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Chanting Mantra: जानिए क्यों नहीं काम करते हैं मंत्र-विधियाँ ?

Chanting Mantra: आज भी आप जब शारीरिक या आर्थिक रूप से परेशान होते हैं और किसी ज्योतिषी के पास जाते हैं, तो वह क्या करता है। जन्म पत्रिका देखने के बाद पीड़ित ग्रह की शांति के लिए कुछ उपाय बता देता है और कुछ मंत्रों का जाप करने के लिए कहता है।

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Published on: 21 April 2023 4:27 AM IST
Chanting Mantra: जानिए क्यों नहीं काम करते हैं मंत्र-विधियाँ ?
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Chanting Mantra (Pic: Newstrack)

Chanting Mantra: आपने अक्सर सत्संग में सुना होगा, रामायण, महाभारत या वेदों आदि में पढ़ा होगा कि प्राचीन काल में तपस्वी लोग मंत्रों की शक्ति से जो चाहे हासिल कर लेते थे। वे जिस चीज का आह्वान करते थे, उसे तुरंत पा लेते थे। आज भी आप जब शारीरिक या आर्थिक रूप से परेशान होते हैं और किसी ज्योतिषी के पास जाते हैं, तो वह क्या करता है। जन्म पत्रिका देखने के बाद पीड़ित ग्रह की शांति के लिए कुछ उपाय बता देता है और कुछ मंत्रों का जाप करने के लिए कहता है।

ऐसे में कई बार लोग सवाल करते हैं कि उन्होंने मंत्रों का जाप तो किया, लेकिन कोई खास सफलता नहीं मिली। आखिर ऐसा क्यों होता है कि जो मंत्र प्राचीन काल में सिद्ध थे, उनका प्रभाव आज कम दिखता है या नहीं दिखता है। मंत्रों की शक्ति प्रभावी क्यों नहीं होती है। आज हम आपको इसका सबसे बड़ा राज बताने जा रहे हैं कि मंत्रों की शक्ति आखिर काम कैसे करती है। दरअसल, आज लोग मंत्रों को जाप करते समय सिर्फ मुंह से बोलते रहते हैं। उसमें उनका मन और आत्मा नहीं शामिल होती है।

मंत्र पढ़ते या जपते समय आधा ध्यान घर के काम में लगा होता है और कई बार तो लोग मंत्रों का जाप करते हुए घर की साफ सफाई भी कर देते हैं, गाड़ी भी चला लेते हैं। उन्हें लगता है कि पंडित ने जपने के लिए कहा था और यह किसी काम को करते हुए भी तो किया जा सकता है।

मगर, यह गलत तरीका है। मान लीजिए आपके घर में अंधेरा है और आप जीरो वॉट का बल्ब लगाते हैं, तो कितनी रोशनी मिलेगी? फिर आप कहेंगे बल्ब तो जला दिया है, लेकिन रोशनी तो आ ही नहीं रही है। यही तो आप मंत्रों को जपते हुए कर रहे हैं। जीरो वॉट के बल्ब की तरह सिर्फ मुंह से मंत्र का उच्चारण करते जा रहे हैं। खुद ही सोचिए क्या वह फलीभूत होंगे।

दूसरा तरीका है, मन से जाप करने का। एक जगह ध्यान लगाकर बैठ जाएं। आपको विचलित करने वाली कोई चीज मोबाइल, किसी तरह का शोर नहीं हो। मंत्र को पूरे मनोयोग से ध्यान केंद्रित करते हुए जपें। जब मन की शक्ति शामिल होगी, तो यह 10 वाट के बल्ब की तरह रोशनी देगी। आपको इसका फायदा होता दिखेगा।

तीसरा तरीका है आत्मा से मंत्रों का जप करना। यह 100 वॉट का बल्ब है, जो पूरे कमरे को रोशनी से भर देगा। क्योंकि इसमें आपका शरीर यानी मुंह से मंत्रों का उच्चारण हो रहा होगा, मन यानी ध्यान में भी आपके मंत्र होंगे और आत्मा यानी आपके शरीर के सातों चक्र, रोम-रोम उसका उच्चारण कर रहा होगा, जैसे प्राचीन काल में लोग करते थे। अब बताइए 100 वॉट का बल्ब जलेगा, तो क्या मंत्रों की शक्ति आपके जीवन के अंधकार को दूर नहीं कर देगी।

मंत्र तो वही थे, वही रहेंगे, लेकिन उन्हें जपने और सिद्ध करने में आप कितनी ऊर्जा लगाते हैं। इससे तय होता है कि आपको उसका फायदा कितना मिल रहा है। पहले तरीके से मंत्र जपने से तो बेहतर है कि आप न ही करें क्योंकि इसका कोई लाभ नहीं मिलेगा। यह बिल्कुल टेप रिकॉर्डर की तरह है, जिसमें आपके मन ने मंत्र बोलने की फीडिंग कर ली है और जैसे आप बाइक या कार चलाते हुए ध्यान नहीं देते हैं और कार चलती रहती है, वैसे ही मंत्रों की शक्ति को बढ़ाते नहीं है। दिमाग की प्रोग्रामिक के चलते मंत्र मुंह से निकलते रहते हैं।

विधियां काम क्यों नहीं करती ?

