×

Navratri History and Importance: नवरात्रि का महत्त्व एवं कथा

Navratri History and Importance: नवरात्रि का अर्थ होता है, नौ रातें। हिन्दू धर्मानुसार यह पर्व वर्ष में दो बार आता है। एक शरद माह की नवरात्रि और दूसरी बसंत माह की।

By
Published on: 27 March 2023 4:40 PM IST
Navratri History and Importance: नवरात्रि का महत्त्व एवं कथा
X
Navratri History and Importance

Navratri 2023 Importance, Shardiya Navratri 2023 Puja Vidhi: अगर रात्रि का कोई विशेष रहस्य न होता तो उत्सवों को रात्रि न कह कर दिन ही कहा जाता। नवरात्रि का अर्थ होता है, नौ रातें। हिन्दू धर्मानुसार यह पर्व वर्ष में दो बार आता है। एक शरद माह की नवरात्रि और दूसरी बसंत माह की। इस पर्व के दौरान तीन प्रमुख हिंदू देवियों- पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ स्वरुपों श्री शैलपुत्री, श्री ब्रह्मचारिणी, श्री चंद्रघंटा, श्री कुष्मांडा, श्री स्कंदमाता, श्री कात्यायनी, श्री कालरात्रि, श्री महागौरी, श्री सिद्धिदात्री का पूजन विधि विधान से किया जाता है। जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं।

प्रथमं शैलपुत्री च

द्वितीयं ब्रह्माचारिणी।

तृतीय चंद्रघण्टेति

कुष्माण्डेति चतुर्थकम्।

पंचमं स्कन्दमातेति

षष्ठं कात्यायनीति च।

सप्तमं कालरात्रि

महागौरीति चाऽष्टम्।

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिताः।

नवरात्र शब्द से 'नव अहोरात्रों (विशेष रात्रियां) का बोध' होता है। इस समय शक्ति के नव रूपों की उपासना की जाती है क्योंकि 'रात्रि' शब्द सिद्धि का प्रतीक माना जाता है। भारत के प्राचीन ऋषि-मुनियों ने रात्रि को दिन की अपेक्षा अधिक महत्व दिया है। यही कारण है कि दीपावली, होलिका, शिवरात्रि और नवरात्र आदि उत्सवों को रात में ही मनाने की परंपरा है। यदि, रात्रि का कोई विशेष रहस्य न होता तो ऐसे उत्सवों को रात्रि न कह कर दिन ही कहा जाता। जैसे- नवदिन या शिवदिन। लेकिन हम ऐसा नहीं कहते।

क्या है नवरात्र ?

मनीषियों ने वर्ष में दो बार नवरात्रों का विधान बनाया है- विक्रम संवत के पहले दिन अर्थात चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा (पहली तिथि) से नौ दिन अर्थात नवमी तक। इसी प्रकार इसके ठीक छह मास पश्चात् आश्विन मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से महानवमी अर्थात विजयादशमी के एक दिन पूर्व तक नवरात्र मनाया जाता है।

लेकिन फिर भी सिद्धि और साधना की दृष्टि से शारदीय नवरात्रों को ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया है। इन नवरात्रों में लोग अपनी आध्यात्मिक और मानसिक शक्ति संचय करने के लिए अनेक प्रकार के व्रत, संयम, नियम, यज्ञ, भजन, पूजन, योग-साधना आदि करते हैं। यहां तक कि कुछ साधक इन रात्रियों में पूरी रात पद्मासन या सिद्धासन में बैठकर आंतरिक त्राटक या बीज मंत्रों के जाप द्वारा विशेष सिद्धियां प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।

जबकि मनीषियों ने रात्रि के महत्व को अत्यंत सूक्ष्मता के साथ वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में समझने और समझाने का प्रयत्न किया। अब तो यह एक सर्वमान्य वैज्ञानिक तथ्य भी है कि रात्रि में प्रकृति के बहुत सारे अवरोध खत्म हो जाते हैं। हमारे ऋषि-मुनि आज से कितने ही हजारों-लाखों वर्ष पूर्व ही प्रकृति के इन वैज्ञानिक रहस्यों को जान चुके थे।

आप अगर ध्यान दें तो पाएंगे कि अगर दिन में आवाज दी जाए, तो वह दूर तक नहीं जाती है, किंतु यदि रात्रि में आवाज दी जाए तो वह बहुत दूर तक जाती है। इसके पीछे दिन के कोलाहल के अलावा एक वैज्ञानिक तथ्य यह भी है कि दिन में सूर्य की किरणें आवाज की तरंगों और रेडियो तरंगों को आगे बढ़ने से रोक देती हैं।

