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Shree Krishna Story in Hindi: श्रीकृष्ण का शान्ति प्रस्ताव, पढ़ें महाभारत की कहानी
Shree Krishna Story in Hindi: श्रीकृष्ण शान्ति-प्रस्ताव के साथ जब हस्तिनापुर पँहुच कर विदुर से मिले तब
श्रीकृष्ण शान्ति-प्रस्ताव के साथ जब हस्तिनापुर पँहुच कर विदुर से मिले तब
विदुर कहते हैं कि :-
नेदं सम्यग्व्यवसितं केशवागमनं तव !
आपने यहाँ आने का विचार किया है, यह मेरी समझ में अच्छा नहीं हुआ। विदुर समझ रहे थे कि सत्ता का सूत्र दुर्योधन और उसके मामा के हाथों में है।
किन्तु श्रीकृष्ण को तो अपना प्रयास करना ही था।
वे कौरवसभा में गये।
कौरव-सभा सजी हुई है। ऊँचे राजसिंहासन पर धृतराष्ट्र विराजमान हैं।
अन्य जनपद-राज्यों के राजा भी आये हुए हैं।
भीष्म विदुर आदि जो विवेकी जन हैं, वे सभी चाहते हैं कि युद्ध टल जाय
किन्तु ऐसे भी हैं, जो अपने जनबल-धनबल के अभिमान के कारण सोच रहे हैं कि कृष्ण और पांडव हमसे भयभीत हो गये हैं।
श्रीकृष्ण कौरव-सभा में प्रवेश करते हैं। सभी को प्रणाम करके धृतराष्ट्र से कहते हैं कि :-
अप्रणाशेन वीराणामेतद् याचितुमागत:।
राजन् ! वीरों का संहार न हो, यह याचना करने आया हूँ।
युद्ध से तो दोनों पक्षों का विनाश ही होगा।
आप अपने स्वत्व को सँभाल लें और जिन लोगों के मन में युद्ध का उन्माद है, उन्हें समझा दें तो भारत पर आने वाली बड़ी विपत्ति टल जायेगी।
आप अपने पुत्रों को नियन्त्रण में रखिये और मैं पांडवों को राजी कर लूँगा ! इसमें प्रजा-जन का भी भला है और दोनों पक्षों का भी हित है। आपके राज्य का अभ्युदय होगा, विस्तार होगा क्योंकि फिर आपसे बड़ी राज्यशक्ति और किसकी हो सकेगी ?
राजन् !
युद्ध में यदि पांडव मारे गये तो क्या आप उससे सुखी हो जायेंगे ?
राजन् ! इस समय आपके ऊपर शान्ति स्थापित करने का बहुत बड़ा दायित्व है, जिससे ये राजा लोग अपने मन से वैरभाव को निकाल कर हँसते -हँसाते घर लौट जाँय।
राजन् !
पांडव आपके बालक ही तो हैं, आपने ही तो उनका पालन-पोषण किया था ।
राजन् !
पांडवों ने मेरे माध्यम से आपके लिए संदेश भेजा है, उसे सुनिये -
तात ! आपका आदेश था, हम बारह वर्ष तक निर्जन-वन में रहे । तेरहवें बरस हमने अज्ञातवास किया। अब आप भी अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करिये । आप हमारे ज्येष्ठ पिता हैं। हमने बहुत क्लेश पाया है, अब आप हमारा जो न्याय्य है, वह हमें दे दीजिये । आप धर्म के ज्ञाता हैं, हम भी तो आपके पुत्र ही हैं ।
फिर श्री कृष्ण ने सभा को सम्बोधित करके कहा कि :-
हे सभासदो ! आपके लिए भी पांडवों ने संदेश भेजा है, उसे सुनो -
यत्र धर्मो ह्यधर्मेण सत्यं यत्रानृतेन च ।
हन्यते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासद:।
विद्धो धर्मो ह्यधर्मेण सभां यत्र प्रपद्यते ।
न चास्य शल्यं कृन्तन्ति विद्धास्तत्र सभासद: !
हे सभासदो ! जहाँ अधर्म धर्म का गला घोंट दे,असत्य सत्य का गला घोंट दे, वहाँ सभासद भी नष्ट हो जाते हैं।
हे सभासदो ! जिस सभा में अधर्म से बिंधा हुआ धर्म प्रवेश कर जाता है, उस सभा के सभासद भी नष्ट हो जाते हैं।
श्रीकृष्ण धृतराष्ट्र से पुन: कहते हैं :-
हे राजन् ! मैं आप से बार-बार विनती कर रहा हूँ
आप युद्ध के संकट से देश को बचा लीजिये। पांडव आपकी सेवा को तत्पर हैं।
आपको ही निर्णय करना है कि आपको युद्ध चाहिए अथवा शान्ति
लेकिन परिस्थिति निर्णायक होती हैं।
सचमुच वे विनाश नहीं चाहते थे ! लेकिन परिस्थिति निर्णायक होती हैं।
यह निर्विवाद है कि सारी परिस्थिति उनके सामने थी।
अवश्य ही उन्होंने सारा आगा-पीछा सोच लिया था।
फिर भी वे यथासंभव युद्ध को टालना चाहते थे।
उन्होंने धृतराष्ट्र से कहा था कि आप अपने पुत्रों को मर्यादा में कर लें तो
पांडवों की गारंटी मैं ले लूँगा :-
पुत्रान् स्थापय कौरव्य स्थापयिष्याम्यहंपरान् !
लेकिन वे चाह कर भी युद्ध नहीं टाल सके।
जब युद्ध के बाद उत्तंक ने कृष्ण से कहा था कि मैं तुम्हें शाप दूँगा, तुम युद्ध टाल
सकते थे।
तब उन्होंने उनको अपने मन की बात कही थी तथा सारी परिस्थिति का
चित्रण किया था।
तब उत्तंक ने बहुत से सवाल पूछे थे। अपनी सारी बातें उन्होंने उत्तंक को
समझायी थीं,अन्त में उन्होने कहा कि परिस्थितियाँ निर्णायक होती हैं,
वास्तव में जीवन केवल वर्तमान से ही संचालित नहीं होता, वह इतिहास की उस समग्रता से संचालित होता है, जो लोकचेतना की अतल गहराई में विद्यमान है और
जिसका आयात संभव है, न निर्यात ।