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Lord Krishna Mantra: कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्, था उनमें अद्भुत शत्रुबोध

Lord Krishna Mantra: श्री कृष्ण का वंदन नमन् करते हुए यही कामना है कि भारत भूमि को पुनः उनके अवतरण की उत्कट उत्कंठा है। इस पवित्र भूमि को पाप-शाप से मुक्त कर वंदनीय बनाने की आस अब उनसे ही है।

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Newstrack Network
Published on: 10 Sept 2023 8:04 AM IST
The whole world worships Krishna, Krishna had amazing power to recognize the enemy.
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कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्, था उनमें अद्भुत शत्रुबोध: Photo- Social Media

Lord Krishna Mantra: श्री कृष्ण सम्पूर्ण भारत के धार्मिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, पौराणिक, राजनीतिक, कूटनीतिक आकाश पटल के सर्वकालिक दैदीप्यमान नक्षत्र के रूप में न केवल प्रतिष्ठित है अपितु रहेंगे भी. श्री कृष्ण की जीवन गाथा मानव - जीवन के सभी आयामों में आदर्श- स्थापन की प्रक्रिया व्यावहारिकता की भावभूमि में करने की गाथा है। इसीलिए वे न केवल भारत भूमि के वरन सम्पूर्ण जगत के, सर्वकालिक, सर्वप्रिय नायक रहे है, और रहेंगे भी।

श्री कृष्ण के जीवन की हर घटना जनमानस पर अमिट छाप बनाये हुए है । यहाँ तक कि वे घटनाएं भी जो सहज बुद्धि से अटपटी या असामान्य प्रतीत होती है।

श्री कृष्ण का वंदन नमन् करते हुए यही कामना है कि भारत भूमि को पुनः उनके अवतरण की उत्कट उत्कंठा है। इस पवित्र भूमि को पाप-शाप से मुक्त कर वंदनीय बनाने की आस अब उनसे ही है।

ताहि अहीर की छोहरिया

छछिया भर छाछ पै नाच नचावे

-रसखान

श्री कृष्ण भारतीय जनमानस में रचे बसे एक अत्यंत विलक्षण, अद्वितीय पौराणिक महानायक हैं, जो समाज के सभी वर्गों समूहों में अत्यंत लोकप्रिय, पूज्य एवं सर्वाधिक स्वीकार्य आदरणीय महानायक के रूप में स्थापित हैं। श्री कृष्ण की विलक्षणता उनके जन्म से लेकर मृत्यु तक की घटनाओं में स्पष्टत: परिलक्षित होती है। उनका जन्म अत्यंत असामान्य परिस्थितियों में कंस के कारागृह में, परिस्थितियों की जटिलता एवं मौसम प्रतिकूलता में होता है। फिर भी हर प्रतिकूलता के बावजूद वह आश्चर्यजनक रूप से कंस के कारागृह से निकल कर नंद बाबा के घर पहुंच जाते हैं, और अपने ही पिता महाराजा उग्रसेन के सिंहासन पर बलपूर्वक कब्जा करने वाले कंस जैसे आतताई प्रवृत्ति के परपीडक शासक को इसकी भनक तक नहीं लग पाती है।

उनका जीवन विविध प्रकार के अतिरेकों में सामंजस्य और समरसता विकसित करने का अनुपम उदाहरण है। वे 900000 गायों के स्वामी नंद के दुलारे नंदन होने पर भी साधारण ग्वाल-पुत्रों के साथ सखा भाव में गोचारण करते है।सम्पूर्ण चराचर जगत् के नियन्ता और स्वामी होकर भी गोपिकाओं के आग्रह पर "छछिया भर छाछ" के आश्वासन पर नर्तन करते हैं।

वे कालिया नाग के मान मर्दन के लिए उसके फण पर नर्तन करते हैं, और वे ही "अहीर छोरियों" का मान रखने के लिए "छछिया भर छाछ" पर भी नर्तन करते हैं। ब्रज के सर्वाधिक वैभव संपन्न परिवार के लाडले होने पर भी घर घर माखन चुराते हैं और अपने सखा सुदामा को बिना मांगे अप्रतिम वैभव प्रदान करते हैं। वे ब्रज के रज रज में अपनी बांसुरी के माधुर्य से प्राण संचार करते हैं। गोपी, ग्वालों, गायों, बछडों सभी को अपनी बांसुरी की माधुरी से मंत्रमुग्ध कर देते हैं, और वे ही पाञ्चजन्य को फूंक कर ऐसा निनाद उत्पन्न करते हैं कि कुरुक्षेत्र के महानतम योद्धाओं को भी प्रकम्पित कर देते हैं।उनके भृकुटि- विलास में सृष्टि संचालन की सामर्थ्य होते हुए भी शिशुपाल की सौ गाली बरदास्त करने की क्षमता है।सुदर्शन चक्र धारी होते हुए वे स्मिता मुस्कान और मुरली का माधुर्य बिखेरते है।

