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Maha Kumbh 2025 : आखिर 12 साल बाद ही क्यों लगता है महाकुंभ, जानिए पौराणिक कथा और रहस्य

Maha Kumbh 2025: यह कथा देवताओं और असुरों, धर्म और अधर्म, प्रकाश और अंधकार के बीच हुए संघर्ष पर आधारित है।

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Published on: 20 Nov 2024 3:46 PM IST (Updated on: 20 Nov 2024 3:49 PM IST)
Maha Kumbh 2025:
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Maha Kumbh 2025: 

Maha Kumbh 2025: मान्यता है कि मंदराचल पर्वत के द्वारा सागर मंथन से ही इस संसार की संरचना हुई है। यह कथा देवताओं और असुरों, धर्म और अधर्म, प्रकाश और अंधकार के बीच हुए संघर्ष पर आधारित है। यह उस समय की बात है जब अंधकार युग (कलियुग) समाप्ति की ओर था और मनुष्य धर्मपरायणता में असफल हो रहा था। उनका अमृत भीमहाजलप्रलय में लुप्त हो चुका था जिसने देवताओं व मनुष्यों को दुर्बल कर दिया था।

इस समस्त दृष्टांत पर देवताओं ने चिंतित होकर मेरू पर्वत पर सभा बुलाई व ब्रह्मा जी से सहायता मांगने का विचार बनाया। ब्रह्मा जी ने कहा हम सबका प्राणाधार अमृत सागर तल पर कहीं लुप्त हो गया है और जिस प्रकार दूध से मक्खन निकाला जाता है उसी प्रकार दिव्य अमृत को पाने के लिए सागर पानी को मथना पड़ेगा। इसलिए आप सब भगवान विष्णु के पास जाइये, वे आपकी सहायता करेंगे।

इस पर देवताओं ने भगवान विष्णु के सहस्र नामों का उच्चारण कर उन्हें प्रसन्न किया,

प्रसन्न होने पर भगवान विष्णु ने कहा अमृत देवताओं को पुनर्जीवन देगा परंतु इस अमृत को प्राप्त करने के लिए देवताओं व असुरों को आपस में सहयोग करके सागर को मथना पड़ेगा। भगवान विष्णु ने भ्रमित हो रहे देवताओं को पुनः आश्वस्त किया कि वे उनमें अपनी आस्था बनाये रखें।

नागों के राजा वासुकि ने अपने शरीर को मंदराचल पर्वत के चारों ओर रस्सी की तरह लपेट दिया। इसके पश्चात् देवताओं ने वासुकि की पूँछ को और असुरों ने उसके मुख को पकड़ कर बारी-बारी से आगे-पीछे खींचना शुरु किया जिससे मंदराचल पर्वत मथानी की तरह सागर को मथने लगा।


एक हजार वर्ष तक सागर को मथने के पश्चात् मंदराचल सागर के अथाह गहरे तल को मथता हुआ उसके भीतर जाने लगा तब श्री हरि भगवान विष्णु ने कूर्म (कच्छप) का रूप धारण किया, जो आकार में किसी द्वीप के समान था। उस कच्छप ने गहरे सागर तल पर जाकर मंदराचल पर्वत को सहारा प्रदान किया।

सागर मंथन के समय उसमें से चौदह अमूल्य रत्न निकले, जैसे- चन्द्र, कौस्तुभ मणि (भगवान विष्णु के वक्षःस्थल का आभूषण), कल्प वृक्ष, शंख, धनुष, कामधेनु गाय, देवताओं के राजा इन्द्र की सवारी ऐरावतहाथी, उच्चैश्रवा नामक अश्व, चन्द्र का प्रकाश लिए असुरों का राजा बलि, आकर्षक दिव्य अप्सरा-रंभा, सुरा देवी वारुणी, कमल धारण किए हुए धन-धान्य की देवी लक्ष्मी, जिन्हें तीनों लोकों के स्वामी भगवान विष्णुअपनी शक्ति कहते हैं।

"श्री मणि रंभा वारूणी अमिय शंख गजराज।

कल्पद्रुम धनु धेनु शशि धन्वन्तरि विष बाज"।।

अंत में आयुर्वेद के जनक और देवताओं के चिकित्सक धन्वन्तरि जिन्हें भगवान विष्णु के अनेक रूपों में एक कहा जाता है, हाथों में अमृत भरा हुआ कलश लेकर सागर से प्रकट हुए, उन्हें देखते ही देवताओं और असुरों ने मथने की रस्सी छोड़कर अमृत कलश पाने के लिए धन्वन्तरि की ओर दौड़ लगाई। देवराज इन्द्र ने अपने पुत्र जयन्त को निर्देश दिया कि वो अमृत कलश को प्राप्त करके उसकी रक्षा करें। आदेशानुसार जयन्त ने कुम्भ (अमृत कलश) को प्राप्त किया और पूरे ब्रह्माण्ड में दौड़ने लगा, साथ ही असुरों ने भी बारह दिनों तक उसका पीछा किया। जयन्त ने बारह बार रूक-रूक कर विश्राम किया जिसमें चार बार पृथ्वी, चार बार स्वर्ग व चार बार पाताल लोक हैं।