विधियां जीवंत है, विधियां सदगुरू बनाते हैं, बुद्ध बनाते हैं। और उन्होंने प्रयोग करके बनाई है। उन्होंने जिस विधि से यात्रा की है, और पहुँचे हैं, वे उसी विधि की वे चर्चा करते हैं। फिर हमेशा प्रश्न उठता है कि विधियां काम क्यों नहीं करतीं ? सारा जीवन विधि प्रयोग में ही निकल जाता है ! लोगों को हमने सारा जीवन साधना करते हुए देखा है, ध्यान करते हुए देखा है, और वे वहीं के वहीं हैं, कहीं नहीं पहुँचे है, उल्टे और कलह से भर गए हैं। उनमें पाखंड पैदा हो गया है, उन्हें क्रोध भी आता है और बाद में वे बहुत पश्चाताप में जलते भी हैं कि मैं संन्यासी या साधक होते हुए भी क्रोध से मुक्त नहीं हो पा रहा हूँ !

विधि काम न करने के पीछे बहुत से कारण संभव है। पहला और सबसे बड़ा कारण है अपने साधक होने का अहंकार कि मैं साधक या ध्यानी! इसमें दूसरे के प्रति, जो धार्मिक नहीं हैं, उनके प्रति निंदा का भाव भी आ जाता है कि कुछ नहीं कर रहे हैं, नर्क में जाएंगे। हम दिन रात अध्यात्म और ज्ञान की चर्चा करते रहते हैं, अपनी साधना की चर्चा करते रहते हैं, यानी बीज को बोकर रोज - रोज खोदकर देखते हैं कि उगा या कि नहीं! और ध्यान का बीज जीवन भर नहीं उग पाता।

अपनी प्रेमिका के विषय में हम किसी को बताते नहीं हैं और भगवान् से प्रेम है यह बात हम ढोल पीटकर कहना चाहते हैं। ओशो कहते हैं कि दांया हाथ जो काम करे, वह बांए हाथ को भी पता नहीं चलना चाहिए। साधना की चर्चा करने से जिन अनुभवों से हम गुजरते हैं वे अनुभव दोबारा घटित नहीं होते, उन्हें कहना नहीं है, सिर्फ स्मरण में रखना है, ताकि वे गहरे जा सके। इसलिए सधना में गोपनीयता बहुत आवश्यक है।

दूसरा कारण है झूठ जीवन जीना। हम सुबह से शाम तक सिर्फ झूठ बोलते हैं। दूसरों से भी और अपनों से भी। एक झूंठ को छुपाने के लिए दूसरा झूंठ और तीसरा झूंठ, इस तरह हम अपने ही बनाए झूंठ के जाल में उलझ कर मुसीबत में पड़ते हुए तनाव से भर जाते हैं। तनाव के कारण हम विधि प्रयोग में असमर्थ हो जाते हैं।

तीसरा कारण है संकल्प की कमी। हममें संकल्प बिल्कुल भी नहीं है। हमारी छोटी-छोटी आदतें ही हम नहीं बदल पाते! हर गलती को बार - बार दोहराते रहते हैं। आज जिस बुरी आदत को छोड़ने का संकल्प लेते हैं, कल तक उस पर टिकना मुश्किल हो जाता है, कल और अगले कल पर टाल देते हैं कि अभी कहां जीवन निकला जा रहा, कल देख लेंगे !

चौथा है धैर्य की कमी। हममें धैर्य तो है ही नहीं। हमारा जीवन इतना तेजी से भागा जा रहा है कि हमें आज और अभी ही परिणाम चाहिए। यदि हमारा शरीर अस्वस्थ हो, हमें बुखार हो, तो हमें पूरी तरह से स्वास्थ्य होने में एक से दो सप्ताह लगते हैं जबकि ध्यान तो शरीर के साथ ही चेतना का भी स्वास्थ्य होना है। और शरीर तो अभी बिमार हुआ है, चेतना तो जन्मों से बिमार है। उसके लिए तो हमें प्रतिक्षा करनी पड़ेगी और धैर्य होगा तो ही हम प्रतिक्षा कर पाएंगे।

यह प्रतीक्षा पूरी हो इसके लिए हमें धैर्य रखना होगा। कहने सुनने में यह बात बहुत अच्छी लगती है कि "धैर्य" रखना चाहिए। लेकिन हम धैर्य रख नहीं पाते ? कैसे रखें धैर्य? धैर्य हमारे जीवन में उतर सके इसके लिए हमें स्वीकार भाव बढ़ाना होगा। छोटी-छोटी बातें हम स्वीकार नहीं कर पाते हैं, जो हमें तनाव देकर हमारे स्वभाव में चिड़चिड़ापन घोलती है। जिस चीज की जरूरत हमें थी ही नहीं, वह चीज हम मंहगे दामों में बाजार से खरीद लाते हैं। लेकिन दो से पाँच रूपयों के लिए सब्जी वाले से, फेरी वाले से या फिर बस कंडक्टर से झिक - झिक करते हैं।