वे अपने समय के सर्वश्रेष्ठ नगरीय अवस्थापनाओ में एक मथुरा, जो कंस की राजधानी थी, में वे जन्म लेते हैं, और बचपन बिताने के लिए नंद गांव आ जाते हैं । वे अपना जीवन साधारण ग्वाल के रूप में प्रारंभ करते हैं और ज्ञान की चरम अवस्था पर पहुंचकर कुरुक्षेत्र में गीता के उद्घोषक के रूप में अपनी भूमिका को प्रकट करते हैं।वे परम ज्ञानी है फिर भी वैराग्य के उपदेशक बजाय कर्म के वर्चस्व और प्रधानता के प्रेरक हैं।

वे एक आदर्श मित्र हैं जो सुदामा की विपन्नता में भी अपने सखा धर्म का निर्वहन कर उन्हें बिना मांगे वैभव देता है। मित्र संरक्षण में वे शस्त्र न उठाने का प्रण भंग भी करते हैं। कुशल सारथी, रणनीतिकार, राजनीतिज्ञ के रूप में, परास्त मना अर्जुन में नवीन ऊर्जा का संचार कर उसे रणोन्मुख करते हैं।

वे इतने विराट है कि उनके चरित्र और व्यक्तित्व का बखान करने में पुराण भी सक्षम नहीं है। महर्षि व्यास उनके गुणगान कर भगवत तुल्य हो जाते हैं। उनके चरित्र चित्रण का लेखन करने वाले कवि मनीषी पूज्य बन जाते हैं। उनके जीवन रस-सार का वर्णन करने वाले "रसखान" "रसिकराज" बन जाते हैं।

महाराज युधिष्ठिर द्वारा आयोजित राजसूय यज्ञ में अग्र पूजा के अधिकारी होने के बावजूद भी वे यज्ञ में सभी की चरण सेवा और जूठी पत्तल उठाने में स्वयं को नियोजित करते हैं। गोपियों के अनुराग में पगे कृष्ण परम निर्मोही और निर्लिप्त हैं, फिर भी उन्हें कृष्ण वियोग में मृत-वत गोपीकाओं के विरह दुख की पूर्ण अनुभूति है। उनके दुख को कम करने के लिए वह परम ज्ञानी उद्धव को गोपीकाओं के पास भी भेजते हैं।

वस्तुतः श्री कृष्ण के काल से आज तक लाखों मनीषियों ने अपनी सर्वोत्तम मेधा का प्रयोग करके भी कृष्ण को पूर्ण रूप में जान नहीं पाए हैं। कृष्ण आज भी मनीषियों के लिए भी उतनी ही अबूझ पहेली हैं जितने अज्ञानियों के मध्य। उनके जीवन से जुड़े अनेक घटनाओं का सटीक विश्लेषण बड़े बड़े ज्ञानी भी करने में अपने को असमर्थ पाते हैं, और अज्ञानी तो केवल कुतर्क के वशीभूत हो कुछ प्रलाप ही कर पाते हैं। इसीलिए श्री कृष्ण के व्यक्तित्व के सभी पक्षों का विश्लेषण करने में न तो ज्ञानी सक्षम है और ना ही भक्त। उन्हें केवल निश्छल भाव से पाना ही सबसे सरल है।

आज हमें सर्वशक्तिमान ईश्वर रूपी श्री कृष्ण के बजाए एक जननायक, क्रांतिकारी, सत्य और धर्म के संस्थापक, प्रेरक श्री कृष्ण की अधिक आवश्यकता है।

कृष्ण उठत कृष्ण चलत कृष्ण शाम भोर है,

कृष्ण बुद्धि कृष्ण चित्त कृष्ण मन विभोर है।

कृष्ण रात्रि कृष्ण दिवस कृष्ण स्वप्न शयन है,

कृष्ण काल कृष्ण कला कृष्ण मास अयन है।

कृष्ण शब्द कृष्ण अर्थ कृष्ण ही परमार्थ है,

कृष्ण कर्म कृष्ण भाग्य कृष्ण ही पुरुषार्थ है।

कृष्ण स्नेह कृष्ण राग कृष्ण ही अनुराग है,

कृष्ण कली कृष्ण कुसुम कृष्ण ही पराग है।

पहली गाली पर सिर काटने की शक्ति होने के बाद भी यदि 99 और गाली सुनने का 'सामर्थ्य' है, तो वो *"माधव-कृष्ण हैं।”

