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Shiv Mahapuran Vidyeshwar Samhita Adhyay 13: संध्यावंदन, प्रणव, गायत्री जाप एवं अग्निहोत्र की विधि तथा महिमा-भाग 2

Shiv Mahapuran Vidyeshwar Samhita Adhyay 13: ब्रह्मस्वरूप ओंकार हमारी कर्मेद्रियों, ज्ञानेंद्रियों, मन की वृत्तियों तथा बुद्धिवृत्तियों को सदा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले धर्म एवं ज्ञान की ओर प्रेरित करें। जो मनुष्य प्रणव मंत्र के अर्थ का चिंतन करते हुए इसका जाप करते हैं।

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Published on: 28 April 2023 4:21 AM IST
Shiv Mahapuran Vidyeshwar Samhita Adhyay 13: संध्यावंदन, प्रणव, गायत्री जाप एवं अग्निहोत्र की विधि तथा महिमा-भाग 2
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Shiv Mahapuran (Pic: Newstrack)

Shiv Mahapuran Vidyeshwar Samhita Adhyay 13: सूत जी आगे बोले - अर्थसिद्धि के लिए ईश, गौरी, कार्तिकेय, विष्णु, ब्रह्मा, चंद्रमा और यम व अन्य देवताओं का शुद्ध जल से तर्पण करें। तीर्थ के दक्षिण में, मंत्रालय में, देवालय में अथवा घर में आसन पर बैठकर अपनी बुद्धि को स्थिर कर देवताओं को नमस्कार कर प्रणव मंत्र का जाप करने के पश्चात गायत्री मंत्र का जाप करें। प्रणव के 'अ', 'उ' और 'म' तीनों अक्षरों में जीव और ब्रह्मा की एकता का प्रतिपादन होता है। अतः प्रणव मंत्र का जाप करते समय मन में यह भावना होनी चाहिए कि हम तीनों लोकों की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा, पालन करने वाले विष्णु तथा संहार करने वाले रुद्र की उपासना कर रहे हैं। यह ब्रह्मस्वरूप ओंकार हमारी कर्मेद्रियों, ज्ञानेंद्रियों, मन की वृत्तियों तथा बुद्धिवृत्तियों को सदा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले धर्म एवं ज्ञान की ओर प्रेरित करें। जो मनुष्य प्रणव मंत्र के अर्थ का चिंतन करते हुए इसका जाप करते हैं, वे निश्चय ही ब्रह्मा को प्राप्त करते हैं तथा जो मनुष्य बिना अर्थ जाने प्रणव मंत्र का जाप करते हैं, उनको 'ब्राह्मणत्व' की पूर्ति होती है। इस हेतु श्रेष्ठ ब्राह्मण को प्रतिदिन प्रातः काल एक सहस्र गायत्री मंत्र का जाप करना चाहिए। मध्याह्न में सौ बार तथा सायं अट्ठाईस बार जाप करें। अन्य वर्णों के मनुष्यों को सामर्थ्य के अनुसार जाप करना चाहिए।

हमारे शरीर के भीतर मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, आज्ञा और सहस्रार नामक छः चक्र हैं। इन चक्रों में क्रमशः विद्येश्वर, ब्रह्मा, विष्णु, ईश, जीवात्मा और परमेश्वर स्थित हैं। सद्भावनापूर्वक श्वास के साथ 'सोऽहं' का जाप करें। सहस्र बार किया गया जाप ब्रह्मलोक प्रदान करने वाला है। सौ बार किए जाप से इंद्र पद की प्राप्ति होती है। आत्मरक्षा के लिए जो मनुष्य अल्प मात्रा में इसका जाप करता है, वह ब्राह्मण कुल में जन्म लेता है। बारह लाख गायत्री का जाप करने वाला मनुष्य 'ब्राह्मण' कहा जाता है। जिस ब्राह्मण ने एक लाख गायत्री का भी जप न किया हो उसे वैदिक कार्यों में न लगाएं। यदि एक दिन उल्लंघन हो जाए तो अगले दिन उसके बदले में उतने अधिक मंत्रों का जाप करना चाहिए। ऐसा करने से दोषों की शांति होती है। धर्म से अर्थ की प्राप्ति होती है, अर्थ से भोग सुलभ होता है। भोग से वैराग्य की संभावना होती है। धर्मपूर्वक उपार्जित धन से भोग प्राप्त होता है, उससे भोगों के प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है। मनुष्य धर्म से धन पाता है एवं तपस्याओं से दिव्य रूप प्राप्त करता है। कामनाओं का त्याग करने से अंतःकरण की शुद्धि होती है, उस शुद्धि से ज्ञान का उदय होता है।

