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Motivational Story Hindi: वैदेही की आत्मकथा, धोबी के वचन और श्री राम का दुःख
Motivational Story Hindi: वैदेही की आत्मकथा,मेरे श्री राम के बचपन के मित्र थे।” उसका नाम "विजय" था.लेकिन वह नाम "विजय राघव" बोलने को कहते थे
Motivational Story Hindi: मैं वैदेही ! मेरे श्रीराम के बाल सखा थे।” विजय" नाम था उनका ।
पर वो "विजय राघव" ऐसा नाम बोलने को कहते। वो हँसमुख थे। हर समय विनोद के ही मूड में रहते थे ।
उनको कोई, कहीं रोक टोक न थी।वो कहीं भी आजा सकते थे ।
विजय हमारे यहाँ भी आजाते। और बड़े प्रेम से - भाभी जी ! कुछ खाने को नही है क्या ?
पर तुम यहाँ कैसे आजाते हो ? श्रुतकीर्ति थोड़ा विनोद करती।
मैं ! मैं यहाँ ! वो कुछ सोचते फिर कहते+चींटी को मीठा डाल रहा था।
पर यहाँ चीटीं कहाँ हैं ? श्रुतकीर्ति कहती-तो विजय हंस देते। मेरे पास भी मीठा कहाँ है !उनका कोई बुरा नही मानता था। वो मित्र थे मेरे श्रीराम के। बाल्यावस्था के मित्र। कौन उनसे कुछ बोल सकता था ।
विजय ! बताओ ना ! मेरे बारे में अयोध्या की प्रजा क्या सोचती है ?
आज गम्भीर हैं मेरे श्रीराम और विजय से पूछ बैठे ।
आपके बारे में तो प्रजा ! हँस पड़े विजय+आपका गुणगान तो रावण भी करता था। मैंने सुना है। फिर ये अयोध्या वासी क्यों न करें ।
मुझे आज अपनी प्रशंसा नही सुननी है। सच बताओ ना ! मेरे बारे में कोई बुराई ?
बुराई कौन करेगा आपकी आपका स्वभाव ही इतना मधुर है।
विजय गुणगान गा नही सकता। क्यों कि गुणगान सुनना पसन्द नही है मेरे श्रीराम को ।
अरे हाँ ! विजय एकाएक बोला-वो धोबी है ना ! जो मेरे घर के पास ही रहता है। वो पत्नी को पीटते हुये कह रहा था !
मेरे श्रीराम और गम्भीर हो उठे। क्या बोल रहा था वो ?
विजय को लगा गलती हो गयी मुझ से नही कुछ नही कह रहा था। मेरे मुँह से भी ना, क्या क्या निकल जाता है !
नही विजय ! तुम को मैं बचपन से जानता हूँ। तुम झूठ नही बोलते। तुम चाहे कुछ भी हो सत्य ही बोलते हो !
सच बताओ मेरे बारे में क्या कहती है प्रजा ?
प्रजा कहती है। हमारे राजा तो जहाँ दाढ़ी वाले बाबा जी और पीले कपड़े देखे।रथ से कूद जाते हैं। और उन बाबा जी के पैर ही पकड़ लेते हैं ।
विनोद के मूड में नही हूँ मैं विजय ! सच बताओ वो धोबी क्या कह रहा था?
राघव ! आप भी जिस बात को पकड़ लेते हो। छोड़ो ना ! धोबी जो कह रहा था उसकी बात का मूल्य क्या ?
कैसे मूल्य नही हैं विजय ! वो मेरी प्रजा है और मैं अपनी प्रजा का हूँ। मेरा जीवन अब मात्र प्रजा के लिये ही समर्पित है।
राम का अब अपना व्यक्तित्व कहाँ ! राम तो अब अपनी प्रजा के लिये जीयेगा ।
हाँ तो जीयो प्रजा के लिये विजय को क्या लेना देना इससे ?
विजय फिर विनोद करने लगा था ।
धोबी क्या कह रहा था ? और तुम उसके यहाँ कब गए ?
मैं जा रहा हूँ। विजय जाने लगा।
हाथ पकड़ लिया मेरे श्रीराम ने और कहा-“मेरी कसम है तुम्हें विजय ! बताओ धोबी क्या कह रहा था ? “
ओह ! ये क्या किया राघव ! मैं दुनिया में सब तोड़ सकता हूँ। पर आपने अपनी ही कसम दे दी !
सिर झुकाकर बैठ गया विजय मन में उसके अपार कष्ट हो रहा था। वो बारम्बार यही सोच रहा था कि, क्यों छेड़ी मैंने धोबी की बात !
बता विजय ! क्या कह रहा था वो धोबी ?
सिर झुकाकर बैठा विजय, उसके नेत्रों से टप्प टप्प अश्रु बहने लगे थे ।
मैं रात्रि को लौटकर अपने घर जा रहा था। तभी मैंने देखा एक धोबी जो अपनी पत्नी को पीट रहा था !पीट रहा था ? अपनी पत्नी को ? मेरे श्रीराम चौंक गए थे ।
पर क्यों ? क्यों विजय !
