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सबसे अधिक फल देने वाली है कार्तिक पूर्णिमा

Shivakant Shukla
Published on: 22 Nov 2018 4:10 PM IST
सबसे अधिक फल देने वाली है कार्तिक पूर्णिमा
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पूनम नेगी

धर्मशास्त्रों में कार्तिक मास का खूब महिमागान मिलता है। तमाम पौराणिक और आध्यात्मिक प्रसंग इसकी महत्ता को उजागर करते हैं। इस पवित्र महीने की सर्वाधिक फलदायी तिथि है कार्तिक पूर्णिमा। सामान्य तौर आध्यात्मिक दृष्टि से हमारे 12 महीनों में कार्तिक को सर्वाधिक पवित्र उत्सव माह माना गया है। इस पूरे माह तुलसी की पूजा-अर्चना शुभ फलदायी मानी गई है।

पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक कार्तिक पूर्णिमा के दिन श्रीहरि और उनकी प्रिया तुलसी की आराधना करने से मनुष्य के अंदर छिपी तामसिक प्रवृत्तियों का नाश होता है। कार्तिक शुक्ल की देवोत्थानी एकादशी को जगत पालक श्रीहरि के जागरण से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक तुलसी विवाह का पंचदिवसीय आयोजन न सिर्फ विशुद्ध आध्यात्मिक प्रसंग है; वरन वर्तमान की प्रदूषणकारी परिस्थितियों में तुलसी के वायुशोधक गुणों के मद्देनजर भी इसकी उपयोगिता भी कम नहीं है। यही नहीं, ज्योतिषीय गणना के अनुसार कार्तिक पूर्णिमा के दिन चंद्रमा ठीक 180 डिग्री के अंश पर होता है तथा इस दिन चंद्रमा से निकलने वाली किरणों का दिव्य विकिरण मन-मस्तिष्क में सकारात्मक भावों का संचार करता है।

शास्त्रीय मान्यता के अनुसार कार्तिक अमावस्या के दिन मनुष्यलोक में दीपोत्सव के उपरान्त इस पावन तिथि को देवगण दीपावली मनाते हैं। भोलेनाथ की नगरी काशी में तो देव दीपावली की रौनक देखते ही बनती है। कार्तिक पूर्णिमा की संध्या वेला में कल-कल बहती सदानीरा गंगा के तट पर बसी शिव नगरी के घाटों पर जब वैदिक मंत्रों के बीच शास्त्रोक्त विधि से प्रज्ज्वलित लाखों दीपों की साक्षी में महाआरती का अनुष्ठान किया जाता है, तो चहुंओर दिव्य आभामंडल की सृष्टि हो जाती है।

‘‘तमसो मा ज्योर्तिमय’ का पावन संदेश

इस अवसर पर महारानी अहिल्याबाई द्वारा बनवाए गए पंचगंगा घाट का भव्य दीप स्तंभ 1001 दीपों की लौ से जगमगा कर प्रत्येक भावनाशील श्रद्धालु को ‘‘तमसो मा ज्योर्तिमय’ का पावन संदेश देता प्रतीत होता है। कार्तिक पूर्णिमा के गंगा स्नान की भारी मान्यता है। इसे शीत ऋतु से पहले का अंतिम गंगा स्नान माना गया है। इस मौके पर हरिद्वार, प्रयाग, काशी व उज्जैन से गढ़ मुक्तेश्वर और राजस्थान के पुष्कर तीर्थ में विशेष स्नान पवरे का आयोजन होता है, जिनमें लाखों श्रद्धालु आस्था की डुबकी लगाते हैं।

पर्व से जुड़े अन्य पारौणिक प्रसंगों की बात करें तो जगत पालक भगवान विष्णु ने पल्रयकाल में सृष्टि को बचाने के लिए इसी दिन अपना पहला मत्स्य अवतार लिया था। पांडवों ने भी महाभारत युद्ध में दिवंगत परिजनों की पावन स्मृति में कार्तिक पूर्णिमा को गढ़मुक्तेश्वर तीर्थ में गंगा स्नान कर संध्या बेला में दीपदान किया था।सिख धर्म में तो कार्तिक पूर्णिमा की तिथि सर्वाधिक शुभ मानी जाती है। सिख समुदाय के लोग इसे गुरुपर्व के रूप में भारी धूमधाम से मनाते हैं।

महान संत और सिख धर्म के प्र्वतक गुरु नानक की जन्म तिथि होने के कारण सिख समाज में इस दिवस की भारी मान्यता है। सिखधर्मी इस पर्व को प्रकाशोत्सव के रूप में मनाते हैं। इस दिन गुरुद्वारों में गुरु पाठ और कीर्तन का आयोजन होता है तथा सुबह से शाम तक लंगर छकने के लिए भारी भीड़ उमड़ती है। जानना दिलचस्प होगा कि शिवभक्त खास तौर पर शैव मतावलंबी कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरारी पूर्णिमा के रूप में अत्यन्त श्रद्धा और भक्ति के साथ मानते हैं। धर्मशास्त्रों में इस तिथि को महाशिवरात्रि के बाद महादेव शिव की प्रसन्नता और कृपा प्राप्त करने की दूसरी सबसे फलदायी तिथि कहा गया है।

महादेव शिव ने तारकासुर के तीन महाबलशाली पुत्रों का अंत कर देवशक्तियों को भयमुक्त किया था