यदि हमें धैर्य को अपने जीवन में प्रवेश देना है तो स्वीकार भाव बढ़ाना होगा। जितना स्वीकार भाव बढ़ेगा उतना ही हममें धैर्य का अवतरण होना शुरू हो जाएगा। स्वीकार भाव होगा तो मन में नये तनाव, नयी ग्रंथियां इकठ्ठा नहीं होगी और पुरानी ग्रंथियों को हम रेचन करके से बाहर निकाल देंगे। अतः जैसे - जैसे निर्ग्रंथ होते जाएंगे, वैसे - वैसे धैर्य के साथ ध्यान का प्रवेश हममें होता जाएगा।

पांचवां है विधि में सत्यता का अभाव। कोई भी विधि निरंतरता की मांग करती है। ताकि आगे की विधि में पहुंचा जा सके। बीच में यदि हम विधि से हटते हैं तो निश्चय ही गत्यात्मकता का बना रहना मुश्किल है, हम फिर - फिर पीछे लौट आते हैं। यानी चार कदम बढ़ते हैं और दो कदम फिर पीछे हट जाते हैं। इस तरह हम चलते भी जाते हैं और रूकते भी जाते हैं।

छठा है विधि के चरणों को पूरा नहीं करना। यानी अपने को पूरा नहीं देना, कुछ बचा लेना। हम विधि प्रयोग करते हैं। लेकिन सारे चरणों को पूरी शक्ति और संकल्प से पूरा नहीं करते। और जब तक हम अपना पूरा सौ प्रतिशत नहीं देंगे तब तक विधि काम नहीं करेगी। हममें इतनी त्वरा, इतना संकल्प हो कि हम स्वयं को विधि के हवाले कर सकें, पूरी ताकत, पूरी शक्ति लगा सकें जैसे कोई छुरा लेकर पीछे दौड़ रहा है और हम अपने को बचाने के लिए पूरी शक्ति लगाकर भाग रहे हैं।

इस तरह धीरे-धीरे विधि से हमारा भरोसा ही उठने लगता है, हमारी संकल्प शक्ति और भी क्षीण होने लगती है और ध्यान साधना, कुंडलिनी, तीसरी आँख , अचेतन में जाना यह सब बातें कपोल कल्पना लगने लगती है।

सातवां कारण है अपनी विधि न चुन पाना। यदि हम मोटे तौर पर विधियों को बांटें तो दो तरह की ध्यान विधियां हैं, पहली है सक्रिय विधि और दूसरी है निष्क्रिय विधि। सक्रिय विधि वह है जिसमें हमें कुछ करना होता है मसलन श्रम, व्यायाम, प्राणायाम और निष्क्रिय विधि वह है जिसमें कुछ भी नहीं करना है, शरीर को पूरी तरह से विश्राम में ले जाना है। सक्रिय विधि प्राथमिक है, पहले करनी होती है और निष्क्रिय विधि बाद में यानी सक्रिय विधि से गुजरकर ही निष्क्रिय विधि में प्रवेश किया जा सकता है।

शरीर जब तक श्रम नहीं करेगा, पसीना नहीं निकालेगा, अपने को थकाएगा नहीं तब तक विश्राम को उपलब्ध नहीं हो सकेगा। क्योंकि निष्क्रिय विधि के लिए शरीर का विश्राम में जाना बहुत जरूरी है। शरीर पूरी तरह से विश्राम में होगा यानी कोई हलचल नहीं, पूरी शांति। शरीर के तल पर कोई तनाव नहीं और मन के तल पर भी कोई तनाव नहीं। तभी शरीर विश्राम में जाएगा और निष्क्रिय विधि में प्रवेश कर पाएगा।

परेशानी यहीं से शुरू होती है। सक्रिय विधि हम करते नहीं हैं और सीधे निष्क्रिय विधि प्रयोग करना शुरू कर देते हैं। जब तक हम सक्रिय विधि में श्रम नहीं करेंगे तब तक हम निष्क्रिय विधि में विश्राम को उपलब्ध नहीं हो सकते। हम सीधे निष्क्रिय विधि प्रयोग करते हैं और उसमें सफल हो नहीं पाते, हम शरीर और मन दोनों तलों पर अशांत होते हैं। शरीर विरोध करता है, कहीं खुजली चलती है, कहीं चींटी काटती है, भाव उठते हैं, विचार घेरे रहते हैं। जबकि निष्क्रिय विधि में पैंतालिस मिनट से एक घंटे तक हमें शांत रहना है, कोई भाव नहीं, कोई विचार नहीं, तभी ध्यान में प्रवेश होगा।

अतः निष्क्रिय विधि से पहले हमें सक्रिय विधि से गुजरना होगा, क्योंकि सक्रिय विधि ध्यान का पहला चरण है। यानी सक्रिय विधि हमें निष्क्रिय विधि में प्रवेश करने के लिए तैयार करती है।

(कंचन सिंह)



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