सुदर्शन' जैसा शस्त्र होने के बाद भी यदि हाथ में हमेशा 'मुरली' है, तो वो माधव-कृष्ण हैं।

'द्वारिका' का वैभव होने के बाद भी यदि 'सुदामा' मित्र है, तो वो माधव- कृष्ण हैं।

'मृत्यु' के फन पर मौजूद होने पर भी यदि 'नृत्य' है, तो वो ‘माधव-कृष्ण हैं।

'सर्वसामर्थ्य' होने पर भी यदि सारथी' बने हैं, तो वो माधव- कृष्ण हैं।

श्रीकृष्ण का अद्भुत शत्रुबोध

कालयवन ने जब आक्रमण किया तो उसका वध करने के लिए उन्होंने अपनी सेना का बलिदान देना व्यर्थ समझा, कालयवन को अकेले युद्ध का निमंत्रण दिया और जब कालयवन ने उनके निमंत्रण को स्वीकार कर लिया तो रणक्षेत्र से कन्हैया भागने लगे जिस कारण उन्हें "रणछोड़" की उपाधि भी मिली, लेकिन उनके लिए अपनी निंदाओ का देशकार्य के समक्ष कोई महत्व नहीं था।

जीवन के समर में चार बातों का ज्ञान अनिवार्य है, पहला आत्मबोध (स्वयं के बारे में जानकारी), दूसरा शत्रुबोध (शत्रु के बारे में सम्पूर्ण जानकारी), तीसरा युद्धस्थल का ज्ञान और चौथा व्यूह रचना अथवा योजना।

मधुसूदन श्रीकृष्ण, इन चारों विषयों के अद्भुत ज्ञाता थे किंतु उनके शत्रुबोध ने मुझे सबसे अधिक आकर्षित किया। वे अवतार होकर भी मनुष्य रूप में थे तो उन्होंने कितना अधिक अपने शत्रुओं के बारे में अध्ययन किया होगा? उनकी "Monitoring Team" कितनी सशक्त रही होगी? उन्होंने अधिकांश शत्रुओं को बिना लड़े पराजित किया, महाभारत के युद्ध में केवल सारथी की भूमिका में रहें, किंतु उन्हें रणक्षेत्र के अंदर और बाहर के प्रत्येक व्यक्ति का इतिहास और वर्तमान पता था और कौरव सेना के प्रत्येक सेनापति के वध में उनके "शत्रुबोध" की भूमिका रहीं।

भीम भैया, जीवनपर्यंत जरासंध से मल्लयुद्ध करतें रहते, फिर भी वे जरासंध का वध नहीं कर पाते थे, क्योंकि उन्हें जरांसध के जन्म से जुड़ी कथा नहीं पता थी। श्रीकृष्ण को पता थी, इसलिए वे दर्शक दीर्घा में बैठकर ही पत्ते को चीरकर, भीम भैया को जरासंध वध की युक्ति बता देते है।

उन्हे पता था कि आगे गुफा में राजा मचुकंद सो रहे हैं और उन्हें देवेंद्र का वरदान प्राप्त है कि उनकी नींद में कोई विघ्न उत्पन्न करेगा और वे जागेंगे तो पहली दृष्टि जिस व्यक्ति पर पड़ेगी वह वहीं भस्मीभूत हो जायेगा। श्रीकृष्ण ने गुफा में प्रवेश कर अपना दुशाला सोए हुए मचुकंद पर डाल दिया और स्वयं पास में ही छिप गए। कालयवन को लगा यह कृष्ण ही है और यह सोचकर उसने मचुकंद की निद्रा में विघ्न डाला, मचुकंद जागे और उनकी दृष्टि पड़ते ही कालयवन, काल में समा गया।

महाभारत के युद्ध में भीष्म से लेकर दुर्योधन तक कौरव सेना के सभी सेनापति - महारथी का वध इसलिए हो पाया, क्योंकि श्रीकृष्ण सभी का इतिहास ,शक्ति और दुर्बलता सबकुछ जानते थे।