रेडियो इस बात का जीता-जागता उदाहरण है। आपने खुद भी महसूस किया होगा कि कम शक्ति के रेडियो स्टेशनों को दिन में पकड़ना अर्थात सुनना मुश्किल होता है जबकि सूर्यास्त के बाद छोटे से छोटा रेडियो स्टेशन भी आसानी से सुना जा सकता है। इसका वैज्ञानिक सिद्धांत यह है कि सूर्य की किरणें दिन के समय रेडियो तरंगों को जिस प्रकार रोकती हैं ठीक उसी प्रकार मंत्र जाप की विचार तरंगों में भी दिन के समय रुकावट पड़ती है।

इसीलिए ऋषि-मुनियों ने रात्रि का महत्व दिन की अपेक्षा बहुत अधिक बताया है। मंदिरों में घंटे और शंख की आवाज के कंपन से दूर-दूर तक वातावरण कीटाणुओं से रहित हो जाता है। यही रात्रि का तर्कसंगत रहस्य है। जो इस वैज्ञानिक तथ्य को ध्यान में रखते हुए रात्रियों में संकल्प और उच्च अवधारणा के साथ अपनी शक्तिशाली विचार तरंगों को वायुमंडल में भेजते हैं, उनकी कार्यसिद्धि अर्थात मनोकामना सिद्धि, उनके शुभ संकल्प के अनुसार उचित समय और ठीक विधि के अनुसार करने पर अवश्य होती है।

वैज्ञानिक आधार

नवरात्र के पीछे का वैज्ञानिक आधार यह है कि पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा काल में एक साल की चार संधियां हैं । जिनमें से मार्च व सितंबर माह में पड़ने वाली गोल संधियों में साल के दो मुख्य नवरात्र पड़ते हैं। इस समय रोगाणु आक्रमण की सर्वाधिक संभावना होती है।

ऋतु संधियों में अक्सर शारीरिक बीमारियां बढ़ती हैं। अत: उस समय स्वस्थ रहने के लिए तथा शरीर को शुद्ध रखने के लिए और तन-मन को निर्मल और पूर्णत: स्वस्थ रखने के लिए की जाने वाली प्रक्रिया का नाम 'नवरात्र' है।

अमावस्या की रात से अष्टमी तक या पड़वा से से नवमी की दोपहर तक व्रत नियम चलने से नौ रात यानी 'नवरात्र' नाम सार्थक है। चूंकि यहां रात गिनते हैं । इसलिए इसे नवरात्र यानि नौ रातों का समूह कहा जाता है। रूपक के द्वारा हमारे शरीर को नौ मुख्य द्वारों वाला कहा गया है और इसके भीतर निवास करने वाली जीवनी शक्ति का नाम ही दुर्गा देवी है।

इन मुख्य इन्द्रियों में अनुशासन, स्वच्छ्ता, तारतम्य स्थापित करने के प्रतीक रूप में, शरीर तंत्र को पूरे साल के लिए सुचारू रूप से क्रियाशील रखने के लिए नौ द्वारों की शुद्धि का पर्व नौ दिन मनाया जाता है। इनको व्यक्तिगत रूप से महत्व देने के लिए नौ दिन, नौ दुर्गाओं के लिए कहे जाते हैं।

हालांकि शरीर को सुचारू रखने के लिए विरेचन, सफाई या शुद्धि प्रतिदिन तो हम करते ही हैं । किन्तु अंग-प्रत्यंगों की पूरी तरह से भीतरी सफाई करने के लिए हर छह माह के अंतर से सफाई अभियान चलाया जाता है । जिसमें सात्विक आहार के व्रत का पालन करने से शरीर की शुद्धि, साफ-सुथरे शरीर में शुद्ध बुद्धि, उत्तम विचारों से ही उत्तम कर्म, कर्मों से सच्चरित्रता और क्रमश: मन शुद्ध होता है, क्योंकि स्वच्छ मन मंदिर में ही तो ईश्वर की शक्ति का स्थायी निवास होता है।

चैत्र और आश्विन नवरात्रि ही मुख्य माने जाते हैं । इनमें भी देवी भक्त आश्विन नवरात्रि का बहुत महत्व है। इनको यथाक्रम वासंती और शारदीय नवरात्र कहते हैं। इनका आरंभ चैत्र और आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को होता है। ये प्रतिपदा 'सम्मुखी' शुभ होती है।

