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Motivational Story Hindi: सुख के सब साथी, दु:ख में न कोय

Motivational Story Hindi: दु:ख में जो साथ दे वह ईश्वर है। सुख में जो साथ दे वह जीव है। ईश्वर सर्वदा दु:ख में ही साथ देते हैं, अत: ईश्वर वन्दनीय हैं। ईश्वर ने जिस-जिसको सहायता दी है, दु:ख में ही दी है। पांडव जब तक दु:ख में थे ।

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Newstrack Network
Published on: 26 Nov 2023 3:41 PM IST
All companions of happiness, no one in sorrow
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सुख के सब साथी, दु:ख में न कोय: Photo- Social Media

Motivational Story Hindi: दु:ख में जो साथ दे वह ईश्वर है। सुख में जो साथ दे वह जीव है। ईश्वर सर्वदा दु:ख में ही साथ देते हैं, अत: ईश्वर वन्दनीय हैं। ईश्वर ने जिस-जिसको सहायता दी है, दु:ख में ही दी है। पांडव जब तक दु:ख में थे । तब तक श्रीकृष्ण ने उनकी सहायता की। पर पांडव जब सिंहासन पर बैठे तब श्रीकृष्ण भी वहाँ से चले गये। ईश्वर जिसे भी मिले हैं, दु:ख में ही मिले हैं। सुख का साथी जीव है और दु:ख का साथी ईश्वर है, इस बात का सदैव चिंतन-मनन करना है।

सुख के सब साथी, दु:ख में न कोय

दु:ख पड़ने पर सांसारिक लोग स्वत: ही हमसे दूरी बना लेते हैं कि कहीं हमारे कारण उनकी कोई आर्थिक क्षति न हो जाये। और जब सब छोड़ देते हैं । तब सदैव ही भोगों के पीछे दौड़ने वाला यह मन भली प्रकार जान लेता है कि "सुख के सब साथी, दु:ख में न कोय" तो अब स्मरण हो आता है उस अपने स्वजन का, ह्रदय सच्चे मन से पुकार उठता है - "आ जाओ गोपाल ! अब तो आ जाओ !"

और उन्हें इसी क्षण की तो प्रतीक्षा होती है कि कोई अपना पुकारे तो ! अब अनुभूति होती है कि जो कर रहे हैं, वही कर रहे हैं । जो भी कर रहे हैं, मेरे ही कल्याण के लिये कर रहे हैं । संपूर्ण परिदृश्य का परिवर्तन। शब्दों के गूढ़ार्थ प्रकट होने लगते हैं और अतिशय प्रेम से भरे प्रकट हो जाते हैं वे भी। नाना-रुपों में। पहिचान सको तो। ! निजजन को ह्रदय से न लगावें यह भला कहाँ संभव? दीन के दीनदयाल। पतित के पतित-पावन ।

कैसा अदभुत परिवर्तन? स्वत: ही ! कुछ भी छोड़ना नहीं पड़ा। इच्छा भी न थी, क्षमता भी न थी। छूट गया संसार॥ हो गयी निवृत्ति मोह-आसक्ति से। अब जाना कि किससे माँगना था और किससे माँग रहे थे? विरह की वेदना से उत्पन्न अश्रु ! पश्चाताप के अश्रु ! धुल गया ह्रदय का कलुष। संसार से प्रेम माँग रहे थे जो उसके पास था ही नहीं और श्रीहरि से संसार माँग रहे थे, उन्हें छोड़कर।

महारानी कुंती ने केशव से यूँ ही नहीं माँगा था कि हमें सब समय दारुण दु:ख मिले ! दु:ख में ही श्रीहरि का स्मरण होता है। कहीं देह में चोट लग जाये, असहय वेदना हो जाये; मुख से स्वत: ही बारम्बार श्रीहरि नाम का उच्चारण होता है और स्वस्थ होते ही परिवारीजनों का। वे अपनों को ही आजमाते हैं। वे आजमायें और कोई परीक्षा में उत्तीर्ण हो जावे, यह भला कहाँ संभव? तो परीक्षा ही क्यूँ? परीक्षा इसलिये कि ममत्व जड़ से ही नष्ट हो जावे। दोनों में अभेद संबध पुन: स्थापित हो जावे। अब तक जो धारणा थी कि मैं तेरा । उससे मुक्त होकर इस शाश्वत सत्य का ज्ञान हो जावे कि तू मेरा। मैं तेरा में मैं है और तू मेरा अर्थात समर्पण। मैं नहीं तू ही तू। तुम प्रेम करो, न करो, ड्यौढ़ी की सेवा दो अथवा मार्ग बुहारने की अथवा दुत्कार ही क्यों न दो किन्तु मैं तुम्हें छोड़कर कहाँ जाऊँ? एक ही आश्रय ! एक ही संबल ! चिर सुहागिनी हूँ मैं ।

एक क्षण में जीवन में परिवर्तन वे ही ला सकते हैं

पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा था कि -"जाके प्रिय न राम वैदेही, तजिये ताहि कोटि वैरी सम, जदपि परम सनेही।" श्रीहरि की कैसी कृपा कि तजना भी न पड़ा; संसार ने स्वत: ही तज दिया। कैसी अगाध अनुकंपा। हम भी तो बिना लात खाये उनकी शरण में जाते नहीं। एक क्षण में जीवन में परिवर्तन वे ही ला सकते हैं। संसार छोड़ने लगे तो समझ लेना कि श्रीहरि की ही अगाध कृपा बरस रही है और अपने कल्याण का समय आ पहुँचा है। कोई क्रदंन नहीं ! भर जाना आहलाद से, उल्लास से ! आ रहे हैं वे ! गज को छुड़ाने वाले क्या इस संसार-रुपी ग्राह से मुझे न छुड़ावेंगे? आ रहे हैं वे नंगे पाँव । गरुड़ को छोड़कर। अहा ! पलकें ठहर गयीं हैं इस दृष्य को देख। पीड़ा का कोई भान नहीं। उनके अगाध प्रेम से भरे नेत्रों को देखकर कुछ नहीं सूझता; बाबरी दे रही है अर्घ्य, अश्रु-जल से !



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Shashi kant gautam

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