प्रत्येक विश्राम-स्थल पर अमृत की कुछ बूंदें छलक गयीं। पीछा करते हुएअसुरों ने अमृत कुम्भ को छीन लिया और आपस में ही द्वंद्व करने लगे कि उनमें से पहले कौन अमृतपान करेगा, इसी द्वंद्व के मध्य में मोहिनी एकदिव्य सौन्दर्य की स्वामिनी व जिसका वर्णन शब्दों में भी नहीं किया जासकता, प्रकट हुई। मोहिनी के आकर्षक सौन्दर्य को देखकर असुरों की मति फिर गयी और उनमें से एक ने अमृत कलश लेकर मोहिनी से कहा किअब आप ही निर्धारित करिये कि हम लोगों में अमृत किस प्रकार बांटा जाये ।

मोहिनी मुस्कुराई और असुरों ने उसके द्वारा होने वाले निर्णय पर अपना विश्वास जताया। मोहिनी ने कहा कि देवताओं और असुरों ने एक समान कठिन परिश्रम किया है, इसलिए दोनों पक्षों का अमृत पर अधिकार भी समान होना चाहिए। उसने दोनों पक्षों को दो पंक्तियों में विभाजित किया और अपनी आँखें बन्द कर लेने को कहा। भगवान विष्णु के इस अवतरित मायावी रूप ने कलश लेकर सर्वप्रथम देवताओं को अमृत परोसा। समस्त देवताओं को अमृत परोसने के पश्चात् मोहिनी अन्तर्ध्यान हो गयी। जब असुर मतिभ्रम से जागे तब उन्हें ज्ञात हुआ कि वे तो छले गये हैं। अमृत से देवताओं ने पुनः अपने को शक्तिशाली बनाया व चल रहे संघर्ष में भी विजय प्राप्त की जिससे ब्रह्माण्ड में धर्म की पुनः उचित स्थापना हुई।


इसी संघर्ष के बीच राहु वेष बदलकर चुपके से देवताओं की पंक्ति में प्रविष्ट हो गया था और इससे पहले कि वह पहचाना जाता उसने अमृत की एक बूँद प्राप्त कर ली। विष्णु ने तत्काल अपना सुदर्शन चक्र चलाया जिसने उस असुर का सिर धड़ से अलग कर दिया जिससे अमृत उसके शरीर में नहीं पहुँच पाया। राहु का मृत शरीर गिर पड़ा परन्तु चक्र ने उसके न मरने वाले सिर को अंतरिक्ष में उछाल दिया। अब राहु बदला लेने वाला एक ग्रह बनकर सूर्य और चन्द्र के मध्य रहने लगा। धार्मिक मान्यता के अनुसार राहु का सूर्य और चन्द्र को ग्रास बनाने के प्रयास के कारण ग्रहण भी लगता है।

देवताओं के बारह दिन और मनुष्य के बारह वर्ष एक समान हैं, इसलिए कुम्भ पर्व हर बारह साल पर आयोजित होता है। ग्रहों के देवता सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति ने जयन्त की रक्षा की व अमृत कलश को भी सुरक्षा प्रदान की। अंतरिक्ष शास्त्र के अनुसार ये तीनों (सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति) कुम्भपर्व पर एक साथ उपस्थित होकर मनुष्य जाति को अपना आशीर्वाद प्रदान करते हैं।

भारत में हरिद्वार, प्रयाग (इलाहाबाद), नासिक व उज्जैन की इन चार क्रमश: पवित्र नदियों गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम, गोदावरी एवं क्षिप्रा में अमृत छलका था, इसलिए ये चारों स्थान पवित्र कुम्भ पर्व के केंद्र माने गये हैं।

महर्षि दुर्वासा का शाप व समुद्र मंथन

श्रीम‌द्भागवत में महर्षि दुर्वासा की कथा का एक संक्षिप्त उल्लेख मिलता है- देवताओं के राजा इन्द्र को महर्षि दुर्वासा द्वारा अपनी माला उपहार में दिये जाने पर इन्द्र ने उसे अपनी सवारी ऐरावत हाथी के मस्तक पर फेंक दिया जिसे ऐरावत ने अपने पैरों से कुचल दिया। महर्षि दुर्वासा ने इसे अपना अपमान समझकर इन्द्र को श्री विहीन होने का शाप दे डाला।परिणामस्वरूप इन्द्र युद्ध में राक्षसों से पराजित हो अपनी शक्ति, वैभव व राज्य खो बैठे। तदुपरान्त भगवान श्री नारायण से प्रार्थना करने पर उन्हें समुद्र की गहराई में छिपे अमृत को निकालने के लिए समुद्र मंथन की युक्ति सुझाई गयी।