कहा गया है कि इसी शुभ दिन महादेव शिव ने तारकासुर के तीन महाबलशाली पुत्रों का अंत कर देवशक्तियों को भयमुक्त किया था और हर्षित देवताओं ने महाआरती कर उनको त्रिपुरारी और त्रिपुरांतक की संज्ञाओं से विभूषित किया था। तभी से यह तिथि त्रिपुरारी पूर्णिमा के नाम से विख्यात हो गई। महाभारत के कर्ण पर्व में इस पर्व की महिमा तथा त्रिपुरासुर की वध की कथा विस्तार से वर्णित है। कथा है कि शिव पुत्र कार्तिकेय द्वारा महाअसुर तारकासुर के वध से क्षुब्ध उसके तीनों पुत्रों (तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली) ने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए घोर तपस्या से ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर ऐसा विलक्षण वरदान प्राप्त कर लिया कि उन्हें जीतना असंभव हो गया।

वरदान के मुताबिक मय दानव ने उन तीनों महाअसुरों के लिए अंतरिक्ष में तीन जादुई नगरियों स्वर्णपुरी, रजतपुरी और लौहपुरी का निर्माण किया। इन असुरों को ब्रह्मा जी से वर मिला था कि जब ये पुरियां अभिजित नक्षत्र में एक सीधी रेखा में आएं और उस वक्त कोई क्रोधजित महामानव पूर्ण शांत अवस्था में असंभव रथ पर सवार होकर असंभव बाण का संधान करे तो ही उनकी मृत्यु हो सके। इस अनूठे वरदान के कारण उन दानवों ने चहुंओर अपना आतंक फैलाना शुरू कर दिया। तब देवों की प्रार्थना पर भगवान शिव ने उन तीनों असुरों का अंत करने के लिए वरदान की काट के लिए माया रची।

...वह पावन तिथि थी कार्तिक पूर्णिमा

पृवी उनका रथ बनी, सूर्य और चन्द्रमा रथ के पहिये, ब्रह्मा जी सारथी, विष्णु जी बाण तथा मेरुपर्वत धनुष और नागराज वासुकी उस धनुष की डोर तथा अभिजित नक्षत्र में तीनों पुरियों के एक सीध में आते ही महादेव ने एक ही बाण में तीनों पुरियों को नष्ट कर उनमें मौजूद तीनों महादैत्यों का अंत कर डाला। वह पावन तिथि थी कार्तिक पूर्णिमा। उन तीनों महाअसुरों के आतंक से मुक्त होने की खुशी में देवों ने दीपावली मनाई थी। मान्यता है कि वह शिव नगरी की प्रथम देव दीपावली थी।

हमें इस पौराणिक कथानक के पीछे निहित तत्व दर्शन को आधुनिक संदर्भ में समझने की जरूरत है। अध्यात्मवेत्ताओं ने मानव शरीर के तीन स्तर बताए हैं-स्थूल, सूक्ष्म और कारण। जानना दिलचस्प होगा कि यह विभेद अब वैज्ञानिक रूप से भी प्रमाणित हो चुका है। व्यक्तित्व के संपूर्ण विकास और मानव जीवन के चरम लक्ष्य की सिद्धि के लिए इन तीनों शरीरों का पूर्ण जागरण अनिवार्य है। यूं तो शारीरिक विकास और मानसिक परिष्कार की अनेक योग साधनाएं पतंजलि सरीखे मनीषियों ने बताई हैं। मगर शिव तो आदियोगी हैं।

उनकी कृपा के बिना यह जागरण संभव नहीं। दैहिक, दैविक और भौतिक, तीनों स्वरूपों के अज्ञान जनित दुगरुणों का नाश करने में सिर्फ महायोगी शिव ही सक्षम हैं। इसलिए वे त्रिपुरांतक कहलाते हैं। त्रिपुरारी पूर्णिमा इन्हीं महायोगी को नमन का पावन पर्व है। जगद्गुरु आदि शंकराचार्य की ‘‘दश श्लोकी’ में त्रिपुरासुर संहार की लीला का भावपूर्ण वर्णन मिलता है। वे लिखते हैं कि त्रिपुरासुर पर विजय के लिए जिन भगवान शंकर ने पृवी को अपना रथ बनाया, सूर्य-चन्द्र को रथ सुमेरु को धनुष श्री हरि विष्णु को बाण तथा ब्रह्मदेव को सारथी बनाया; समुद्र जिनका तूणीर और नागराज वासुकि जिनकी प्रत्यंचा बने, उन परब्रह्म सदाशिव में मेरा हृदय नित्य रमता रहे।

अब इस पर्व से जुड़े लौकिक पक्ष की बात करें तो ऋतु परिवर्तन के खास बिंदु की सूचक कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की यह अंतिम तिथि बताती है कि अब मौसम में शीत की ठिठुरन बढ़ेगी। देह विज्ञानियों के मुताबिक वाह्य मौसम का यह बदलाव हमारी दैहिक स्थिति को भी प्रभावित करता है। गर्मी जाने के साथ पित्त शांत हो जाता है जबकि शीत बढ़ने से कफ का प्रकोप बढ़ जाता है।

इससे बचने के लिए ऋतु अनुकूल आहार-विहार की व्यवस्था हमारे यहां बनाई गई थी। आयुर्वेद के अनुसार शीत ऋतु में जठराग्नि प्रबल होती है, खाया हुआ आसानी से पच जाता है। इसलिए इस अवधि में शरीर को बलिष्ठ व ऊर्जावान रखने के लिए दूध, गुड़, घी, तिल, खजूर, मुनक्का, सूखे मेवे और आंवला तथा ज्वार, बाजरा, मंडुआ और मक्का और उरद जैसे अन्न और बथुआ, चौलाई, पालक जिमीकंद, सिंघाड़ा जैसे ऊष्ण प्रवृति के आहार की परंपरा है। यही वजह है कि इस शीत ऋतु को सेहत बनाने की अवधि माना गया है।



Shivakant Shukla

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