दिन का महत्व:

नवरात्रि वर्ष में चार बार आती है। जिसमे चैत्र और आश्विन की नवरात्रियों का विशेष महत्व है। चैत्र नवरात्रि से ही विक्रम संवत की शुरुआत होती है। इन दिनों प्रकृति से एक विशेष तरह की शक्ति निकलती है। इस शक्ति को ग्रहण करने के लिए इन दिनों में शक्ति पूजा या नवदुर्गा की पूजा का विधान है। इसमें मां की नौ शक्तियों की पूजा अलग-अलग दिन की जाती है। पहले दिन मां के शैलपुत्री स्वरुप की उपासना की जाती है। इस दिन से कई लोग नौ दिनों या दो दिन का उपवास रखते हैं।

पहले दिन की पूजा का विधान:

इस दिन से नौ दिनों का या दो दिनों का व्रत रखा जाता है। जो लोग नौ दिनों का व्रत रखेंगे वो दशमी को पारायण करेंगे। जो पहली और अष्टमी को उपवास रखेंगे वो नवमी को पारायण करेंगे। इस दिन कलश की स्थापना करके अखंड ज्योति भी जला सकते हैं। प्रातः और सायंकाल दुर्गा सप्तशती का पाठ करें और आरती भी करें।

अगर सप्तशती का पाठ नहीं कर सकते तो नवार्ण मंत्र का जाप करें। पूरे दस दिन खान-पान आचरण में सात्विकता रखें। मां को आक, मदार, दूब और तुलसी बिल्कुल न चढ़ाएं। बेला, चमेली, कमल और दूसरे पुष्प मां को चढ़ाए जा सकते हैं।

नवरात्रि व्रत कथा

एक समय की बात है बृहस्पति जी ब्रह्मा जी से कहते हैं कि ब्रह्मन ! आप अत्यंत बुद्धिमान, सर्वशास्त्र और चारों वेदों को जानने वालों में सबसे श्रेष्ठ हैं। हे प्रभु कृपया कर मेरा कथन भी सुनिए! चैत्र व आश्विन माह के शुक्ल पक्ष में नवरात्र का व्रत व उत्सव क्यूँ किया जाता है? इस व्रत का क्या फल मिलता है? पहले इस व्रत को किसने किया था? बृहस्पति जी का कथन सुनकर ब्रह्माजी बोले – बृहस्पते! तुमने बहुत ही अच्छा प्रश्न किया है। जो मनुष्य मनोरथ पूर्ण करने वाली दुर्गा, महादेवी, सूर्य और नारायण का ध्यान करते हैं वे मनुष्य धन्य हैं। नवरात्र का यह पर्व सम्पूर्ण कामनाओं को पूरा करने वाला है।

ब्रह्माजी आगे कहते हैं कि – बृहस्पते! जिसने सबसे पहले इस नवरात्र महाव्रत को किया है उसका पवित्र इतिहास मैं तुम्हें सुनाता हूँ, तुम इसे ध्यानपूर्वक सुनो. ब्रह्माजी कहते हैं – एक नगर था जिसका नाम पीठत था, उसमें अनाथ नाम का ब्राह्मण निवास करता था. वह भगवती दुर्गा का अनन्य भक्त था। संपूर्ण सद्गुणों से युक्त एक कन्या ने उसके यहाँ जन्म लिया। मानों ब्रह्मा की सबसे पहली रचना हो वह, उसका नाम सुमति रखा गया. सुमति अपनी सहेलियों के साथ ऎसे बड़ी होने लगी जैसे शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा की कलाएँ बढ़ रही हों।

सुमति के पिता नियम से प्रतिदिन दुर्गा की पूजा तथा हवन किया करते थे और उस समय सुमति भी वहाँ उपस्थित रहती थी। एक दिन सुमति अपनी सहेलियों के साथ खेल में मग्न हो गई और भगवती के पूजन में शामिल नहीं हुई। उसके पिता को सुमति पर बहुत क्रोध आया और क्रोध में आकर कहने लगे कि हे दुष्ट पुत्री! आज तुम भगवती के पूजन में शामिल नहीं हुई हो इसलिए मैं तुम्हारा विवाह किसी कुष्ठी व दरिद्र मनुष्य से कर दूंगा. पिता की बातों से पुत्री को कष्ट पहुंचा और कहने लगी कि हे पिता ! मैं आपकी पुत्री हूँ और आपके अधीन हूँ इसलिए आप मेरा विवाह जिस किसी से कराना चाहे करा सकते हैं क्योंकि होना तो वही है जो मेरे भाग्य में लिखा है। मुझे तो भाग्य पर पूर्ण विश्वास है।