सतयुग में 'तप' को तथा कलियुग में 'दान' को धर्म का अच्छा साधन माना गया है। सतयुग में 'ध्यान' से त्रेता में 'तपस्या' से और द्वापर में 'यज्ञ' करने से ज्ञान की सिद्धि होती है। परंतु कलियुग में प्रतिमा की पूजा से ज्ञान लाभ होता है। अधर्म, हिंसात्मक और दुख देने वाला है। धर्म से सुख व अभ्युदय की प्राप्ति होती है। दुराचार से दुख तथा सदाचार से सुख मिलता है। अतः भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिए धर्म का उपार्जन करना चाहिए। किसी ब्राह्मण को सौ वर्ष के जीवन निर्वाह की सामग्री देने पर ही ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। एक सहस्र चांद्रायण व्रत का अनुष्ठान ब्रह्मलोक दायक माना जाता है। दान देने वाला पुरुष जिस देवता को सामने रखकर दान करता है अर्थात जिस देवता को वह दान द्वारा प्रसन्न करना चाहता है, उसी देवता का लोक उसे प्राप्त होता है। धनहीन पुरुष तपस्या कर अक्षय सुख को प्राप्त कर सकते हैं।

ब्राह्मण को दान ग्रहण कर तथा यज्ञ करके धन का अर्जन करना चाहिए। क्षत्रिय बाहुबल से तथा वैश्य कृषि एवं गोरक्षा से धन का उपार्जन करें। इस प्रकार न्याय से उपार्जित धन को दान करने से दाता को ज्ञान की सिद्धि प्राप्त होती है एवं ज्ञान से ही मोक्ष की प्राप्ति सुलभ होती है। गृहस्थ मनुष्य को धन-धान्य आदि सभी वस्तुओं का दान करना चाहिए। जिसके अन्न को खाकर मनुष्य कथा श्रवण तथा सद्कर्म का पालन करता है तो उसका आधा फल दाता को मिलता है। दान लेने वाले मनुष्य को दान में प्राप्त वस्तु का दान तथा तपस्या द्वारा पाप की शुद्धि करनी चाहिए। उसे अपने धन के तीन भाग करने चाहिए- एक धर्म के लिए, दूसरा वृद्धि के लिए एवं तीसरा उपभोग के लिए। धर्म के लिए रखे धन से नित्य, नैमित्तिक और इच्छित कार्य करें। वृद्धि के लिए रखे धन से ऐसा व्यापार करें, जिससे धन की प्राप्ति हो तथा उपभोग के धन से पवित्र भोग भोगें । खेती से प्राप्त धन का दसवां भाग दान कर दें। इससे पाप की शुद्धि होती है। वृद्धि के लिए किए गए व्यापार से प्राप्त धन का छठा भाग दान देना चाहिए।

विद्वान को चाहिए कि वह दूसरों के दोषों का बखान न करे। ब्राह्मण भी दोषवश दूसरों के सुने या देखे हुए छिद्र को कभी प्रकट न करे। विद्वान पुरुष ऐसी बात न कहे, जो समस्त प्राणियों के हृदय में रोष पैदा करने वाली हो। दोनों संध्याओं के समय अग्नि को विधिपूर्वक दी हुई आहुति से संतुष्ट करे। चावल, धान्य, घी, फल, कंद तथा हविष्य के द्वारा स्थालीपाक बनाए तथा यथोचित रीति से सूर्य और अग्नि को अर्पित करे। यदि दोनों समय अग्निहोत्र करने में असमर्थ हो तो संध्या के समय जाप और सूर्य की वंदना कर ले आत्मज्ञान की इच्छा रखने वाले तथा धनी पुरुषों को इसी प्रकार उपासना करनी चाहिए। जो मनुष्य सदा ब्रह्मयज्ञ करते हैं, देवताओं की पूजा, अग्निपूजा और गुरुपूजा प्रतिदिन करते हैं तथा ब्राह्मणों को भोजन तथा दक्षिणा देते हैं, वे स्वर्गलोक के भागी होते हैं।

(कंचन सिंह)

( लेखिका ज्योतिषाचार्य हैं ।)

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