विजय अब अपना मुख ढँककर रो रहा है ।
बताओ विजय ! क्या बात है ?
वो कह रहा था। एक रात के लिये घर से बाहर चली गयी तू !
और मुझे कह रही हैं मैं पवित्र हूँ ? अरे ! जा यहाँ से मैं नही रखूंगा तुझे अब घर में ?
राघव ! मुझे अच्छा नही लगा । मैं उसके घर में जाकर उसे रोकने वाला था कि पत्नी के ऊपर हाथ नही उठाना चाहिये । पर !
पर क्या ? मेरे श्रीराम ने फिर पूछा ।
आगे नही बता सकता। मुझ से अपराध होगा मेरे राघव !
ऐसी बात मुँह से निकालना भी अपराध है। पाप है ।
पर तुम्हें बोलना होगी। बोलो विजय ! मेरे श्रीराम ने कहा ।
लम्बी साँस लेकर । अपने आँसुओं को पोंछते हुए विजय बोला ।
वो धोबी कह रहा था - "मैं कोई राम नही जो लंका रह आई सीता को अपने पास रख ले"
क्या ! मेरे श्रीराम उठ कर खड़े हो गए थे। ये क्या !
चरण पकड़ लिये विजय ने।,
राघव ! मेरी भाभी माँ सबसे पवित्र है। उनको अपवित्र कहना भी पाप है।,वो सती हैं। महासती !
विजय बोलता जा रहा था ।
मेरे श्रीराम का मुख मण्डल उस समय लाल हो गया था।
और लोग क्या कहते हैं ? मेरे श्रीराम ने फिर पूछा ।
और लोग और लोग तो कहते हैं। हमारे जैसा राजा तो आज तक हुआ ही नही। रामराज्य में देखो-प्रजा कितनी खुश है। प्रकृति आनन्दित हैं। विजय धड़ाधड़ बोलता गया ।
नही। सच बताओ ! धोबी की बात और भी लोग कह रहे हैं ?
मौन हो गया विजय। फिर कुछ देर में बोला - लोग कह रहे हैं। पर दो तीन लोगों के कहने का क्या मूल्य ?
शान्त भाव से बैठे रहे मेरे श्रीराम विजय भी वहीं बैठा रहा।
माँ ! आप ? माता कौशल्या महल में आगयी थीं ।
एक खुश खबरी है राम ! श्रीराम ने उठकर प्रणाम किया माता को। फिर विजय की ओर देखते हुये बोलीं-ये तो महल का ही व्यक्ति है इससे क्या छिपाना ?
वत्स राम ! तुम पिता बनने जा रहे हो। हाँ। सीता गर्भवती है ।
विजय उछला। बधाई हो राघव ! पर मेरे श्रीराम गम्भीर ही बने रहे ।
अच्छा ! मुझे नही आना चाहिये था। शायद कोई गम्भीर मन्त्रणा चल रही थी तुम लोगों की। मैं तो बस ये शुभ सूचना देने आगयी थी। माँ कौशल्या जी चली गयीं ।
अब छोड़ो ना ! राघव ! एक धोबी की बात पर क्यों ?
विजय ! तुम जाओ और मेरे तीन भाइयों को बुला लाओ ।
ठीक है। विजय जैसे ही जाने लगा। मैं अपने श्रीराम के हृदय से लगने आ रही थी। मैं गर्भवती हो गयी थी। एक स्त्री के लिये इससे बड़ी ख़ुशी और क्या हो सकती है। और वो भी श्रीराम के पुत्र मेरे गर्भ में थे !
"राघव ! भाभी "विजय जा रहा था बाहर। मैं अपने नाथ के पास आरही थी। पर विजय ने मेरे श्रीराम से कहा।
नही,अभी नही.। कह दो सीता को कि अभी मैं राजकाज में व्यस्त हूँ ।मेरी ओर देखा भी नही। और विजय से बोले- तुम मेरे तीन भाइयों को बुला लाओ ।
मैं लौट गयी अपने महल की ओर। ये कैसा रूप था मेरे श्रीराम का ।
मुझे घबराहट होने लगी थी। फिर मन को समझाया मैंने। राजकाज है। कितनी समस्याएं आती हैं।,प्रजा की किसी समस्या से दुःखी होंगे।
मैं लेट गयी थी अपने पलंग मे। मैंने अपने सामने एक सुन्दर सा चित्र बनवाया है। उर्मिला से कहकर। मेरे सामने मेरे श्रीराघवेंद्र सरकार का एक चित्र हो। ताकि उनके पुत्र भी उनकी तरह ही बने। उर्मिला ने चित्र लगा दिया है ।
मैं वैदेही !