सुमति कहती है कि मनुष्य कितने मनोरथों को पूरा करना चाहता है । लेकिन होता तो वही है जो भाग्य विधाता भाग्य में लिखकर देते हैं. जो जैसा कर्म करता है उसको फल भी उन कर्मो के अनुसार ही मिलते हैं। मनुष्य के हाथ में केवल कर्म करना लिखा है और उसका फल देना भगवान के हाथ में होता है। अपनी कन्या के मुख से ये निर्भयपूर्ण बातें सुनकर ब्राह्मण का क्रोध बढ़ जाता है और अपनी पुत्री का विवाह एक कुष्ठ रोगी से कर देता है और कहता है कि अब जाओ और अपने कर्म का फल भोगो। मैं भी देखता हूँ कि तुम भाग्य के भरोसे रहकर कैसे जीवनयापन करती हो?

पिता के वचनों को सुन सुमति मनन करने लगी कि मेरा दुर्भाग्य है कि मुझे ऎसा पति मिला और अपने दुखों पर विचार करती हुई सुमति वन की ओर चल पड़ी। उस भयानक वन में कुशा पर रात बिताई. गरीब सुमति की हालत देखकर देवी भगवती उसके पूर्व के पुण्यों को देखती हुई उसके सामने प्रकट होती हैं और कहती हैं – हे दीन ब्राह्मणी ! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, तुम जो चाहो वह वर माँग सकती हो, मैं तुम्हें सब दूँगी. भगवती दुर्गा के वचन सुनकर सुमति कहने लगी – आप कौन है? जो मुझ पर प्रसन्न हैं। अपनी दीन दृष्टि से आप मुझे कृतार्थ करें. ब्राह्मणी की बात सुनकर देवी कहने लगी कि मैं आदि शक्ति हूँ, मैं ही ब्रह्मा, विद्या और सरस्वती हूँ। प्रसन्न होने पर मैं प्राणियों का दुख दूर कर उन्हें सुख प्रदान करती हूँ। मैं तुझसे तेरे पूर्व पुण्यों के कारण प्रसन्न हूँ।

देवी कहती हैं कि तुम पूर्व जन्म में निषाद की पत्नी थी और अत्यधिक पतिव्रता थी। एक दिन तेरे पति निषाद ने चोरी की और इस चोरी में निषाद के साथ सिपाहियों ने तुम्हे भी पकड़ लिया। तुम दोनों को जेल में बंद कर दिया और भोजन भी नहीं दिया। उन दिनों तुमने ना कुछ खाया और ना ही कुछ पीया। इस प्रकार नौ दिन तक नवरात्र का व्रत हो गया। भगवती बोली कि हे देवी ! उन नौ दिनों के व्रत के प्रभाव से मैं प्रसन्न हूँ और तुम्हें मनोवाँछित वस्तु दे रही हूँ। तुम जो चाहे माँग सकती हो। भगवती की बात सुनकर ब्राह्मणी बोली – आपको मैं शत-शत प्रणाम करती हूँ। आप मेरे पति पर कृपा करें और उनके कोढ़ को दूर करें। इस पर देवी कहती हैं कि उन दिनों तुमने जो व्रत किया था उसमें से एक दिन के व्रत का पुण्य अपने पति के रोग को दूर करने के लिए अर्पण करो। मेरे प्रभाव से तेरा पति सोने के शरीर वाला हो जाएगा।

ब्रह्माजी बोले – इस प्रकार देवी का वचन सुन वह ब्राह्मणी बहुत खुश हुई और पति को निरोगी देखने की इच्छा से ठीक है, ऎसे बोली। उसके पति का शरीर भगवती देवी की कृपा से ठीक होकर सोने की कान्ति सा हो गया, मानो उसकी कान्ति के समक्ष चन्द्रमा की कान्ति भी फीकी पड़ गई हो। पति की मनोहर देह को देखकर ब्राह्मणी देवी को अति पराक्रम वाली समझकर स्तुति करने लगी कि हे दुर्गे! आप दुखों को दूर करने वाली , तीनों लोकों के कष्ट हरने वाली, दुखों का निवारण करने वाली, रोगी को निरोगी करने वाली, प्रसन्न होने पर मनवांछित फल देने वाली और दुष्ट मनुष्यों का नाश करने वाली हो। तुम ही सारे जगत की माता व पिता हो। हे अम्बे माँ ! मेरे पिता ने क्रोध में मेरा विवाह एक कुष्ठी के साथ करके घर से निकाल दिया है। पिता की निकाली हुई बेटी को आपने सहारा दिया है।

