,21: अब राजा पृथु ने पूछा–हे देवर्षि नारद! इसके बाद युद्ध में क्या हुआ तथा वह दैत्य जलन्धर किस प्रकार मारा गया, कृपया मुझे वह कथा सुनाइए। नारद जी बोले–जब गिरिजा वहाँ से अदृश्य हो गईं और गन्धर्वी माया भी विलीन हो गई तब भगवान वृषभध्वज चैतन्य हो गये। उन्होंने लौकिकता व्यक्त करते हुए बड़ा क्रोध किया और विस्मितमना जलन्धर से युद्ध करने लगे। जलन्धर शंकर के बाणों को काटने लगा परन्तु जब काट न सका तब उसने उन्हें मोहित करने के लिए माया की पार्वती का निर्माण कर अपने रथ पर बाँध लिया । तब अपनी प्रिया पार्वती को इस प्रकार कष्ट में पड़ा देख लौकिक-लीला दिखाते हुए शंकर जी व्याकुल हो गये।
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शंकर जी ने भयंकर रौद्र रूप धारण कर लिया। अब उनके रौद्र रूप को देख कोई भी दैत्य उनके सामने खड़ा होने में समर्थ न हो सका और सब भागने-छिपने लगे। यहाँ तक कि शुम्भ-निशुम्भ भी समर्थ न हो सके। शिवजी ने उन शुम्भ-निशुम्भ को शाप देकर बड़ा धिक्कारा और कहा–तुम दोनो ने मेरा बड़ा अपराध किया है। तुम युद्ध से भागते हो, भागते को मारना पाप है। इससे मैं तुम्हें अब नहीं मारूंगा परन्तु गौरी तुमको अवश्य मारेगी।
शिवजी के ऎसा कहने पर सागर पुत्र जलन्धर क्रोध से अग्नि के समान प्रज्वलित हो उठा। उसने शिवजी पर घोर बाण बरसाकर धरती पर अन्धकार कर दिया तब उस दैत्य की ऎसी चेष्टा देखकर शंकर जी बड़े क्रोधित हुए तथा उन्होंने अपने चरणांगुष्ठ से बनाये हुए सुदर्शन चक्र को चलाकर उसका सिर काट लिया। एक प्रचण्ड शब्द के साथ उसका सिर पृथ्वी पर गिर पड़ा और अंजन पर्वत के समान उसके शरीर के दो खण्ड हो गये। उसके रुधिर से संग्राम-भूमि व्याप्त हो गई।
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शिवाज्ञा से उसका रक्त और मांस महारौरव में जाकर रक्त का कुण्ड हो गया तथा उसके शरीर का तेज निकलकर शंकर जी में वैसे ही प्रवेश कर गया जैसे वृन्दा का तेज गौरी के शरीर में प्रविष्ट हुआ था। जलन्धर को मरा देख देवता और सब गन्धर्व प्रसन्न हो गये।
जलंधर के वध के बाद हुई शंकर की जय जय, कार्तिक महात्म्य/ अध्याय-21
अब ब्रह्मा आदि देवता नतमस्तक होकर भगवान शिव की स्तुति करने लगे। वे बोले – हे देवाधिदेव! आप प्रकृति से परे पारब्रह्म और परमेश्वर हैं, आप निर्गुण, निर्विकार व सबके ईश्वर होकर भी नित्य अनेक प्रकार के कर्मों को करते हैं। हे प्रभु! हम ब्रह्मा आदि समस्त देवता आपके दास हैं। हे शंकर जी! हे देवेश! आप प्रसन्न होकर हमारी रक्षा कीजिए। हे शिवजी! हम आपकी प्रजा हैं तथा हम सदैव आपकी शरण में रहते हैं।
नारद जी राजा पृथु से बोले – जब इस प्रकार ब्रह्मा आदि समस्त देवताओं एवं मुनियों ने भगवान शंकर जी की अनेक प्रकार से स्तुति कर के उनके चरण कमलों का ध्यान किया तब भगवान शिव देवताओं को वरदान देकर वहीं अन्तर्ध्यान हो गये। उसके बाद शिवजी का यशोगान करते हुए सभी देवता प्रसन्न होकर अपने-अपने लोक को चले गये।
भगवान शंकर के साथ सागर पुत्र जलन्धर का युद्ध चरित्र पुण्य प्रदान करने वाला तथा समस्त पापों को नष्ट करने वाला है। यह सभी सुखदायक और शिव को भी आनन्ददायक है। इन दोनों आख्यानों को पढ़ने एवं सुनने वाला सुखों को भोगकर अन्त में अमर पद को प्राप्त करता है।