आप मेरे सर्वस्व हैं।ये राज्य आपका है।
ये क्या ? ये ‘आप’ कह कर सम्बोधित क्यों कर रहे थे । अपने छोटे भाइयों को मेरे श्रीराम ! पर व्यक्ति जब अतिशय शोक में होता है। तब वह ऐसे व्यवहार करता ही है ।सामने खड़े हैं हाथ जोड़े तीनों भाई-भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न ।
अश्रु भरे नेत्र, शोकाकुल ।कान्तिहीन मुख मण्डल।
अपने अग्रज श्रीराम को ऐसी अवस्था में देखा तो स्तब्ध रह गए थे ये तीनों भाई ।
आप कहना क्या चाहते हैं आर्य ! आगे बढ़कर भरत ने ही पूछा था ।
तुम लोगों ने सीता के बारे में क्या सुना है ?
ये क्या प्रश्न था ! एक दूसरे का मुँह देखने लगे थे ।
देखो ! राम लड़खड़ाते उठे अपने आसन से।
तुम लोग जानते हो। मेरी सीता का जन्म सत्कुल में हुआ है ।
वह बहुत अच्छे और ज्ञानी परिवार की बेटी है। अयोनिजा है ।
रावण ने उसका हरण किया । मुझे पता था ये बात कोई कह सकता है। इसलिये मैंने सीता की अग्नि परीक्षा भी ली। अगर तुम लोगों को विश्वास नही है तो पूछो इस लक्ष्मण से ये साक्षी है ।
लाल नेत्र हो गए थे मेरे श्रीराम के। वो कभी क्रोध में आजाते थे तो कभी बिलख उठते थे ।
तीनों भाइयों के हृदय में मानो आज वज्राघात हो रहा था। वो किंकर्तव्य विमूढ़ से सिर झुकाये खड़े रहे ।
भाइयों के समझ में अभी तक बात आयी नही थी कि-‘हुआ क्या है।’
वो धोबी कह रहा था कि “सीता रावण के यहाँ रही है,” दीवार से सिर टकराते हुये बोले थे श्रीराम ।
अरे ! उसे क्या पता। जाओ लक्ष्मण ! बताओ उस धोबी को कि मेरी सीता अग्नि से होकर गुजरी है। देवता आकाश में आगये थे। देवता भी गवाही देंगे कि मेरी सीता पवित्र है।
अब बात समझ में आरही थी तीनों भाइयों के कि किसी धोबी ने।
बैठ गए अपने आसन पर फिर श्रीराम । कैसे समझाऊँ कि मेरी सीता पवित्र है। बार बार यही बोले जा रहे थे ।
मैं उस धोबी का सिर काट कर लाता हूँ भैया ! ऐसे कोई किसी के लिये कैसे कह देगा। और पूज्या भाभी माँ ! सामान्य नारी तो नही हैं !
वो इस अयोध्या की साम्राज्ञी हैं। महारानी हैं भैया ! आप अगर आज्ञा नही भी देंगे तो भी ये लक्ष्मण उस धोबी की गर्दन काट कर आपके चरणों में चढ़ा देगा । लक्ष्मण क्रोधपूर्वक बोल रहे थे ।
लक्ष्मण ! बहुत धीमी आवाज में बोले थे श्रीराम ।
“मनुष्य पर लांछन लगना मृत्यु के तुल्य है।”
ये क्या कह रहे हैं आर्य ! भरत आगे आये थे ।
आप एक धोबी की बातों पर ? उसकी बातें भी कहीं ध्यान देने योग्य हैं। मदिरा का पान करने वाला पत्नी के ऊपर हाथ उठाने वाला !
बुद्धिमान व्यक्ति ऐसी बातें सुनकर उदासीन हो जाते हैं।
आर्य ! मुझे क्षमा करें। मैं आपको उपदेश नही दे रहा। मैं भरत आपके चरणों में अपनी विनती चढ़ा रहा हूँ ।
भरत ! अपने यश अपयश से उदासीन हुआ जा सकता है। पर राजा पर ये बात लागू नही होती ना !
भरत ! मैं कोई सामान्य नागरिक नही हूँ। जो कलंक लगा रहा है। उसे सुनकर भी अनसुना कर दूँ ? प्रजा कुछ कह रही है। भले ही झूठ कह रही हो। पर उसे सुनना तो पड़ेगा ना ! और उस प्रजा की बातों का उत्तर तो राजा ही देगा ना ! श्रीराम बस बोले जा रहे थे। उनकी आँखें सूज गयी थीं रो रोकर ।
शासक समाज का होता है। उसका आचरण, उसका लोकापवाद भी समाज के लोगों का आचरण बन जाता है। इसलिये ऊँची गद्दी में बैठे शासक को बहुत सावधान रहने की आवश्यकता है ।
श्रीराम बोले जा रहे थे और उस समय तीनों भाइयों का हृदय काँप रहा था। अज्ञात भय से ।
इसलिये राजा को प्रजा के हित के लिये अपने आपको भी त्यागना पड़े - तो भी त्याग देना चाहिये ।
हाँ। मेरे श्रीराम अपने आपको ही तो अब त्यागने जा रहे थे ।
सब भाई उस समय शान्त, स्तब्ध, शंकित - सुनते रहे। श्रीराम बोलते रहे। बोलते रहे। मेरे लिये तो लोक समूह ही अब उपास्य है। प्रजा ही मेरी इष्ट है। क्यों कि मैं एक राजा हूँ ।