ब्राह्मणी कहती है कि हे देवी! दुखों के इस सागर से आपने मुझे बाहर निकाला है। हे देवी मैं आपको बारम्बार प्रणाम करती हूँ। ब्रह्माजी बोले – हे बृहस्पते! उस सुमति ने मन से देवी की बहुत स्तुति की और उसकी की हुई स्तुति से देवी को बहुत संतोष हुआ। देवी ने ब्राह्मणी से कहा कि तुम्हारे घर एक अति बुद्धिमान, धनवान, कीर्तिवान और जितेन्द्रिय पुत्र पैदा होगा जिसका नाम उद्दालक होगा। देवी ब्राह्मणी से कहने लगी – हे ब्राह्मणी तेरी कोई और इच्छा हो तो वह माँग सकती हो. ब्राह्मणी कहती है कि हे माँ ! आप अगर मुझसे प्रसन्न हैं तो आप मुझे नवरात्र करने की विधि सविस्तार बताइए। ब्राह्मणी के वचन सुनकर देवी कहती हैं कि मैं तुम्हे संपूर्ण नाशों को दूर करने वाले नवरात्र व्रत की विधि बताती हूँ।

देवी कहती हैं कि इसे ध्यानपूर्वक सुनों – आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर नौ दिन तक विधिपूर्वक व्रत करें। यदि दिनभर व्रत नहीं कर सकते तो एक समय का भोजन करें। ब्राह्मणों से पूछकर घटस्थापन करें और वाटिका बनाकर उसको प्रतिदिन जल से सीचें. महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की मूर्त्तियाँ बनाकर उनकी नित्य प्रति विधि विधान से पूजा-अर्चना करें। पुष्पों से अर्ध्य दे और बिजौरा के पुष्प से अर्ध्य देने पर रुप की प्राप्ति होती है। जायफल से कीर्त्ति, दाख से कार्य की सिद्धि होती है। आँवले से सुख व केले से भूषण की प्राप्ति होती है। फलों से अर्ध्य देकर विधि से हवन करें। खांड, घी, गेहूँ, शहद, जौ, तिल, नारियल, बिम्ब, दाख व कदम्ब आदि सामग्रियों से हवन संपन्न करें।

गेहूँ का हवन करने से लक्ष्मी की प्राप्ति, खीर व चम्पा के फूलों से धन व पत्तों से तेज और सुख प्राप्त होता है। आँवले से कीर्ति और केले से पुत्र की प्राप्ति होती है। कमल से राज-सम्मान और दाखों से सुख संपत्ति मिलती है। खांड, घी, नारियल, शहद, जौ व तिल और फलों से होम करने से मनवाँछित वस्तु की प्राप्ति होती है। व्रत करने वाले को स्वभाव में नम्रता रखनी चाहिए। अंत में आचार्य को प्रणाम कर यथाशक्ति उसे दक्षिणा देकर विदा करना चाहिए। इस महाव्रत को बताई विधि के अनुसार जो भी करता है उसके सारे मनोरथ पूरे होते हैं।

ब्रह्माजी कहते है – हे बृहस्पते! इस प्रकार ब्राह्मणी को इस व्रत की विधि व फल बताकर देवी अन्तर्ध्यान हो गई। जो मनुष्य इस व्रत को करता है वह इस लोक में सुख पाकर अंत में मोक्ष प्राप्त करते हैं। ब्रह्माजी फिर कहते हैं कि हे बृहस्पते! इस व्रत का माहात्म्य मैने तुम्हें बतलाया है! ब्रह्माजी का कथन सुन बृहस्पति आनन्द विभोर हो उठे और ब्रह्माजी जी से कहने लगे – हे ब्रह्माजी ! आपने मुझ पर अति कृपा की है जो आपने मुझे अमृत के समान इस नवरात्रि व्रत का माहात्म्य सुनाया है।



Next Story