पहले सेनापति पितामह भीष्म को कोई सैन्य-शक्ति निष्क्रिय नहीं कर सकती थी, क्योंकि उन्हें ईच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। किंतु श्रीकृष्ण भीष्म का अतीत जानते थे। वे अम्बा के स्वयंवर और भीष्म से प्रतिशोध की कथा जानते थे, वे यह भी जानते थे कि अम्बा ही शिखंडी है, भीष्म उसे स्त्री ही मानते है, इसलिए भीष्म उसके सामने शस्त्र नहीं उठाएंगे और फिर शिखंडी की सहायता से अर्जुन द्वारा अपने पितामह के बाणों की शय्या तैयार करवाते है।

दूसरे सेनापति द्रोणाचार्य की दुर्बलता उनका पुत्र अश्वत्थामा था और इसी दुर्बलता का लाभ उठाकर, द्रोणाचार्य के वध के लिए तो श्रीकृष्ण पूरा "Echo Chamber" तैयार करवाते है, सब ओर से एक ही आवाज सुनाई देती है कि अश्वत्थामा को मार दिया, द्रोणाचार्य इसे सत्य मान लेते है, पुत्र वियोग में शस्त्र त्याग देते है फिर निहत्थे द्रोणाचार्य का वध कर दिया जाता है।

"Breaking Bharat Movment" में लगे लोग आज एक साथ एक ही झूठ को एक साथ सब तरफ से योजनापूर्वक इस तरह से बोलते है कि वह देशवासियों को सच लगने लगता है, श्रीकृष्ण सिखाते है कि "Making Bharat Movment" में लगे लोगों को भी इस युक्ति का उपयोग करना ही चाहिए।

कर्ण का वध, उसकी दानवीरता की उपाधि में आसक्ति का उपयोग करके उसके अपराजेय कवच- कुंडल देवेंद्र से भिक्षा में ले लेना, कर्ण के पास ऐसी शक्ति है, जिसका प्रतिकार अर्जुन के पास भी नहीं है, इसलिए अर्जुन की रक्षा के लिए, घटोत्कच को युद्ध में लाना और कर्ण को शक्ति का घटोत्कच पर उपयोग करने के लिए विवश कर देना, यह सब श्रीकृष्ण के अद्भुत "शत्रु बोध" के ही तो परिचायक है।

दुर्योधन की मां पट्टी खोलेगी और उसकी दृष्टि पड़ने पर दुर्योधन की देह वज्रवत हो जाएगी, फिर भीम उसका वध नहीं कर पाएंगे इसलिए उसे पत्ते लपेटकर जाने के लिए तैयार करना और फिर भीम को गदा युद्ध के दौरान उसी जंघा पर वार करने का इशारा करना। सबकुछ श्रीकृष्ण के अद्भुत शत्रुबोध के ही तो परिणाम है।

महाभारत युद्ध के अंत में "बर्बरीक" कहते है, मुझे श्रीकृष्ण के सिवा कोई युद्ध करते हुए नहीं दिखा, वे ही कौरव सेना का विनाश कर रहे थें। सत्य ही तो है! श्रीकृष्ण न होते तो युद्ध विजय तो छोड़िए, पांडव भीष्म पितामह को ही निष्क्रिय नहीं कर पातें।

श्रीकृष्ण ने महाभारत के युद्ध में कुछ नहीं किया, किंतु उन्होंने ही सब कुछ किया। अध्ययन कितना अनिवार्य और आवश्यक है। आत्मबोध और शत्रुबोध कितना आवश्यक है यह श्रीकृष्ण सिखाते है।

भारत मां के हम पुत्रों को भी आत्मबोध और शत्रुबोध दोनो का ही ज्ञान होना चाहिए क्योंकि शत्रु को हमारे बारे में पूरा बोध है। वे श्रीरामचरित मानस जैसे महान ग्रंथ की एक चौपाई के द्वारा ही सम्पूर्ण रामचरितमानस को कठघरे में खड़ा कर देते है और हम उनके तथ्यों को सच भी मानने लगते है। उनके विमर्श अत्यन्त प्रबल होते हैं क्योंकि उन्होंने हमारे ग्रंथों का, जीवन पद्धति का सूक्ष्म अध्ययन किया है।

ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन से कई समय पहले से अंग्रेज भारत का अवलोकन कर रहें थे। तभी तो वे भारत को एक कंपनी के साए में अधीन करने में समर्थ हुए।

अब अपनी बारी है, आत्मबोध के साथ शत्रुबोध के प्रति सचेत होने की, इसलिए नहीं कि हमें किसी का वध करना है अथवा किसी पर आक्रमण करना है पर कोई हम पर आक्रमण न कर पाए इसलिए।

Shashi kant gautam

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