इस कथा का एक और विस्तार हमें महाभारत और संक्षिप्त महाभारत में भी मिलता है जिसमें भगवान विष्णु और ब्रह्मा का सुमेरू पर्वत पर अमृत केआविष्कार के लिए एकत्र होना बताया गया है, जहां भगवान विष्णु ने देवताओं और दानवों को समुद्र दोहन के लिए मंदराचल पर्वत को मथानी तथा वासुकि नाग को रस्सी बनाकर समुद्र को मथने का सुझाव दिया।भगवान विष्णु ने स्वयं कच्छप का रूप धारण कर मंदराचल पर्वत कोआधार प्रदान किया व उसका संतुलन बनाये रखने का कार्य किया। समुद्र मथने पर समुद्र की अथाह जलराशि का रंग दूध के समान श्वेत हो गया। मंथन से प्राप्त चौदह रत्नों के क्रम में भगवती लक्ष्मी, सुरा देवी, चन्द्रमा और अंत में भगवान धन्वन्तरि अमृत भरा श्वेत कलश हाथों में लिए प्रकट हुए।

कद्र और विनता की कथा

मत्स्य पुराण और विष्णु पुराण में सात द्वीपों का वर्णन मिलता है जम्बूद्वीप, शाक द्वीप, कुश द्वीप, क्रौंच द्वीप, शाल्मल द्वीप, गोमेद द्वीप और पुष्कर द्वीप जिनमें शाक द्वीप के वर्णन में मत्स्य पुराण के अनुसार इस द्वीप में सात बड़ी नदियां हैं जो पवित्रता में गंगा के समान हैं। पहले समुद्र में मणियों से सुशोभित सात पर्वत हैं, उनमें से कुछ पर देव और कुछ पर दानव रहते हैं। इनमें से एक सोने का ऊँचा पहाड़ है जहां से वर्षा लाने वाले मेघ उठते हैं, दूसरे औषधियों का भण्डार है, राजा इन्द्र इनसे वर्षा लेता है।

कद्रु-विनता की कथा समुद्र मंथन से प्राप्त कलश में रखे अमृत प्राप्ति केबाद की घटना से सम्बन्धित है :- महर्षि कश्यप सप्तऋषियों में से एक उनकी 13 पत्नियों में दो पत्नियां कद्रु और विनता जुड़वां बहनें थीं, कद्रुसांपों की माता थीं और विनता पक्षियों और गरुड़ की माता थीं। यह दोनों में आपसी मतभेद को लेकर शर्त लगाकर दासी होने और उससे छुटकारा के लिए देवताओं द्वारा छुपाये गये अमृत की खोज से सम्बन्धित कथा है।


दोनों बहनें एक मैदान में रहती थीं, उन्होंने भ्रमण करते समय आकाश मार्ग से जाते हुए सात मुँह वाले श्वेत अश्व को देखा और उसके पूँछ के रंग को लेकर शर्त लगायी। कद्रु ने पूँछ का रंग काला होने की बात कही और. विनीता ने पूँछ का रंग सफेद बताया। अब उन्होंने शर्त लगायी कि जिसकी बात असत्य निकले वह दूसरी की दासी बनकर रहेगी। परन्तु उन्होंने निर्णयअगले दिन पर छोड़ दिया।

रात को सांपों की माता ने अपने काले बच्चों को घोड़े के पास भेजा ताकि वे उसकी पूँछ पर लिपटकर उसके रंग को छिपा दें। इसका परिणाम यह हुआ कि कटु के सर्पपुत्रों ने घोड़े की पूँछ पर लिपटकर उसके काला होने का भ्रम उत्पन्न कर दिया जिससे कद्रु जीत गयी और विनता को दासी बनना पड़ा।

माँ को दासत्व से मुक्ति दिलाने के लिए उसके पुत्र गरुड़ ने अमृत खोजकर सर्पों को देने की बात स्वीकार कर ली। अमृत को देवताओं के राजाइन्द्र ने संरक्षित कर रखा था। वो गरुड़ को अमृत कलश इस बात पर देनेको सहमत हो गये कि वे इसे सर्पों को नहीं पिलायेंगे, परन्तु गरुड़ ने अमृतकुम्भ सपों को सौंपकर अपनी माँ को दासत्व से मुक्ति दिलायी। इसकेबाद गरुड़ ने सर्पों से कहा कि जब तक तुम गंगा में स्नान न कर लो, अमृत के निकट न आना। सर्प स्नान करने चले गये। इसी बीच में गरुड़ इसे देवों के पास वापस ले आया, जिससे उसकी पवित्रता की पदवी बहुत ऊँची हो गयी और वह सब पक्षियों का राजा और विष्णु का वाहन बन गया।

( उत्तर प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग से प्रकाशित पुस्तक कुम्भ-2019 प्रयागराज से साभार।)



Sonali kesarwani

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